लिटरेचर लव
ज़ीस्त को आख़िरी साँसों में समझ पाये हम
ख़्वाब को टूटती नींदों में समझ पाये हम,
इश्क़ को आख़िरी लमहों में समझ पाये हम।
ये असर वक़्त का लगता है कि उसका चेहरा,
मुश्क़िलों से कई चेहरों में समझ पाये हम।
क्यों उठी थी वो नज़र मुझपे सवालात के साथ,
चन्द लमहात को सदियों में समझ पाये हम।
रास्ता क्या है ये मन्ज़िल की हक़ीक़त क्या है,
सारा क़िस्सा तेरी गलियों में समझ पाये हम।
सू-ए-मरघट का कोई तल्ख़ सफ़र था ‘सौरभ’
ज़ीस्त को आख़िरी साँसों में समझ पाये हम।