इन्फोटेन

अपने आप में एक फिल्म मूवमेंट थे गुरुदत्त

गुरुदत्त के बिना वर्ल्ड फिल्म की बात करना बेमानी है। जिस वक्त फ्रांस में न्यू वेव मूंवमेंट शुरु भी नहीं हुआ था, उस वक्त गुरदत्त इस जेनर में बहुत काम कर चुके थे। फ्रांस के न्यू वेव मूवमेंट के जन्मदाताओं ने उस समय दुनिया की तमाम फिल्मों को उलट-पलट कर खूब नाप-जोख किया, लेकिन भारतीय फिल्मों की ओर उनका ध्यान नहीं गया। गुरदत्त की फिल्मों का प्रदर्शन उस समय जर्मनी, फ्रांस और जापान में भी किया जा रहा था और सभी शो फूल जा रहे थे।

गुरुदत्त हर लेवल पर विश्व फिल्म को लीड कर रहे थे। 1950-60 के दशक में गुरु दत्त ने कागज के फूल, प्यासा, साहिब बीवी और गुलाम और चौदंहवी का चांद जैसे फिल्मे बनाई थी, जिनमें उन्होंने कंटेट लेवल पर फिल्मों के क्लासिकल पोयटिक एप्रोच को बरकार रखते हुये रियलिज्म का भरपूर इस्तेमाल किया था, जो फ्रांस के न्यू वेव मूवमेवट की खास विशेषता थी। विश्व फिल्म परिदृश्य में गुरुदत और उनकी फिल्मों को समझने के लिए फ्रांस के न्यू वेव मूवमेवट के थियोरिटकल फामूलों का सहारा लिया जा सकता है, हालांकि गुरु दत्त अपने आप में एक फिल्म मूवमेवट थे। किसी फिल्म मूवमेवट के ग्रामर पर उन्हें नहीं कसा जा सकता।

फ्रेंच न्यू वेव की शुरुआत फ्रांस की फिल्मी पत्रिका कैहियर डू सिनेमा से शुरु होती है। इस पत्रिका का सह-संस्थापक और संपादक एंड्रे बाजिन ने अपने अगल-बगल ऐसे लोगों की मंडली बना रखी थी, जो दुनियाभर की फिल्मों के पीछे खूब मगजमारी करते थे। फ्रान्कोईस ट्रूफॉट, जीन-लुक गोडारड, एरिक रोहमर, क्लाउड चाब्रोल और जैकस रिवेटी जैसे लोग इस इस मूवमेंट के खेवैया थे और फिल्म और उसकी तकनीक के पीछे थियोरेटिकल लेवल पर हाथ धोकर पड़े हुये थे। ऑटर थ्योरी बाजिन के खोपड़ी की उपज थी, जिसे ट्रूफॉट ने सींच कर बड़ा किया। गुरुदत्त को इस फिल्म थ्योरी की कसौटी पर कसने से पहले, इस थ्योरी के विषय में कुछ जान लेना बेहतर होगा।

ऑटर थ्योरी के मुताबिक एक फिल्मकार एक लेखक है और फिल्म उसकी कलम। यानि की एक फिल्म के रूप और स्वरुप पूरी तरह से एक फिल्म बनाने वाले की सोच पर निर्भर करता है। इस थ्योरी को आगे बढ़ाने में अलेक्जेंडर अस्ट्रक ने कैमरा पेन जैसे तकनीकी शब्द का इस्तेमाल किया था। ट्राफाट ने अपने आलेख -फ्रांसीसी फिल्म में एक निश्चित चलन-में इस थ्योरी को मजबूती से स्थापित किया था। उसने लिखा था कि फिल्में अच्छी या बुरी नहीं होती है, बल्कि फिल्मकार अच्छे और बुरे होते हैं। फिल्मों में गुरुदत्त के बहुआयामी कार्यों को समेटने के लिए यह थ्योरी बहुत ही छोटी है, लेकिन इस थ्योरी के नजरिये से यदि हम गुरुदत्त को एक फिल्मकार के तौर पर देखते हैं, तो उनकी प्रत्येक फिल्म बड़ी मजबूती से उनके व्यक्तित्व को बयां करती है।

फ्रेच न्यू वेव के संचालकों की तरह ही गुरुदत्त ने भी सेकेंड वल्ड वार के प्रभाव को करीब से देखा था। अलमोडा का उदय शंकर इंडियन कल्चर सेंटर 1944 में गुरुदत्त के सामने ही सेकेंड वल्ड वार के कारण बंद हुआ था। गुरुदत्त यहां पर 1941 से स्कॉलरशीप पर एक छात्र के रूप में रहे थे। बाद में मुंबई में बेरोजगारी के दौरान उन्होंने आत्मकथात्मक फिल्म प्यासा लिखी। इस फिल्म का वास्तविक नाम कशमकश था। फिल्मों की समीक्षा के लिए कुख्यात ट्रूफॉट को 1958 में जब कान फिल्म फेस्टिवल में घुसने नहीं दिया गया था, तो उसने 1959 में 400 बोल्ट्स नामक फिल्म बनाया था और कान फिल्म फेस्टिवल में बेस्ट फिल्म डायरेक्टर का अवाड झटक ले गया था। 400 बोल्ट भी आत्मकथात्मक फिल्म थी, गुरुदत्त के प्यासा की तरह। 400 बोल्ट में एक अटपटे किशोर की कहानी बयां की गई थी, जो उस समय की परिस्थियों में फिट नहीं बैठ रहा था, जबकि प्सासा में शायर युवक की कहानी थी, जिसे दुनिया ने नकार दिया था। अपनी फिल्मों पर पारंपरिक सौंदय के साथ जमीनी सच्चाई का इस्तेमाल करते हुये गुरुदत्त फ्रेच वेव मूवमेंट से मीलों आगे थे।

गुरुदत्त ने 1951 में अपनी पहली फिल्म बाजी बनाई थी। यह देवानंद के नवकेतन की फिल्म थी। इस फिल्म में 40 के दशक की हॉलीवुड की फिल्म तकनीक और तेवर को अपनाया गया था। इस फिल्म में गुरुदत्त ने 100 एमएम लेंस के साथ क्लोज-अप शॉट्स का इस्तेमाल किया था। इसके अतिरिक्त पहली बार कंटेट के लेवल पर गानों का इस्तेमाल फिल्म की कहानी को आगे बढ़ाने के लिए किया था। भारतीय फिल्म में तकनीक और कंटेट के लेवल पर गुरुदत्त की ये दोनों प्रमुख देने है।

बाजी के बाद गुरदत्त ने जाल और बाज बनाया। इन दोनों फिल्मों को बॉक्स ऑफिस पर कुछ खास सफलता नहीं मिली थी। आरपार (1954), मि. और मिसेज 55, सीआईडी, सैलाब के बाद उन्होंने 1957 में प्यासा बनाया था। उस वक्त फ्रांस में ट्रूफॉट का 400 बोल्ट नहीं आया था। प्यासा के साथ रियलिज्म की राह पर कदम बढ़ाने के साथ ही गुरुदत्त तेजी से डिप्रेशन की ओर बढ़ रहे थे। 1950 में बनी कागज के फूल गुरुदत्त की इस मनोवृति को व्यक्त करता है। इस फिल्म में सफलता के शिखर तक पहुंचकर गरत में गिरने वाले डायरेक्टर की भूमिका गुरदत्त ने खुद निभाई थी। यदि ऑटर थ्योरी पर यकीन करे तो यह फिल्म पूरी तरह से गुरुदत्त की फिल्म थी, और इस फिल्म में गुरदत्त का एक फिल्मकार के रूप में सुपर अभिव्यक्ति है। 1964 में शराब और नींद की गोलियों का भारी डोज लेने के कारण गुरदत्त की मौत के बाद देवानंद ने कहा था, वह एक युवा व्यक्ति था, उसे डिप्रेसिव फिल्में नही बनानी चाहिय थी। फ्रेच वेव के अन्य फिल्मकारों की तरह गुरुदत्त सिफ फिल्म के लिए फिल्म नहीं बना रहे थे, बल्कि उनकी हर फिल्म शानदार उपन्यास या काव्य की तरह कुछ न कुछ कह रही थी। वह अपनी खास शैली में फिल्म बना रहे थे, और उस दौर में वल्ड फिल्म जगत में जड़ पकड़ रहे ऑटर थ्योरी को भी सत्यापित कर रहे थे।

साहब बीवी और गुलाम का निदेशन लेखक अबरार अल्वी ने किया था। इस फिल्म पर भी गुरदत्त के व्यक्तित्व के स्पष्ट प्रभाव दिखाई देते हैं। एक फिल्म के पूरा होते ही गुरदत्त रुकते नहीं थे, बल्कि दूसरे फिल्म की तैयारी में जुट जाते थे। एक बार उन्होंने कहा था, लाइफ में यार क्या है। दो ही तो चीज है, कामयाबी और फैलियर। इन दोनों के बीच कुछ भी नहीं है।

फ्रेंच वेव की रियलिस्टिक गूंज उनके इन शब्दों में सुनाई देती है, देखों ना, मुझे डायरेक्टर बनना था, बन गया, एक्टर बनना था बन गया, पिक्चर अच्छे बनाने थे, अच्छे बने। पैसा है सबकुछ है, पर कुछ भी नही रहा। फ्रेच वेव मूवमेंट के दौरान ऑटर थ्योरी को स्थापित करने के लिए बाजिन और उसकी मंडली ने जीन रिनॉयर,जीन विगो,जॉन फॉड, अल्फ्रेड हिचकॉक और निकोलस रे की फिल्मों को आधार बनाया था, उनकी नजर उस समय भारतीय फिल्म के इस रियलिस्टिक फिल्मकार पर नहीं पड़ी थी। हालांकि समय के साथ गुरदत्त की फिल्मों को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मजबूत पहचान मिली है। टाइम पत्रिका ने प्यासा को 100 सदाबहार फिल्मों की सूची में रखा है।

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button