
जमाना मुहब्बत का (कविता)
गूंज रहा है गलियों में, नया तराना मुहब्बत का,
जवान दिल जो धड़का बना एक फ़साना मुहब्बत का.
इस खुदगर्ज शहर की फितरत अब बदलने लगी है,
सब दे रहे हैं,एक दूसरे को, नजराना मुहब्बत का.
कहाँ दम घुटता था फिजा में, नफरत और जलन से ,
हर तरफ छलकता है अब ,पैमाना मुहब्बत का .
शिकायतें कम करते हैं, चेहरे रौशन दिखते हैं उनके,
बनाया है जिन्होंने, अपने दिल को, आशियाना मुहब्बत का.
दौर खत्म हो रहा है, जाम के लिए दर-दर भटकने का,
अब तो हर मदभरी आँखों में बसता है ,मयखाना मुहब्बत का.
आजकल शहर में गुनाह नहीं होते, दरकार ही किसे है,
जब हर कोई लुटाये जा रहा है, खजाना मुहब्बत का.
जो मर्ज़ हुआ करता था, यहाँ दवा बन चूका है,
जिसे देखो, वो बन गया है, दीवाना मुहब्बत का.
यूँ तो ये मुहिम, अकेले ही शुरु की थी महिवाल,
पर जल्द ही तुमने बना लिया है, सारा जमाना मुहब्बत का.
राहुल रंजन महिवाल,
भारतीय प्रशासनिक सेवा,
जिलाधिकारी,
अमरावती, महाराष्ट्र