आखिर बार- बार क्यों उठती है, राज्यपाल पर उंगली ?

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शिशिर कुमार

भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में, राज्यपाल का पद संवैधानिक व गरिमामयी मानी जाती है। लेकिन जब इसकी गरिमा पर सवाल खड़े होने लगे तो क्या इसे आप स्वच्छ लोकतंत्र की स्वच्छ व्यवस्था कहेंगे..शायद नहीं।।। क्योंकि एक स्वस्थ लोकतांत्रिक परंपरा के लिये एसे संवैधानिक पद पर बैठे नुमांइदों से स्वच्छ आचरण करने कि अपेक्षा होती है। जी हां।। बात हो रही है..कर्नाटक के राजनीतिक नाटक की। कर्नाटक में जो कुछ हुआ उससे सारा देश अवगत है। 224 सीट वाली कर्नाटक विधानसभा में बीजेपी के 117 विधायक हैं। मुख्यमंत्री वी.एस यद्दुरप्पा ने अपनी पार्टी के विधायक समेत 5 निर्दलीय विधायकों के समर्थन से सरकार बनायी। लेकिन शायद लगता है, कि यद्दुरप्पा ने सरकार गठन के वक्त सही मुहुर्त नहीं निकलवाया था। क्योंकि बार-बार उनकी सरकार पर खतरे के बादल मंडराते रहे हैं। कभी उनके सरकार के कद्दावर मंत्री करुणाकरण रेड्डी और जनार्दन रेड्डी (रेड्डी बंधु) सरकार के खिलाफ वगावती तेवर अख्तियार करते हैं। तो कभी इनके अन्य विधायक व मंत्री यद्दुरप्पा से व्यक्तिगत तौर से नाराज हो जाते हैं। उनकी पार्टी का राष्ट्रीय नेतृत्व बार बार उनके संकट मोचन के रुप में सामने आता है, और फिर मामले को रफा दफा किया जाता है। लेकिन इस बार तो ऐसा हुआ जिसे शायद यद्दुरप्पा को भी यकीन नहीं होगा। पार्टी के 11 विधायकों के साथ 5 निर्दलीय विधायक भी से वागी हो

गये, और फिर इन विधायकों ने सरकार से समर्थन वापसी की चिट्ठी राज्यपाल को सौंप दी। इस वावत राज्यपाल हंसराज भारद्वाज ने सरकार को विश्वासमत के मद्देनजर प्रस्ताव भेजा, जिसे सरकार ने स्वीकार कर लिया। इस बीच विधानसभा का सत्र बुलाया गया और विधानसभा अध्यक्ष के.वोप्पया ने दल बदल कानुन के तहत उन 16 वागी विधायकों को अयोग्य करार दे दिया। लेकिन जरा राज्यपाल कि भूमिका पर गौर करें। राज्यपाल ने विधानसभा अध्यक्ष को वाकायदा चिट्ठी लिखी, जिसमें कहा गया कि उन विधायकों को अयोग्य न ठहराया जाय। संवैधानिक तौर पर यह राज्यपाल कि पहली गलती थी। लेकिन विधानसभा अध्यक्ष ने राज्यपाल की नहीं सुनी और अपने अधिकारों का प्रयोग करते हुये..वागी विधायकों को सदन से बाहर रखने का आदेश दिया। इन सारे घटनाक्रम के बीच यद्दुरप्पा ने विधानसभा में बहुमत साबित कर लिया। लेकिन जरा राज्यपाल का राजनीतिक ड्रामा देखिये। राज्यपाल महोदय ने आनन फानन में कर्नाटक में राष्ट्रपति शासन लगाने का प्रस्ताव केन्द्र को भेज दिया। यह राज्यपाल की दूसरी गलती थी। हालांकि दिल्ली में अपना छीछा-लेदर होता देख चेहरा बचाने के लिये राज्यपाल ने यद्दुरप्पा सरकार के पास एक बार फिर बहुमत साबित करने का प्रस्ताव भेजा जिसे यद्दुरप्पा ने कुबुल कर लिया। 14 अक्तूबर 2010 को दुवारा फिर यद्दुरप्पा ने विधानसभा में बहुमत साबित कर लिया। लेकिन यहां पर राज्यपाल की भूमिका को लेकर कई सवाल खड़े होने लगे। देश भर के ऐसे हालातों पर अगर गौर किया जाय तो कर्नाटक कोई अकेला राज्य नहीं है, जहां के राज्यपाल की भूमिका को लेकर सवाल खड़े हुये हैं। बल्कि देश के ऐसे कई राज्य हैं जहां के राज्यपाल ने अपने संवैधानिक ताकतों का दूरुपयोग करके, राज्य के राजनातिक हालात को अस्थिर किया है।

वर्ष 1998 में उत्तरप्रदेश के राज्यपाल रोमेश भंडारी ने असंवैधानिक तरीके से तत्कालीन मुख्यमंत्री कल्याण सिंह (बीजेपी) के मुख्यमंत्री रहते ही जगदम्बिका पाल(कांग्रेस) को रातो-रात मुख्यमंत्री पद की शपथ दिला दी। लेकिन बाद में कल्याण सिंह ने विधानसभा में बहुमत हासिल कर लिया। ठीक उसी तरह वर्ष 2005 में बिहार के राज्यपाल बुटा सिंह ने गलत तरीके से राष्ट्रपति शासन की अनुशंसा कर दी। बाद में राज्य में चुनाव हुआ, और नीतीश कुमार(एनडीए) ने पुर्ण बहुमत के साथ सरकार बनायी।

वर्ष 2007 में झारखंड के राज्यपाल सैयद शिब्ते रजी ने भी अपने पद का दूरुपयोग किया। बजह बना तत्कालीन मुख्यमंत्री शिबु सोरेन का तमाड़ विधानसभा से चुनाव हार जाना। महामहीम राज्यपाल ने बिना किसी वैकल्पिक व्यवस्था पर विचार किये, राज्य में राष्ट्रपति शासन कि अनुशंसा कर दी। इसी तरह वर्ष 2008 में गोवा के राज्यपाल एस.सी.जमीर ने मनोहर पारिकर(बीजेपी) की सरकार को बर्खास्त कर दिया और प्रताप सिह राणे(कांग्रेस) को शपथ दिला दी। लिहाजा, राज्य में राजनीतिक अस्थिरता उत्पन्न हो गयी।

अब, सवाल यह उठता है, कि राज्यपाल जैसे संवैधानिक पद पर आसीन् रहने के बावजूद, इतना पूर्वाग्रह क्यों। क्या राज्यपाल अपनी वैचारिक पार्टी के प्रति वफादारी दिखाते हैं। या फिर ऐसे घटनाक्रम में मौके की नजाकत को देखते हुये, मामले को और उलझाते हैं , ताकि उस सरकार के प्रति वफादार बने रहें जिसने उसे नियुक्त किया है….। लेकिन अब सवाल यह उठता है कि जिस तरह से राज्यपाल केन्द्र सरकार या अपनी पार्टी के एजेंट के रुप में काम करते हैं , वो इस देश के स्वस्थ लोकतंत्र के लिये कितना जायज है।

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सदियों से इंसान बेहतरी की तलाश में आगे बढ़ता जा रहा है, तमाम तंत्रों का निर्माण इस बेहतरी के लिए किया गया है। लेकिन कभी-कभी इंसान के हाथों में केंद्रित तंत्र या तो साध्य बन जाता है या व्यक्तिगत मनोइच्छा की पूर्ति का साधन। आकाशीय लोक और इसके इर्द गिर्द बुनी गई अवधाराणाओं का क्रमश: विकास का उदेश्य इंसान के कारवां को आगे बढ़ाना है। हम ज्ञान और विज्ञान की सभी शाखाओं का इस्तेमाल करते हुये उन कांटों को देखने और चुनने का प्रयास करने जा रहे हैं, जो किसी न किसी रूप में इंसानियत के पग में चुभती रही है...यकीनन कुछ कांटे तो हम निकाल ही लेंगे।

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