इंसानी जिंदगी को ठोकर मार रही है देश की राजनीति

भारत में अंग्रेज एक व्यापारी बन कर घुसे। यहां के शासकों के आगे सर झुका झुका कर व्यापार करने का परमिट लिया। राजे रजवाड़ों और बड़े- बड़े सलतनतों की नीतियों के खोखलेपन को तुरंत समझा और देखते ही देखते अंग्रेजी हुकूमत का परचम लहराने लगा। इतिहास में यहां तक की कहानी को समझना बहुत ही आसान है। इस आसान समझ के साथ आजादी के बाद देश का जनतंत्र भी अंग्रेजों की इन नीतियों का पालन करता  हुआ नेताओं की हुकूमत का परचम लहरा रहा है।

देश आज एक चालाक नेतागीरी के दौर से गुजर रहा है। इन नेताओं की नीतियों में अंग्रेजी हुकूमत आज भी जिंदा है। आज सभी हुक्मरानों के जबान पर चमटक की तरह  एक ही वाक्य चढ़ा हुआ है- जनता मेरे साथ है, जनता फैसला करेगी। आज एक अनपढ़ नेता भी इस शब्द  जाल को बुनना जानता है। जनता को फैसला सुनाने के लायक तो इन लोगों ने छोड़ा ही नहीं है, जनता क्या फैसला करेगी। आज देश का हर नेता जनता को जात के चश्मे से देखता है। मायावती  को अंबेदकर दिखते हैं तो बीजेपी भक्तों को गोलवरकर। लालू और नीतीश की कर्पूरी भक्ति है। कांग्रेस तो जवाहरमय है ही। वाह रे देश के नेता। जिसकी रोटी जिस तवे पर सिक रही है, वह उसी को भजने में लगा हुआ है।

लालू और मायावती के मुंह से कभी भगत सिंह का नाम सुनने को नहीं मिलेगा। सोनिया गांधी और उनका परिवार कभी भूल से भी सुभाष चंद बोस का नाम नहीं लेंगे। कांग्रेस जिस फकीर की समाधि पर शासन का तंबू गाड़ कर बैठी है उस गांधी बाबा से सुभाषचंद बोस पंगा ले बैठे। उन्होंने कहा था कि अब गांधी उस टूटे हुए फर्निचर की तरह हैं जिसे बाहर  फेंक देना चाहिए। जवाहरलाल नेहरु से भी उनके वैचारिक मतभेद थे। जवाहर लाल नेहरु को मुसोलिनी ने मिलने का निमंत्रन  दिया था लेकिन उन्होंने अंतर्राष्ट्रीय समुदाय में अपनी छवि को ध्यान में रखते हुए इस निमंत्रन को अस्वीकार दिया था। वहीं सुभाष दूसरे विश्वयुद्ध की गड़गड़ाहट में भी हिटलर से जा मिले। क्षेत्रिए नेताओं का तो पूरा जुगाड़ ही व्यवहारिक है, उन्हे तो ऐतिहासिक पचड़ों में भी पड़ने की ज्यादा जरुरत नहीं है। सिर्फ एन टी रामाराव,  और रामाचंद्र्न जैसे व्यक्तित्व को को याद रखने की जरुरत है जो चंद्र्बाबू और जयललिता को सत्ता का एक मजबूत खिलाड़ी बनाने के लिए काफी है।

देश की एक बहुत बड़ी आबादी दो-दो पैसे जोड़ कर अपना जीवन चलानें में लगी हुई है। निजीकरण की चल रही इस आंधी में सामुदायिक जीवन की शक्ति तबाह हो रही है। पैसे का नंगा नाच हो रहा है। गरीब तबकों को सरकारी व्यवस्था प्रक्रिया में कुत्ते की तरह दुतकारा जा रहा है। बाजारवादी समाज के निर्माण की धारा को बहाने में सभी नेता लगे हुए हैं। विकास का एक खोखला रुप दिखाकर आम जनता के एक बहुत बड़े वर्ग को गुमराह किया जा रहा है। बंगाल का साम्यवादी खेमा तोते की तरह कार्ल माक्स की परिभाषाऔं को दुहराता रहा और अपनी सत्ता की गाड़ी को मस्ती से चलाता रहा है। इंसान की जिंदगी को आज  वैचारिक चोला पहन कर सत्ता चलाने वाला हर खेमा ठोकर मार रहा है।

नेताऔं की पूरी जमात में भारतीय संविधान ने कूट-कूट कर शक्ति भर दी है।  शायद संविधान निर्माताओं ने सोचा होगा कि इस शक्ति को जनता नियंत्रित करेगी, लेकिन खेल उलटा हो गया और यह शक्ति ही जनत्ता को नियंत्रित कर रही है। अठारह साल तक लालू ने बिहार की जनता को सामाजिक न्याय का झांसा दिया। भाजपा राम मंदिर और स्वदेशी का नारा लगाते लगाते  सत्ता का मलाई खाने लगी और आर्थिक नीतियों पर उसके विचार पूरी तरह से कांग्रेस के विचार से मेल खाने लगे। आज भाजपा मेहनत की रोटी भी नहीं खाना चाहती । इसे तो बस बिल्ली के भाग से शिखर टूटने का इंतजार है। देश की संस्कृति का पाठ करते करते आडवानी जिन्ना राग अलापने लगते हैं। आज पभावशाली बन बैठे नेता को किसी भी तरह से जनता को घुमाने का अधिकार मिला हुआ है।

देश की राजनीति चतुर सुजानों के हाथों में नाच रही है। अपने को राजनीतिक दांव-पेच का एक बड़ा खिलाड़ी दिखा कर नेताओं का जमात जनता को गुमराह कर रहा है और सच्ची भावना से ओत-प्रोत आदमी को हतोत्साहित किया जा रहा है। देश में सबकुछ के लिए इतनी व्यवस्था हो रही है लेकिन नेता बनने और बनाने की कोई ठोस प्रक्रिया स्थापित नहीं की जा रही है। और तो और न्यायधीशगण राजनीति के प्रति अपना भडास छात्र संघ चुनाव पर निकालते हैं। छात्र राजनीति को स्लो पॉइजन दे दिया गया है। देश के अधिकांश विश्विद्यालयों में तो छात्र संघ चुनाव है ही नहीं। जबकि प्राचीन यूनान के उस जमाने में, महान चिंतक और दार्शनिक प्लेटो ने एक मजबूत और नि स्वार्थ राजनीतिक वर्ग तैयार करने की पूरी प्रक्रिया और व्यवस्था की चर्चा की है। यही कारण है कि आज राजनीति में परिवारवाद की तूती बोल रही है। ऐसा लगता है जैसे देश को आजादी इन राजनीतिक घरानों को स्थापित करने के लिए मिली थी। सोची समझी रणनीति के तहत राजनीति में एक खालीपन दिखाया जा रहा है जिसे सचिन पायलट और छोटे सिंधिया  भर रहे हैं और सब के मुखिया बने हुए हैं युवराज राहुल गांधी। देश की राजनीति पूरे जोर – शोर से पारिवारिक जुगाड़ के रास्ते पर बढ़ने के लिए तैयार है। इस बहती गंगा में लालू और रामविलास भी अपने बेटे की नईया पार लगा देना चाहते थे जिनका राजनीतिक जन्म ही कांग्रेस- परिवार के विरोध में हुआ था।

बिहार भाजपा के अध्यक्क्ष सीपी ठाकुर पूत्र मोह में पद त्याग देने को भी तैयार रहते हैं। राजनाथ सिंह उतर प्रदेश में बेटावाद करने से पीछे नहीं हैं। आखिर बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को सांसद जगदीश शर्मा के बेटे राहुल शर्मा की ताजपोशी करनी ही पड़ी, जबकि कुछ समय तक नीतीश कुमार पर परिवारवाद के विरोध का धुन सवार हुआ था लेकिन सुरक्षित स्थान उन्हें भ्रष्टाचार का विरोध ही लगा और इसलिए भ्रष्टाचारियों को जेल पहुचानें की बात करने लगे। परिवारवाद के लंबे चक्कर और पचड़े में कोई नहीं पड़ना चाहता। शायद हर नेता को कल अपना बेटा या बेटी भी खड़ा करना पड़े इसलिए पंगा क्यों लें।

वास्तव में आज भारतीय राजनीति की गड़गड़ाहट में जनता की आवाज दब रही है। उपर से इस बाजारवाद की चकाचौंध में जनता की आंखें मचमचा रही हैं। इस पूरी स्थिति का फायदा उठा कर देश का शासक वर्ग अपने महल से लेकर कब्र तक को अजर-अमर कर देना चाहता है। समय के उतार-चढ़ाव को झेल कर अपनी राजनीतिक दुनिया बनाने वाला नेता आसानी से इसे छोड़ना नहीं चाहता। एक सीमित विकल्प  में ही जनता को भी भटकना है। देश का जनतंत्र और जनता किस रास्ते पर  है……….

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