जस्टिस काटजू का वैचारिक संघर्ष
सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश मार्कण्डेय काटजू प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया के चेयरमैन बनाये जाने के बाद से विवादों में घिरे हैं । तब उन्होंने बड़े ही बेबाक अंदाज में कहा था कि मीडिया के लोगों को साहित्य , राजनीति व आर्थिक सिद्धान्तों तथा दर्शन शास्त्र की कोई जानकारी नहीं होती और वे अपने सतही जानकारी से ही संचालित होते रहते हैं । उनके इस बयान पर जहाँ एक ओर एडिटर गिल्ड औऱ मीडिया मालिकों ने अपना जोरदार विरोध दर्ज किया वहीं मीडिया का ही एक बड़ा तबका उनके समर्थन में भी खड़ा हो गया । अखबारों के संपादकीय पन्नों पर काटजू के पक्ष और विपक्ष में लेख लिखे जाने लगे तथा आम मीडियाकर्मियों के दर्द उभर कर सामने आये । अपने विरोध में चल रहे सारे दबाव को झेलते हुये न्यायाधीश काटजू आज भी अपने पहले वक्तव्य पर मजबूती से कायम हैं । साथ ही अपनी बातों को तार्किक रूप से विश्लेषित भी कर रहे हैं ।
सुप्रीम कोर्ट में न्यायाधीश के रूप में काटजू की एक जनवादी पहचान रही है । अंग्रेजी माहौल से घिरे सुप्रीम कोर्ट में जज की कुर्सी पर बैठकर भी काटजू धड़ल्ले से हिन्दी बोलते । लंबे बहस के दरम्यान उसमे शामिल वकीलों को काटजू का बार बार सलाह होता कि गांधी जी कहते थे कि खुद को संक्षेप में रखो । उनके इस सलाह को न मानने वाले वकील जो अपने बोलने के अधिकार पर जोर देते , तब काटजू चुपचाप अपनी कुर्सी पर सोने का दिखावा करते और दलील खत्म हो जाने पर कहते , मैने सुन लिया और केस खारिज किया जाता है ।
मार्कण्डेय काटजू युवा वकीलों की आवाज बने। वैसे जूनियर वकील जो अपने सीनियर के न होने पर अगली तारीख मांगते , तब काटजू का कहना होता कि आप बहस करो , अगर केस को खारिज करना हुआ, तो मैं अगली तारीख दे दुंगा और यदि इसे स्वीकृति देनी है तो इसे आपके बहस पर भी पारित कर दुंगा । इस तरीके से जूनियर वकीलों के अंदर के बहस करने के डर को हटाने की कोशिश करते ।
एक न्यायाधीश के रूप में भी काटजू अपनी बेबाक टिपण्णियों के लिये हमेशा जाने जाते रहे । पर कानूनी दायरों में सिमटे होने के कारण उनकी वैचारिक तस्वीर आम जन तक नहीं पहुँच पायी । आज जब उन्हें प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया के चेयरमैन के पद पर बैठाया गया तो उनकी जनता से जुड़े अंदाज स्वत: ही देश में गुंज रहा है । इस पद पर बैठकर वे आज आम पत्रकारों के दर्द को उकेर रहे हैं । साथ ही मीडिया में छुपी अऱाजकता को सामने लाने का प्रयास कर रहे हैं । ऐसे किसी प्रयास पर मीडिया हमेशा यही कहती रही है कि हम अपने उपर सेल्फ कंट्रोल रखते हैं तथा अपना दायरा स्वयं निर्धारित करते हैं इस पर काटजू ने स्पष्ट कहा कि फिर तो पुलिस , वकील , जज सभी अपना दायरा स्वयं निर्धारित कर ले । साथ ही सभी सेल्फ कंट्रोल की ही बात करने लगे । इस तरीके से मीडिया मालिकों द्वारा घोषित स्व नियंत्रण के इस सिद्धांत को सिरे से नकार दिया , जो आज एक विवाद औऱ विचार का मुद्दा बन गया है ।
उनके हालिया बयान में किसानों का दर्द उभर कर आया और आत्महत्या कर रहे किसानों की खबर की जगह देवानंद की मृत्यु को बड़ी खबर बनाये जाने को मीडिया कर्मियों में खबरों की प्राथमिकता की समझ का आभाव बताया । देश में गरीबी , भुखमरी , बेरोजगारी और इस तरह के दूसरे मुद्दे मीडिया जगत को नहीं दिखने पर जस्टिस काटजू चिंता जता रहें हैं ।
बहरहाल मामला मीडिया पर नियंत्रण और जिम्मेवारी पर भले ही अटक गया हो पर मार्कण्डेय काटजू की जन सरोकारों की आवाज मीडिया जगत में बदलाव के लिये निश्चित रूप से दस्तक दे रही है । अब देखना यह है कि जस्टिस काटजू का वैचारिक स्वरुप संघर्ष के इस मैदान में कौन सा रुप लेता हैं ।
Gooddddddddddddddddddddddddd
अच्छा। लेकिन देव आनंद का जाना भी इतनी छोटी खबर नहीं।