नक्सलवाद रूपी नासूर कहीं पृथक दण्डकारण्य का खंजर न बन जाए ?
राजेंद्र तिवारी (अध्यक्ष) आंचलिक समाचार पत्र संग्रहालय एवं शोध संस्थान,
बस्तर
केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने विगत सप्ताह तीन दिवसीय छत्तीसगढ़ प्रवास के दरमियान यह दावा किया है कि वामपंथी उग्रवाद की समस्या जिसे नक्सली समस्या के नाम से भी जाना जाता है को 17 महीने बाद मार्च 2026 में समाप्त कर दिया जाएगा। उन्होंने नक्सलियों के लिये नई आत्मसमर्पण पॉलिसी बनाने का तो जिक्र किया है किंतु उनसे बातचीत के प्रस्ताव पर स्पष्ट रूप से कुछ भी नहीं कहा है। वैसे जंगल में सेना को उतारने से भी उन्होंने इनकार किया है। लेकिन गृह मंत्री के इस ताजातरीन दावे पर आम जनता का विश्वास करना थोड़ा कठिन है। कारण साफ है। अविभाजित मध्य प्रदेश के जमाने से समय-समय पर राज्य सरकार इस समस्या के निदान ढूंढ लेने का दावा करती रही हैं। लेकिन नये राज्य के अस्तित्व में आ जाने के 24 वर्ष बाद भी वही पुराने दावे दुहराये जा रहे हैं। एक सरकारी आंकड़े के अनुसार पिछले 40 वर्षों में नक्सली हिंसा के कारण 17000 लोग अपनी जान गवां चुके हैं। इस समस्या से देश के 11 राज्यों के 90 जिले प्रभावित है जिनमें छत्तीसगढ़ के 15 जिले भी शामिल है।
1967 में पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी से प्रारंभ हुआ हिंसक आन्दोलन आज भी छत्तीसगढ़ के लिए सबसे बड़ी समस्या साबित हो रही है। नक्सलियों के गोरिल्ला छापामार युद्ध के आगे अर्धसैनिक बल बेजार साबित हो रहे हैं। बरसों से व्याप्त नक्सली समस्या के कारण बस्तर को नक्सलगढ़ के नाम से भी जाना जाने लगा है। दरअसल 90000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल में फैली बस्तर की सीमाएं महाराष्ट्र, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, उड़ीसा, व मध्य प्रदेश से जुड़ी हुई हैं। घने जंगल और पहाड़ होने के कारण नक्सली छापामार दस्तों के लिए यह इलाका सबसे सुरक्षित स्थल माना जाता है। समय-समय पर सरकार ने इस क्षेत्र से नक्सलवादियों को खदेड़ भागने के कई उपाय किए। लेकिन कुछ खास सफलता नहीं मिली। 2009 में ऑपरेशन “ग्रीन हंट” एवं 2017 में “प्रहार” नामक एक विशेष अभियान भी चलाया गया था। उक्त दोनों सशस्त्र ऑपरेशनों के अलावा “जनजागरण” और “सलवा जुडूम” नामक जन-आंदोलन भी सरकार के सहयोग से चलाया गया। “सालवा जुडूम” जिसे हिंदी में शांति यात्रा के नाम से जाना जाता है के दौरान हुई भारी हिंसा के कारण सर्वोच्च न्यायालय तक को दखल देनी पडी थी। लेकिन गृहमंत्री श्री शाह कहते हैं कि 8 महीने पहले जब से छत्तीसगढ़ में भाजपा की सरकार बनी है तब से नक्सली आन्दोलन बैकफुट पर आ गया है। नक्सली हिंसा में 53% की कमी आई है। सुरक्षा बलों पर 73% और आम नागरिकों पर हमलों में 69% कमी आ गई है। यहां यह उल्लेख करना लाजमी होगा की छत्तीसगढ़ में सुरक्षा बलों कि 40 से ज्यादा बटालियन तैनात हैं जिन पर 2017 तक राज्य सरकार को 6400 करोड़ रुपए खर्च करने पडे़ थे।
केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह की छवि देश में एक प्रमुख रणनीतिकार की बनी हुई है। लेकिन जिन समस्याओं को आधार बनाकर नक्सली पिछले 4 दशकों से अपना जानआधार मजबूत किये हुए , उनको एड्रेस किये बगैर क्या केवल बंदूक के जोर पर नक्सली समस्या का हल ढूंढा जा सकता है?संभवत नहीं! नक्सली समस्या के आड़ में यदि सरकार ने इंद्रावती नदी जैसी बड़ी समस्या के निदान में रुचि नहीं लिया तो इसके दूरगामी परिणाम घातक भी निकाल सकते हैं! बैलाडीला क्षेत्र में लौह अयस्कों की तस्करी अब आम बात है। शबरी एवं इंद्रावती नदी रेत तस्करों का स्वर्ग बना हुआ है। बेशकिमती जंगल साफ होते जा रहे हैं। भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने में सरकारी तंत्र असहाय है। 230 करोड़ वर्ष पुराने बैलाडीला के पहाड़ो की लगातार खुदाई के कारण क्षेत्रीय पर्यावरण असंतुलित हो रहा हैं। आवागमन के सहज- सरल साधन को आम जनता मोहताज है। स्कूल- कॉलेज खुले किंतु वहां शिक्षक नहीं हैं। कामोबेस अस्पतालों की भी यही स्थिति है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जगदलपुर- राजहरा रेल मार्ग के निर्माण की घोषणा कर चुके हैं किंतु अभी तक यह रेल मार्ग आधार में लटका हुआ है। नदियों के बाढ़ से निपटने के लिए ग्रामीण छोटे-छोटे लकड़ी के पुल बना अपना काम चला रहे हैं। 22000 करोड़ की लागत से नगरनार स्टील प्लांट की स्थापना की गई। स्थानीय बेरोजगारों को उसमें रोजगार मिला नहीं तुर्रा अब उसे निजी हाथों में सौंपने की तैयारी चल रही है। लिखने का गर्ज यह की यदि सरकार छोटी- बड़ी समस्याओं का समाधान किये बगैर केवल बंदूक के जोर पर नक्सली समस्या के निदान का प्रयास करती है तो छत्तीसगढ़ में पृथक दंडकारण्य राज्य की मांग को नक्सली हवा दे कर सरकारी मंसूबे की जहां किरकिरी कर सकते हैं वहीं अपने हिंसक मंसूबो को नये सिरे से कामयाब भी बना सकते हैं।इसलिए सरकार को यह जानने की कोशिश करनी चाहिए की दंडकारण्य क्षेत्र में सन् 1966 में तत्कालीन महाराजा प्रवीर चंद्रभंज देव के निधन के बाद नेतृत्व का खोखलापन जो स्थापित हुआ वह आज तक क्यों नहीं भरा जा सका है ? सच पूछा जाए तो यह स्थिति वर्तमान नेतृत्वकर्ताओं की अक्षमता का द्योतक भी है। नक्सली संगठन इसी कमजोर सामाजिक- राजनीतिक नेतृत्व का भरपूर फायदा उठा रहे । सरकार को चाहिए कि बंदूक से बंदूक को जवाब देने की बजाय राजनीतिक तरीके से इस समस्या का समाधान ढूंढे। लोकतंत्र की खूबसूरती भी इसी में छुपी हुई है।