सम्पादकीय पड़ताल

नीतीश के मायने !


अनिता गौतम
सारी दुनिया एक तरफ बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार एक तरफ। फिलहाल की स्थिति और उनकी बिहार के लिए समर्पित कार्यशैली से तो यही साबित हो रहा है। न्याय के साथ विकास का वादा कितना दावा में बदलता है यह भविष्य वाणी होगी। पर अपने ईमानदार प्रयास के लिए अपने आपको सही साबित करने की दौड़ में नीतीश कुमार आज सबसे आगे जरूर हैं।
कहते हैं आत्मविश्वास एक शासक की सबसे बड़ी ताकत होती है। आत्मबल का टूटना यानि शासन सत्ता पर पकड़ कमजोर। पर नीतीश कुमार के संदर्भ में यही कहा जा सकता है कि विपरीत परिस्थितियों में भी उनका आत्मविश्वास कमजोर नहीं पड़ता। बात चाहे विशेष राज्य का दर्जा दिलवाने की हो अथवा बिहार विधान सभा में सत्ता प्रतिपक्ष के सवालों का जवाब देना हो, या फिर तमाम आलोचनाओं के बाद पाकिस्तान यात्रा। अपने आपको सही साबित करने के लिए वे किसी भी स्तर पर तैयार रहते । और सही मायने में पूरे दम खम से प्रस्तुत भी करते।
विशेष राज्य के मुद्दे पर तमाम विरोधों के बाद भी वे काफी तार्किक ढंग से अपनी बात प्रस्तुत करते हैं। जरूरी मापदंड न होने के बावजूद वे बड़े सलीके से कहते हैं कि केन्द्रीय औसत से बिहार काफी पीछे है एवं जरूरी राष्ट्रीय औसत तक पहुंचने का अधिकार प्रत्येक राज्य को है, फिर इसके लिए जो राज्य स्तर पर प्रगति है उसमें काफी वक्त लग जायेगा और इतना धैर्य अब प्रदेश की जनता के पास नहीं है। इसलिए केन्द्र सरकार मापदंड में परिवर्तन कर बिहार को विशेष राज्य का दर्जा दे सकती है। अत्यंत शालीनता से अपनी बात रखने के आदी नीतीश कुमार कभी-कभी इस मुद्दे पर चौतरफा आलोचनाओं को झेलते हुए अपनी बौखलाहट छुपा नहीं पाते।
2005 में पहली बार बिहार की सत्ता संभालने वाले नीतीश कुमार के शुरुआत से अब तक राज्य स्तर पर अपनी प्राथमिकता यहां गुड गवर्नेस (बेहतर शासन) को दी थी। तब से अब तक कानून का राज स्थापित करने की उनकी पहल का मनोवैज्ञानिक प्रभाव स्पष्ट देखा जा सकता है। नीतीश कुमार का हर जगह बार-बार और लगातार यह दोहराना कि उनके शासन में लोगों के मन से अपराधियों का भय निकल गया है। अपराधियों को यह अहसास होने लगा कि चाहे वे कितनी बड़ी हस्ती वाले हों, कानून तोड़ा तो कानून की चपेट में आ जायेंगे फिर उन्हें पकड़े जाने और सजा पाने का जबर्दस्त खौफ है।
यह बात बहुत हद तक राज्य में सही भी साबित हो रही है। क्योंकि इस राज्य ने वह दौर भी देखा है जब अपराधियों के भय से लोग शाम के बाद घरों से निकलना नहीं चाहते थे। बहुत जरूरी होने पर निकलना भी पड़ा तो घर वाले तब तक निश्चिंत नहीं हो पाते जब तक उनके सगे संबंधी वापस न आ जाएं। आये दिन नरसंहारों का गवाह बनने वाला राज्य कम-से-कम असहाय और निरपराध की जघन्य हत्या से सुर्खियों में नहीं आ रहा बल्कि चौतरफा विकास की ही बातें हो रहीं हैं, चाहे वह सकारात्मक हो अथवा नकारात्मक।
नौकशाही और भ्रष्टाचार की समस्या से निपटने के लिये राज्य में र्और ज्यादा गंभीर प्रयास की आवश्यता है, अन्यथा कभी कभी सारी अच्छाई मात्र एक गलती के कारण बुराई में तब्दील हो जाती है। हालांकि सरकार इन दोनों समस्याओं से भिग्य हैं और प्रयासरत भी है, लेकिन उसकी गति काफी धीमी है। कभी कभी इस तरह के मामलों की अनदेखी आम जन के बीच असंतोष पैदा करती है। यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि कुछ एक मामलों में नीतीश कुमार का फैसला कभी कभी इतना बचकाना होता कि लोगों के बीच यह भ्रम फैल जाता कि माननीय मुख्यमंत्री क्या वाकई सलाहकारों से घिरे हैं या चाटुकारों से? वैसे देखा जाये तो कुछ रिश्वतखोरों और आय से अधिक संपत्ति के अपराधियों को सजा और जेल हुई है। कुछ मामले में तो दो कदम आगे आकर नीतीश कुमार के आला अधिकारियों ने उनकी अचल संपत्ति में स्कूल खोलने का भी इतिहास रचा है। अखबार और मीडिया के मार्फत जब ये बातें आम जनता तक पहुंचती हैं तो सभी इसकी जमकर सराहना करते हैं, पर लोगों को यह बात हजम करनी मुश्किल होती कि आखिर इतने अपराधों में लिप्त होने के बाद भी सरकारी नुमाइंदों पर तो कार्रवाई होती पर राजनेताओं के गिरेबां तक इस सरकार के हाथ क्यों नहीं पहुंच पाते? हालांकि विपक्ष इसे सिरे से खारिज करता रहता और सिर्फ और सिर्फ राजनीतिक चोंचलेबाजी करार देता।
राज्य स्तर पर न्याय के साथ विकास का दावा कितना सही है इस पर आम आदमी की राय थोड़ी अलग है। आज भी तमाम आलोचनाओं के बाद लोग यह कतई नहीं चाहते कि प्रदेश में नीतीश का शासन नहीं रहे। अलबत्ता वे इसे सुशासन नहीं मानते। बिहार में सड़कों के बाबत लोगों को प्रसन्न करने में नीतीश कुमार जरूर सफल कहे जा सकते हैं। वैसे कभी राजद सुप्रीमों ने बिहार की सड़कों को हेमा मालिनी के गाल की तरह बनाने की बात कह कर आम जन में एक नई क्रांति की पहुंच की बात कह दी थी। पर दुर्भाग्य से सड़कें तो नहीं ही बनी अलबत्ता उन्हें हेमा मालिनी से माफी जरूर मांगनी पड़ी। बिहार में सड़के बनी हैं, इससे इनकार नहीं किया जा सकता। राज नेताओं की बात अगर छोड़ भी दें तो राजधानी से दूरस्थ क्षेत्रों में भी अधिकतम पांच या छह घंटे में सड़क मार्ग से पहुंचना लोगों को अच्छा लग रहा है।
नक्सल प्रभावित इलाकों में सड़क और पुल-पुलिया का निर्माण बेरोक-टोक हो रहा है इसे स्थानीय नागरिक भी स्वीकार करते हैं। क्योंकि नीतीश कुमार की अधिकार यात्रा के बराबरी में खड़े होने के लिए उनके धुर विरोधी राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद एवं राम विलास पासवान भी आये दिन सड़क मार्ग से परिवर्तन यात्रा और यात्रा करने में पीछे नहीं हट रहे। और उनकी इस यात्रा पर नीतीश कुमार को अक्सर चुटकी काटते देखा गया है कि ‘यदि सड़क नहीं बनाते तो इनकी यात्रा कैसे होती?’
इन्फ्रा स्ट्रक्टचर (आधार भूत संरचना) की भी जोरदार वकालत नीतीश कुमार द्वारा समय समय पर किया जाता है। बिजली, पानी और सड़क को प्राथमिकताओं में शामिल किया गया है, यह बताना भी नहीं भूलते। भले बिहार में आने वाले उद्यमियों को बिजली देने के नाम पर राज्य सरकार अपने हाथ खड़े कर देती है।
फिर भी अगर देखा जाए तो विपरीत परिस्थितियों में भी नीतीश कुमार होना आसान नहीं है। वह भी तब जब उन्हीं के संग अपनी राजनीतिक यात्रा शुरू करने वाले आज उनके सबसे बड़े विरोधी बने हुए हो।
ज्ञातव्य हो कि जयप्रकाश आंदोलन के गर्भ से जन्म लेने वाले ये तीन राजनेता नीतीश, लालू और रामविलास आज जीते जी इतिहास बन गए हैं। सन 1977 में कांग्रेस की करारी हार ने तीनों को संसद पहुंचा दिया। कालांतर में लालू प्रसाद बिहार के मुख्यमंत्री बन बहुत आगे निकल गए और तकरीबन पन्द्रह सालों तक बिहार की सत्ता पर स-पत्नी कायम रहे। इसके अलावा भी बहुत सारी समानताएं इनके साथ रही हैं। मसलन तीनों का बारी बारी रेल मंत्री रहने का अनुभव या फिर केन्द्रीय मंत्री का पद। पर दुर्भाग्य से रामविलास पासवान के हिस्से में बिहार की सत्ता की चाबी तो आई पर स्पष्ट सत्ता उन्हें कभी नसीब नहीं हुई। लालू के पतन ने नीतीश कुमार के समीकरण के खेल में सत्ता तो सौंप दी, पर पिछले सात साल से बिहार की सत्ता पर कायम नीतीश कुमार भले अपने पूरे दम खम से काबिज हैं, लेकिन समय समय पर उनकी मुश्किलें बढ़ती रहती हैं। खास कर उनके सहयोगी भाजपा और गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को लेकर। इस तनातनी को विपक्ष भी महसूस करता रहता है, पर उसे यह सब ढकोसला लगता है। जिस तरह नीतीश कुमार मोदी और भाजपा गठबंधन को लेकर अपना रुख स्प्ष्ट नहीं कर पाते वैसे ही भाजपा भी बिहार में सत्ता का मोह नहीं त्याग पाती। आम आदमी इसे नीतीश कुमार का ‘गुड़ खाये और गुलगुले से परहेज’ ही मानते हैं।
बहरहाल गठबंधन का दोनों पक्ष बराबर लाभ उठा रहे हैं, पर इन सबके बीच पिस रही जनता के साथ ‘डेवल्पमेंट विथ जस्टिस’ की सच्चाई कितना तार्किक होती है यह तो आने वाला समय यानि सुशासन का अगला चुनाव ही तय करेगा। क्योंकि नीतीश –मोदी की लड़ाई से बिहार का भविष्य कसौटी पर ही रहता है। सरकार रहेगी कि जायेगी इस पर बहस कभी मद्धिम स्वर में तो कभी तेज स्वर में जारी रहती है। अटकलों के बीच लटके बिहार के भविष्य और नीतीश कुमार के ताकत की कहानी बनती रहेगी-तब तक जब तक बिहार में सुशासन जारी है।

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4 Comments

  1. बेबाक समीक्षा और बेहतरीन प्रस्तुति………

  2. इस रिपोर्ट/लेख मे आपकी राय पिछले आपके कई लेखों/रिपोर्टों के विपरीत है। फिर भी हो सकता है कि,नीतीश कुमार के रूप मे आपको आपके प्रदेश का व्यक्ति प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठा हुआ मिल जाये।

  3. “खास कर उनके सहयोगी भाजपा और गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को लेकर। इस तनातनी को विपक्ष भी महसूस करता रहता है, पर उसे यह सब ढकोसला लगता है। जिस तरह नीतीश कुमार मोदी और भाजपा गठबंधन को लेकर अपना रुख स्प्ष्ट नहीं कर पाते वैसे ही भाजपा भी बिहार में सत्ता का मोह नहीं त्याग पाती। आम आदमी इसे नीतीश कुमार का ‘गुड़ खाये और गुलगुले से परहेज’ ही मानते हैं।”

    (यह पैराग्राफ काफी महत्वपूर्ण है , यह भी चिंता होता है कि बिहार पहले जिस स्थिति से गुजरा है कही ओहि न पहुच जाय . बिहार को बिकसित राज्य बनाना है तो बिकसित राज्य के साथ मिलकर काम करना चाहिए . न कि दुरी बनाकर रहे . )

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