पटना को मैंने करीब से देखा है (पार्ट-4)
पुनाईचक के रग-रग में आक्रमकता भरी हुई थी
किसी शहर की सांस्कृतिक समृद्धि का अहसास उस शहर के सिनेमाघरों और नाट्य थियेटरों को देख किया जा सकता है। जीते जागते लोगों की दुनिया को यह लीड करता है, कई तरीकों से कई स्तर पर। सिनेमा लोगों के जीवन, उनके स्टाईल, उनके दिन प्रतिदिन के काम करने के अंदाज, यहां तक कि उनके बातचीत के ढंग में शामिल हो जाता है। यह अचेतन को प्रभावित करता है और लोग अनजाने में सिनेमा में चलते फिरते लोगों की तरह व्यवहार करने लगते हैं या करने के कोशिश करते हैं, खासकर कच्ची उम्र के लड़के।
उस दिन शाम को छह बजे जब सभी लड़के शोले देखकर निकले तो सूरज ढलान के कगार पर था, और धरती के व्यापक पटल को अपनी आगोश में लेने के लिए अंधरे की यात्रा शुरु हो चुकी थी। कचकच भीड़ के साथ ससरते हुये कब हम लोग स्टेशन पर आ गये पता ही नहीं चला। बातों ही बातों में यह निर्णय हो गया कि घर पैदल ही जाना है, और इसके साथ ही बच्चों का यह कारवां पैदल ही पुनाईचक की ओर बढ़ चला। बगुलवा पूरे रंग में था, कभी वह गब्बर सिंह का डायलाग बोलता, तो कभी ठाकुर का, और कभी चलते-चलते किसी दूसरे लड़के की बाजू पकड़ कर उससे बसंती की तरह ठुमके लगाने को कहता था। यहां तक कि अपने मुंह से पूरे एक्सप्रेशन के साथ वह घोड़ों की आवाज भी शानदार तरीके से निकालता था…..गब्बर सिंह आ गया….टिक टिक टिक……। फिल्म के लगभग हर किरदार की वह नकल उतार रहा था, और सभी लड़के उसकी इस अदा पर पूरी तरह से फिदा थे। उसकी देखादेखी वे लोग भी फिल्म के तमाम किरदारों में घुस कर उन्हीं की तरह एक्टिंग करने की कोशिश कर रहे थे, लेकिन बगुलवा की ऊंचाई को कोई छू नहीं पा रहा था।
चलते-चलते एक मोटे से लड़के के दिमाग में खुराफात घुसी। अपनी खास मोटापा के कारण सभी लड़कों के बीच में उसकी काफी धाक थी। चूंकि गालियां निकालने में वह माहिर था, इसलिए उसका रुतबा कुछ और बड़ा हो जाता था। उसके हाथ और पैर सूखी लकड़ियों जैसे थे, लेकिन लेकिन पेट असमान्यरूप से फूला हुआ था। पेट से भी बड़ा उसका सिर था। कुल मिलाकर वह देखने में एक छोटा-मोटा दानव लगता था। उसने कहा कि हम रिक्शे से चलेंगे। यह पूछे बिना कि इसके लिए पैसा कहां से आएगा सभी लड़के उसकी बात पर सहमत हो गये। दो रिक्शे पर दस लड़के सवार हो गये, और हंसी ठिठोली के साथ एक दूसरे को गाली बकते रहे। बीच-बीच में एक-दो लड़का रिक्शे से उतरकर उसे पीछे से यह कहते हुये ढेलता था कि इससे रिक्शे वाले को सहूलियत होगी, इतने लोगों को बोझ खींचने में उसे परेशानी हो रही है। दोनों रिक्शे वाले भी खुश थे। हड़ताली मोड़ को क्रास करने के बाद रिक्शा रेलवे क्रासिंग के पास पहुंची और देखते ही देखते एक साथ सभी लड़के छलांग मारकर रिक्शे वाले को बिना पैसे दिये ही रेलवे लाइन पर दौड़ पड़े। उनका यह हरकत पूरी तरह से नियोजित था, हालांकि इसी चर्चा उन्होंने एक बार भी नहीं की थी। बच्चों का यह गैंग इसका अभ्यस्त था। एक रिक्शे वाले ने कुछ दूर तक चहेटने की कोशिश की, लेकिन सभी लड़के उसे गालियां देते हुये भाग निकले।
उन दिनों यह बात काफी प्रचलित थी कि शाम होते ही कोई भी रिक्शा वाला पुनाईचक की तरफ आने के लिए तैयार नहीं होता है, दिनभर की कमाई छिने जाने के साथ-साथ मार-कुटाई का भी भय होता था। उस इलाके में रहने वाले सरकारी बाबू लोगों को इस बात से अच्छी खासी परेशानी होती थी, लेकिन पटना के केंद्र में होने के कारण वे लोग उस मुहल्ले को छोड़कर जाने से हिचकते थे। इसके अलावा वहां किराया भी काफी कम था।
अति महत्वपूर्ण स्थान पर होने के बावजूद पुनाईचक के स्थानीय यादवों की राजनीतिक चेतना दबी हुई थी, उनके रोजमर्रा के जीवन में वहीं बातें शामिल थी जो एक ठेठ गांव में होता है, चौक चौराहों पर झुंड में बैठकबाजी, एक दूसरे पर टशन दिखाने का ताव, कभी-कभी सामूहिक रूप से रगेदा-रगेदी, गांव के किसी ओट में तीन पत्तिया पर दाव लगाना, और हार जाने के बाद मारामारी आदि। बेबाक शब्दों में कहा जाये तो गोपगिरी का कल्चर उस मुहल्ले में पूरी तरह से हावी था।
उन दिनों मोस्यू रघुगोप का बोलबाला था। उसकी लंबाई करीब छह फीट होगी। चेहरे पर चेचक के दाग भरे हुये थे, और आंखें छोटी-छोटी थी, जिनमें से क्रूरता टपकती रहती थी। वह चौड़े कंधे और चौड़ी कलाइयों वाला असमान्यरूप से एक बेहद ही मजबूत गोप था। सुबह चार बजे जब सब लोग सोते रहते थे, तो वह चिड़ियाखाना की तरह दौड़ लगाकर वापस पुनाईचक चौराहे पर बैठकर चाय की चुस्की लेता रहता था और सुबह सैर के लिये जा रहे अन्य लोगों को उसकी आंखों में देखने तक की हिम्मत नहीं होती थी। उसे चोरी से निहारते हुये लोग निकलते जाते थे। लंबाई के कारण लुंगी उसके घुटने से थोड़ी नीचे तक आती थी। वैसे अक्सर वह ब्लू जींस और ब्लू पैंट में ही नजर आता था। वह काफी कम बोतला था, न के बराबर। ऊंची आवाज में तो वह कभी बोलता ही नहीं था। उसका न बोलना उसके इर्दगिर्द व्याप्त खौफ की आभा को और भी घना कर देता था।
उन दिनों पिस्तौल की किल्लत थी, आम रंगदारों की पहुंच पिस्तौल तक नहीं थी। गोपगिरी करने के लिए शारीरिक तौर पर वलिष्ठ होना जरूरी था….शायद गोपगिरी की पहली अर्हता यही थी। और इस मामले में रघुगोप पूरी तरह से फिट था। गोपगिरी करने का उसका अंदाज निराला था, अपने दुश्मनों से वह क्रूरता की हद को पार करते हुये निपटता था, जो उसकी मौलिक शक्ति थी। उसकी यही मौलिक शक्ति उसे अन्य यादवों से भिन्न पांत में खड़ी कर देती थी। रूह को थर्रा देने वाला कदम वह बड़ी सहजता से उठाता है, बिना किसी आवेग के।
एक बार पुनाईचक और बोरिंग रोड के बीच स्थित रेलवे लाइन के निकट के एक नाले से एक बोरा बरामद हुया, और उसमें से कटे हुये हाथ-पैर निकले, जो लाल रंग से रंगे हुये थे। उन्हें देखकर यह भ्रम होता था कि ये किसी महिला के हाथ-पैर हैं, जिसकी अभी-अभी शादी हुई है। हवा में यह खबर तेजी से फैलती चली गई कि यह मोस्यू रघुगोप का काम है। कुछ दिन पहले उसने उस व्यक्ति के परिवार वालों को धमकी दी थी कि जल्द ही उसके बेटे की शादी कर दी जाएगी। डोली उतारने के लिए वे लोग तैयार रहे। गुंडई में उस व्यक्ति का नाम भी पूरे इलाके में खिला हुआ था।
मोस्यू रघुगोप दुस्साहस की हद को भी पार कर जाता था। पटना में दुर्गा पूजा आमतौर पर विभिन्न मुहल्ले में रहने वाले लोगों के लिए शक्ति प्रदर्शन का एक मजबूत साधन हुआ करता था। इस पूजा में सार्वजनिकतौर पर वही लोग भाग लेते थे, जिनमें शक्ति की भूख होती थी। दुर्गा पूजा विभिन्न मोहल्ले के लोगों के लिए शक्ति प्रदर्शन का मुख्य साधन था।
पुनाईचक में दुर्गापूजा की तैयारी बहुत ही धूमधाम से होती थी, तरह-तरह के लड़कों के झुंड दो महीने पहले से ही चंदा काटने में लग जाते थे, लोग मुहल्ले के एक-एक दरवाजे को खटखटाते और जहां से जितना हो सकता था चंदा लेते थे। उमंग, उत्साह के साथ-साथ इस प्रक्रिया में उनकी एकता और अनुशासन देखते ही बनती थी। पुनाईचक चौराहे पर बड़ा सा पंडाल बनाया जाता था, जहां पर लगातार नगाड़ों की थाप पर लोग झूमते रहते थे। शाम होते ही लोग लाठी, भाले और फरसे से दिल को दहला देने वाली रोचक लड़ाइयों का रोचक प्रदर्शन करते थे। रात ढलने के साथ ही यह खेल अपने पूरे शबाब पर आ जाता था। किसी समुदाय की शक्ति को आंकने का सबसे बेहतर तरीका है उस समुदाय विशेष के सांस्कृतिक कार्यक्रमों के तौर-तरीकों को देखना और समझना। समुदाय विशेष की सहज शक्ति की अभिव्यक्ति उनके सांस्कृतिक कार्यक्रमों में खुलकर होती है। शायद यही कारण है कि लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने महाराष्ट्र में गणपति पूजा की शुरुआत की थी, जो समय के साथ एक व्यापक जन उभार के रूप में दृष्टिगोचर हुआ।
पुनाईचक में यादवों की अपार शक्ति का अहसास दुर्गा पूजा में लाठी, भालों और फरसों की खनकती हुई आवाजों में होती थी। बाद के दिनों में लालू यादव ने यादवों की इसी सहज शक्ति का इस्तेमाल पिछड़ावाद के नाम पर बिहार के राजनीतिक पटल पर सामूहिक रूप से किया और लंबे समय तक सत्ता पर अपनी पकड़ बनाये रखा। दुनिया के स्वस्फूर्त आंदोलनों में विचारधारा की बजाय समुदाय विशेष की सहज प्रवृति का ज्यादा योगदान रहा है।
अठवीं के दिन पुनाईचक चौराहे पर ढोल और नगाड़ों के बीच लोगों की चहलकदमी बढ़ी हुई थी। मोटरसाइकिल पर सवार वर्दी पहने एक दरोगा लोगों से मोस्यू रघुगोप के बारे में पूछताछ कर रहा था। जैसे ही उसकी मोटरसाइकिल एक लकड़ी की दुकान के पास आकर रुकी अचानक मोस्यू रघुगोप उसके सामने पैर फैलाकर खड़ा हो गया और उसकी मोटरसाइकिल से चाभी निकालते हुये उसे मां-बहन की गालियां देते हुये बोला, “साले मैं ही रघुगोप हूं….अभी तुमको भगवान से भेंट कराता हूं….।”
देखते ही देखते ही दरोगा पसीने से तरबतर हो गया, उसके कंठ से आवाज तक नहीं निकल रही थी, ऐसा लग रहा था मानों किसी ने अचानक उसकी गर्दन को जोर से दबोच लिया हो, और उसके अंदर की सांस अंदर और बाहर की सांस बाहर अटकी पड़ी हो। उस पर गालियों की बौछार जारी थी, और इस बौछार से उसके शरीर का लहू थमता सा जा रहा था। इस बीच कुछ लोगों ने आगे बढ़कर मोस्यू रघुगोप को हटाया और उसके हाथ से मोटरसाइकिल की चाभी लेकर दरोगा को वापस किया। मौका लगते ही दरोगा वहां से सरक लिया। करीब आधे घंटे बाद चार-पांच थानों की पुलिस दल बल के साथ मोस्यू रघुगोप को खोज रही थी। पूजा के बाद उसने सरेंडर कर दिया था।
अपने शिकार पर वह हमेशा चाकू लेकर ही झपटता था, और वही भी पूरी क्रूरता के साथ। सामने वाले का कालर पकड़ कर वह चाकू के सारे वार उसके सिर पर ही करता था, पूरी बेरहमी के साथ। उसकी यही बेरहमी लोगों में खौफ पैदा करती थी। पुनाईचक के तमाम दबंग माने जाने वाले यादव भी उसकी इसी क्रूरता के कारण उससे दूरी बनाये रखने में ही अपनी भलाई समझते थे, कुछ तो दबी जुबान से उसका विरोध भी करते थे, लेकिन सामने पड़ते ही उनकी जुबान कट जाती थी।
मोस्यू रघुगोप की तूती स्टेशन पर भी बोलती थी, मुलसमानों का एक बहुत बड़ा वर्ग, जो स्टेशन पर विभिन्न तरह के धंधे करता था, उससे जुड़ा हुआ था। पुनाईचक के उन लड़कों के लिए जिनका दिमाग शैतानी कामों में खूब चलता था, मोस्यू रघुगोप रोल माडल की तरह था। वैसे उसके कामों की चर्चाएं लगभग हर उम्र के लोगों की महफिल में होती थी। वह सही मायने में उस वक्त के पटना का सबसे सशक्त गोप था, निर्भीक और बेरहम।
चार्ल्स डारविन का सिद्धांत शक्तिशाली को ही जीने का अधिकार है हर युग और कौम पर लागू होता है, इसके अतिरिक्त बाकी जो कुछ भी है आवरण है, जिसे लोग स्पष्ट तौर से देखना नहीं चाहते या फिर उन्हें देखने नहीं दिया जाता है, या फिर देखते हुये भी न देखने का भ्रम करते हैं। उन दिनों पुनाईचक की प्रयोगशाला में चार्ल्स डारविन के इस सिद्धांत को ठोकने और परखने के बाद इसकी सत्यता से इनकार करना किसी योगी की तरह दिन में आंखे बंद करके रात का भ्रम पालने जैसा था। जीवन के शुरुआती दौर में पुनाईचक एक ऐसे विश्वविद्यालय की तरह मेरे सामने आया, जहां कोई किताबें नहीं थी, सबकुछ सहज प्रक्रिया का एक हिस्सा था। यादवों के इस छोटे से गांव ने निर्भिकता का पाठ पढ़ाया, जो बाद के दिनों में खूब काम आया। यदि आक्रमकता आपकी सहज प्रवृति है, तो खौफ के माहौल में आपकी इस सहज प्रवृति में और भी निखार आएगी। चार्ल्स डारविन यह तो बताता है कि प्रजातियों के आपसी संघर्ष में श्रेष्ठ प्रजाति ही विजेता बनकर ऊभरती है, लेकिन वह इस संघर्ष में श्रेष्ठ प्रजाति के पैमाने की बात नहीं करता है, जबकि हकीकत में श्रेष्ठ प्रजाति होने के लिए आवश्यक शर्त है आक्रमकता। पुनाईचक के रग रग में आक्रमकता भरी हुई थी।
जारी……( अगला अंक अगले शनिवार को)