पटना को मैंने करीब से देखा है (पार्ट-7)

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उत्पाती बच्चों की पूरी टीम बैजू की दीवानी थी 

 एथेंस के लगभग सभी प्रमुख विचारकों ने गीत और संगीत की उपयोगिता पर खास जोर दिया था, इसे ईश्वर के करीब ले जाने वाला माना था। बच्चों को नियमित संगीत सीखाने की बात कही थी, ताकि उनके कोमल मन में संवेदनाओं का सही तरीके से विकास हो, और वे क्रूरता से दूर रहें। तात्कालिक रूप से स्पार्टा वालों की सैनिक शिक्षा के समक्ष भले ही एंथेस वालों की जड़े हिल गई, लेकिन सभ्यता के विकास क्रम में एथेंस की इस शिक्षा ने स्थायी आकार ग्रहण कर लिया, और आज तो दुनिया भर में गीत और संगीत जगत की हलचलें सुर्खिया बटोर रही हैं। गीत और संगीत सहज रूप से व्यक्ति के तंत्रिकातंत्र को प्रभावित करते हैं, चूंकि बचपन में शरीर के तंत्रिकातंत्र की संवेदनशीलता ज्यादा होती है, इसलिये इस अवस्था में इसका प्रभाव गहरा भी होता है।     

नया सचिवालय के मुख्य गेट के सामने सड़क के दूसरी ओर बड़े-बड़े दरखतों की श्रृंखला थी, जिसके नीचे चाय और पकौड़ों की दुकाने चलती थी। इन मैटमैले दुकानों में कई तरह के मैले-कूचैले बच्चे दिन भर एक दूसरे को गालियां देते और अपने-अपने मालिकों की गालियां खाते हुये काम करते रहते थे। गर्मी के दिनों में इनके शरीर से बदबूभरा पसीना निकलता रहता था और जाड़े में ये लोग फटे पुराने कपड़ों में लिपटे हुये सरकारी बाबू लोगों की हांक पर हाथ में चाय के गिलास पकड़े हुये इधर-उधर भागते रहते थे। सचिवालय में काम करने वाले सरकारी बाबू लोग इन्हीं दुकानों में चाय की चुस्की लेते हुये एक-दूसरे से बातें इधर-उधर की बातें करते रहते थे।

चाय दुकानों से कुछ दूरी पर ही एक बड़े से वृक्ष के नीचे गायक बैजू का जमघट लगता था। वह अल्हा गाता था, और इतने रंग में गाता था कि सुनने वाले खुद को उसके साथ बहता हुआ महसूस करते थे। बच्चों की पूरी टीम उसकी दीवानी थी। उसको सुनने के लिए सब एक साथ उसकी तरफ भागते थे, और फिर एक बार उसके करीब बैठ जाने के बाद बस सुनते ही जाते थे। गीत और संगीत का इफेक्ट वाकई में कुछ जादुई जैसा होता है। व्यक्ति के अंदर कहीं दूर ऐसे चीज को छूता है, जिसे सिर्फ वही व्यक्ति महसूस कर सकता है, या फिर समझ सकता है, जो इसमें पुरी तरह से रमा हो। कच्ची उम्र में तो वैसे भी समझ का दायरा आकार ले रहा होता है, ऐसे में गीत और संगीत का महत्व थोड़ा और बढ़ जाता है।

बैजू के आल्हा के प्रभाव में आकर उत्पाती बच्चों की टोली घंटो विश्राम की अवस्था में चुपचाप बैठी रहती थी। यह कहना मुश्किल होगा कि किस बच्चे पर उसके आवाज के प्रभाव की मात्रा कितनी थी, लेकिन इतना तय था कि उसकी आवाज में सभी को थाम लेने की क्षमता थी, सभी उसे बेसुध होकर सुनते थे।  

बैजू सुबह दस बजे तक उस वृक्ष के नीचे हर हालत में पहुंच जाता था, कंधे पर एक ढोलक और एक पोटली लटकाये हुये। फिर वह चाय पीते हुये अपनी पोटली खोलता था और गाने की तैयारी में जुट जाता था। सबसे पहले वह अपनी पोटली से एक खाली बोरिया निकालता था, और उसे वृक्ष के नीचे बिछा कर उस पर एक गमछा डाल कर आराम से अपना ढोलक लेकर बैठ जाता था। कुछ लोग तो पहले से ही उसका इंतजार करते रहते थे, जिनमें अधिकतर रिक्शेवाले होते थे या फिर सचिवालय के अंदर बने सरकारी बगीचों के माली। वे लोग बैजू को वृक्ष के नीचे व्यवस्थित होने में खुशी-खुशी उसकी मदद करते थे। चाय तो उसे मुफ्त में मिल जाती थी, क्योंकि चाय वाले को पता था कि बैजू की वजह से उसकी दुकानदारी अन्य चायवालों से अच्छी होती है, लोग चाय की चुस्कियों के साथ अल्हा सुनना पसंद करते थे।    

अपने बड़े से ढोलक की रस्सियों को अच्छी तरह से कसने के बाद बैजू दायें हाथ में अपने अंगुठे की बगल वाली दो अंगुलियों पर बांस का बना हुआ दो मजबूत करची को सूती धागे से बड़ी सावधानी से मिलाते हुये बांधता था, और फिर उन्हें ढोल पर थपकी देते हुये टेस्ट करता था,-धिनक चिक किरिच धिनिक…. धिनक चिक किरिच धिनिक.…बीच-बीच में ढोलक की रस्सी को खींचता था, और चमड़े पर कभी हल्की तो कभी जोरदार थाप मारते जाते था। ढोलक में रस्सियों के साथ-साथ लोहे की छोटी-छोटी कई कड़ियां लगी हुई थीं, जिन्हें एक-एक करके खींच करके वह ऊपर की ओर ले जाता था, साथ ही ढोलक को उलट-पलट कर थपकाते रहता था। लगातार कोशिश के बाद जब धिनक चिक किरिच धिनिक….की आवाज पूरी तरह से उसके मन मुताबिक निकलने लगती थी तब मुस्करा कर लगातार चार-पांच मिनट तक वही आवाज निकालता रहता था।

फिर थोड़ी देर के लिए अपनी आंखे बंद करके वह शांत बैठ जाता था मानो किसी को याद कर रहा हो। इस बीच बगल से पान वाला उसे एक पत्ते में पान बांधकर दे देता था, जिसे वह अपने सामने बोरे पर रख देता था। इसके बाद वह लगातार विभिन्न तरीके से ढोलक पर थाप मारता रहता था, कभी इतनी जोर-जोर से मारता कि लगता था कि ढोलक अब फटा कि तब। कभी करीने से कुछ इस तरह से ढोलक को बजाता था कि पेट के अंदर गुदगुदी महसूस होती थी। उसकी ढोल की आवाज सुनकर लोग दूर-दूर से जुटने लगते थे और देखते ही देखते उस वृक्ष के नीचे अच्छी खासी भीड़ जमा जाती थी। भीड़ को दुआ सलाम करते हुये बैजू अपने दोनों हाथों की कलाइयों पर दो पट्टियां बांधता था, जिनमें छोटे-छोटे घुंघरु लगे होते थे। लगभग सभी चेहरे जाने पहचाने होते थे, क्योंकि ये लोग पूरी तरह से बैजू की आवाज से बंधे हुये थे, इन्हें आना ही आना था।

सबसे पहले वह पूरी श्रद्धा के साथ दुर्गा मां की सुमिरन करता था, फिर एक-एक करके सभी देवी-देवताओं को नमन करता था और अंत में अपना परिचय देते हुये कहता था, मैं जाति का मल्लाह है, मेरा नाम बैजू है। प्रत्येक दिन स्टीमर या नाव से गंगा पार करके यहां आप लोगों को अल्हा सुनाने आता है। देवी से यही कहता हूं कि जब तक इस पृथ्वी पर रहूं इसी तरह गाता रहूं।

उसके नाम की पुष्टि उसके दायें बांह पर नीले रंग से गुदा हुआ बैजू शब्द कर देता था। ढोलक पर थाप देने के दौरान हाथ की हरकत के साथ वह गुदा हुआ नीला रंग एक साथ कई शक्ले अख्तियार करता था। ऐसा लगता था कि ढोलक के ताल के साथ वह नीला शब्द विभिन्न आकृतियों में ढलते हुये नृत्य कर रहा हो, मानो साक्षात भगवान शंकर उसके बायें बाजू में उतर आये हो।

बैजू का रंग गोरा था, जिसके कारण उसके हाथ पर गुदा हुआ नीला रंग और भी फबता था। चेहरा स्लेट की तरह चौकोर था, और आंखे बड़ी-बड़ी, बोलती हुई सी। उसके ऊपर के होठ उसकी बड़ी-बड़ी मोटी मुंछों से ढके होते थे। मुंछ पर बार-बार हाथ देने की उसकी आदत सी बन गई थी। सभी लोगों को नमन करने के बाद वह बड़े सलीके से सामने पड़े पान को उठाकर अपने मुंह में डालकर हौले-हौले चबाता था, फिर किसी किले की लड़ाई के स्वर छेड़ देता था।

जैसे कि समय-समय पर बैजू और अन्य लोगों की आपस होने वाली बातों से पता चलता था कि अल्हा में कुल 52 किलों की लड़ाई की कहानी है, जिन्हें एक-एक करके अल्हाल और उदल नामक दो भाइयों ने जीता था। लड़ाई के मूल में किसी महिला की डोली उठाना होता था, और करीब-करीब हर किले की लड़ाई को जीतने के बाद उस महिला की डोली महोबा (अल्हा और उदल की राजधानी) आती थी। डोली उठाने के चक्कर में काफी खून खराब होता था, और मजे की बात यह है कि जिस महिला की डोली उठाई जाती थी वह भी यही चाहती थी कि वह महोबा ही जाये, लेकिन उसका बाप या भाई इसका विरोध कर रहा होता था। गायन शैली में इस तरह की कहानियों को सुनना निसंदेह एक रोचक अनुभव था, खासकर उस समय जब दिमाग पूरी तरह खिच्चा था।      

एक किले की लड़ाई को सुनाने में उसे कभी-कभी एक दिन तो कभी-कभी तीन दिन तक लग जाते थे। वह एक-एक चीजों का विस्तार से वर्णन करता था, अतिश्योक्ति के साथ। और सभी बच्चें बड़ी सहजता से उसकी बातों पर यकीन भी कर लेते थे, यहां तक कि बड़े लोग भी। मसलन उदल की छाती लोहे की थी, मलखान सिंह की पत्थर की। अल्हा अमर था, उसे कोई नहीं मार सकता था, लेकिन इस बात की जानकारी उसे नहीं थी। अल्हा की पत्नी का नाम सोनवा था, और वह तेरह तरह के जादू जानती थी। उदल की पत्नी का नाम फूलवा था। इसके अतिरिक्त उनके और भी कई पत्नियां और उप-पत्नियां थीं।  

बैजू की गायन शैली अदभुत थी, हर किरदार की मानसिक स्थिति को वह उसी की स्थिति में जाकर बयां करता था, और घटना व परिस्थिति के मुताबिक प्रत्येक किरदार की मानसिक स्थिति बदलती रहती थी। युद्ध वाले भाग के दौरान वह पूरी तरह से ओज में होता था, मुंह से घोड़ों, तीरो, और तलवारों की झंकार तक निकालने लगता था। युद्ध के उन्माद को बयान करते हुये दोनों ओर से ढोल पर उसके थापों की बारंबरता बढ़ जाती थी, और साथ ही ताकत भी। ऐसा लगता था कि ढोल की आत्मा सीधे रणभूमि से अपने खास अंदाज में पूरी कहानी बयां कर रही हैं, ढमक ढिम ढम- ढमक ढिम ढम, ढमक ढिम ढम…ढम ..ढम….ढम… ढमक ढिम ढम, ढमक ढिम ढम।  कभी-कभी तो अचानक ढोल को दोनों हाथों में पकड़ कर अपने सिर के ऊपर लाता था और सामने बैठे लोगों पर ढोल लेकर ऐसे झपटता मानों उनका सिर ही फाड़ देगा। उसके सामने आगे बैठे लोग डर जाते थे, जबकि पीछे बैठे लोग ठठाकर हंसने लगते थे, फिर वह संभल कर कोई दूसरा किस्सा छेड़ देता था। वह मर्दों की महफिल थी, इस लिहाज से छेड़-छाड़ के किस्सों को वह थोड़ा और रस लगा के सुनाता था, लेकिन इस बात को लेकर सर्तक रहता था कि महफिल की मर्यादा भंग न हो।

गाने के दौरान जब भीड़ पूरी तरह से उसके वश  में आ जाती थी, तो वह अचानक किसी रोचक मोड़ पर लाकर कहानी को रोक देता था और वहां बैठे लोगों से जितना हो सके उतना देने को कहता था। एक-एक दो रुपये के नोट तो उसके पास उड़ते हुये आते थे, साथ ही दस पैसे, बीस पैसे और अठन्नी-चवन्नी उसके ढोल पर छनकते रहते थे, जिन्हें समेटने के लिए वह किसी को लगा देता था।           

सुबह दस बजे से लेकर सूरज ढलने तक उसकी महफिल जमी रहती थी। लड़ाई के अंतिम भाग में आने पर महफिल में बैठे मेहरबानों से वह पांच-पांच के दस नोट की मांग करता था, और नहीं मिलने पर उन्हें ललकारता था कि इस शानदार लड़ाई को अंजाम तक पहुंचाने के लिए इस महफिल में दस मर्द नहीं है, और उसकी ललकार सुनकर लोगों के हाथ खुद ब खुद उनकी जेबों की ओर चले जाते थे और देखते ही देखते उसकी मांग पूरी हो जाती थी। कभी-कभी पैसे न मिलने की स्थिति में वह रुठ जाता था, लेकिन फिर गाने के लिए तैयार हो जाता था।   

यह सिलसिला करीब छह महीने तक चलता रहा। सप्ताह में छह दिन सभी टीम के सभी बच्चे उसे सुनने जरूर आते थे। रविवार को सचिवालय बंद रहता था, जिसके कारण वह नहीं आता था। उसके न आने पर सभी बच्चे एक अजीब सी छटपटाहट महसूस करते थे, ऐसा लगता था जैसे उनका कोई कीमती सामान खो गया है।

एक दिन शाम को उसकी महफिल जमी हुई थी कि अचानक दो पुलिस वाले लाठी लेकर आ गये और बैजू पर ताबड़तोड़ लाठियां बरसाने लगे। महफिल में बैठे सभी लोग इधर-उधर भाग गये। पुलिस वालों ने उसे धमकाते हुये कहा कि उसके कारण सभी कर्मचारी अपना-अपना काम छोड़कर यहीं पर बैठे रहते हैं, जिसके कारण सचिवालय के अंदर अधिकारियों को परेशानी होती है। अधिकारियों ने उन्हें आदेश दिया है कि वे तुरंत बैजू को यहां महफिल लगाने से रोके। बैजू दोनों हाथ जोड़कर पुलिस वालों से अपनी रक्षा की भीख मांगता रहा और पीटता रहा। उस दिन के बाद से वह हमेशा के लिए गायब हो गया, लेकिन उसके गाये हुये शब्द आज भी मेरी कानो में गुंजते रहते हैं। बाद में कई मौकों पर कई मौकों पर कई लोगों को अल्हा गाते हुये सुना, लेकिन बैजू वाली बात किसी में नहीं थी।     

 जारी……( अगला अंक अगले शनिवार को)

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