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पटना में प्रतिरोध फिल्म महोत्सव

जन संस्कृति मंच, हिरावल द्वारा पटना में प्रतिरोध का सिनेमा नाम से तीन दिवसीय  फिल्म फेस्टिवल का आयोजन किया गया।  तीन दिवसीय फिल्म फेस्टिवल में कुल पंद्रह छोटी- बड़ी फिल्में दिखाई गईं, जिनमें निर्देशक शाजी. एन करुन की राष्ट्रीय स्तर पर  पुरष्कृत और बहुचर्चित मलयालम फिल्म कुट्टी स्रांक भी शामिल है। इसमें दर्शक भी खूब जुटे और इस तरह की फिल्मों के लिए व्यापाक वातावरण बनाने के लिए चंदा पेटी में पैसे भी डाले। बेहतर फिल्में देखने की ललक कल्याण मंत्री जीतन राम मांझी को भी थियेटर तक खींच लाई।

पिछले साल दिसंबर में पटना में प्रथम प्रतिरोध का सिनेमा महोत्सव का आयोजन किया गया था। इस बार भी ये अपने सत्र से ही चला। अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के शताब्दी वर्ष मनाते हुये इस फेस्टिवल में चार महिला फिल्मकारों की फिल्मों को शामिल किया गया। कुछ फिल्में बच्चों पर केंद्रित थी, डाक्यूमेंट्री फिल्मों को भी प्रमुखता से दिखाया गया। इसकी शुरुआत मलयालम फिल्म कुट्टी स्रांक से हुई।

 निर्देशक–शाजी एन करुण की फिल्म कुट्टी स्रांक में केरल के एक नाविक की कहानी को पर्दे पर उतारा गया है। नाविक कुट्टी स्रांक गुस्सैल है, लेकिन संगीतमय नाटकों का बेहद शौकीन है। अपने व्यवहार और काम के कारण वह एक जगह नहीं टिकता है। अलग-अलग स्थितियों में वो सहजता से ढल जाता है। पूरी वफादारी दिखाते हुये वह तीन अलग-अलग औरतों से प्यार करता है और तीनों को अलग- अलग ये यकीन दिलाये रहता है कि वो सिर्फ उन्हीं से प्यार करता है। एक दिन समुद्र तट पर उसकी लाश मिलती है, और तीनों औरतें उसे अपने तरीके से पहचानती हैं। एक बौध, दूसरी कैदी और तीसरी मूक है। उनके बयानों से कुट्टी स्रांक का पूरा व्यक्तित्व खुलकर सामने आता है।

एक कैमरा मैन के तौर पर फिल्म की दुनिया में कदम रखने वाले शामजी.एन करुन ने इस फिल्म की कहानी और पट-कथा खुद लिखी है। इनका कहना है कि फिल्में आम लोगों की होनी चाहिये, जिनमें जिंदगी की जद्दोजहद और खूबसूरती दिखे। चुंकि फिल्म कॉम्युनिकेट करने का एक संपूर्ण माध्यम है, इसलिये इसका दायरा व्यापक हो जाता है। यदि किसी व्यक्ति ये पूछा जाये कि उसके जेहन में दस बेहतर चीज क्या है तो वो एक फिल्म का नाम जरूर लेगा।  

युवा निर्देशक कुमद रंजन दशरथ मांझी पर बनाई गई फिल्म द मैन हू मूव्ड द माउंटेन एक ऐसे व्यक्ति की कहानी है जो आम आदमी की परेशानियों को कम करने के लिए अकेले पहाड़ काटकर रास्ता बनाने का निश्चय कर लेता है। लोग उस पर हंसते हैं, उसे पागल तक कहते हैं, लेकिन अपनी धुन का पक्का दशरथ मांझी तेईस वर्षों तक अथक बड़ी-बड़ी चट्टानों पर हथौड़े बरसाता रहता है और अंतत: सफल होता है। आखिर में उस पर हंसने वाले और उसे पागल कहने वाले लोग भी उसकी अदभुत इच्छा शक्ति के आगे नतमस्तक हो जाते हैं।     

कई टीवी चैनलों के लिए कैमरामैन का काम करते हुये कुमुद रंजन की मुलाकात दशरथ मांझी से हुई। जो व्यक्ति जन भलाई के लिए पिछले दो दशक से पहाड़ काटने में लगा हुआ हो उसके श्रम को एक फिल्म में समेटना आसान नहीं था। ऊपर से चैनलों में काम करने की अपनी मजबूरी थी। इस फिल्म को बनाने में कुमुद रंजन को पूरे तीन साल लग गये।  

दर्शक तो दर्शक नेता लोग भी अच्छी फिल्में देखने की लोभ से बच नहीं पाये। दशरथ मांझी पर बनी फिल्म फिल्म देखने की ललक कल्याणमंत्री जीतन मांझी को भी थियेटर तक खींच लाया।

कल्याण मंत्री जीतन मांझी को जब पता चला कि इस बार फेस्टिवल में दशरथ मांझी पर बनी फिल्म दिखाई जा रही है तो वे भी पूरी तरह से फिल्म देखने के मूड में आ गये। पूरी तल्लीनता से फिल्म देखने के बाद उन्होंने जोर देते हुये कहा कि इस तरह की फिल्में और बननी चाहिये। सब मिलजुल कर काम करेंगे तो बेहतर फिल्मों के लिए माहौल बनता जाएगा।  

प्रतिरोध फिल्म को समृद्ध करने के लिए इस तरह के फिल्मों से जुड़े आयोजक फिल्म के प्रदर्शन के बाद दर्शकों से चंदा उगाही करने में भी कोई कोताही नहीं बरत रहे हैं और लोग भी दर्शक भी दौड़ते फिरते चंदा पेटी में खुलकर अपना योगदान दे रहे हैं।  

दशरथ मांझी की फिल्म देखने के बाद जब कल्याण मंत्री जीतन मांझी बाहर निकले तो उनके आगे भी इस फेस्टिवल के आयोजन से जुड़े लोग चंदा पेटी लेकर आ गये।

डाक्यूमेंट्री शैली में सबा दीवान की फिल्म दी अदर सांग का प्रदर्शन भी खासा चर्चित रहा। इस फिल्म में तवायफों की समृद्ध परंपरा को दिखाया गया है, जो खत्म होती जा रही है। दी अदर सांग में एक खोई हुई धुन के सहारे मुख्य रुप से बनारस की तवायफों के समृद्ध इतिहास को चित्रित किया गया है। बनारस की मशहूर गायिका रसूलन बाई की ठुमरी थी, फूलगेंदबा ना मारो, लगत जोबनवां में चोट। इस ठुमरी को 1935 में रिकार्ड किया गया था, लेकिन भूला दिया गया। इस फिल्म को बनाने के पूर्व सबा दीवान ने तीन साल तक गहन अध्ययन किया।     

इसी तरह अमिताभ चक्रवर्ती की बिशार ब्लूज में मारफत की राह पर चलने वाले फकीरों को दिखाया गया है, जो अल्लाह, मुहम्मद और कुरान के बीच रिश्तों की स्वतंत्र व्याख्या अपने तरीके से करते हैं। केंद्रीय सत्ता से इतर ये फकीर बहुआयामी मुस्लिम मिथक निर्माण करते हैं। इन फकीरों के मुताबिक खुद को जानना ही खुदा को जानना है।       

दर्शक भी फिल्म को खूब डूब कर देख रहे हैं, जो यह बताता है कि बेहतर फिल्मों की आज भी जोरदार मांग है।

सामान्य बॉलीवुडिया फिल्मों के चलन से इतर प्रतिरोध की फिल्मों की अर्थ-व्यवस्था भी कुछ अलग है। फिल्मों का प्रोडक्शन कास्ट निकालने और भविष्य में सारगर्भित फिल्में बनाते रहने के लिए इस पेशे से जुड़े लोग नये तरीके अपना रहे हैं।

फिल्म निर्माण एक खर्चली प्रक्रिया है। लोकप्रिय मुंबईया फिल्मों का अपना एक ग्रामर है। इन फिल्मों का एक मात्र उद्देश्य है लोगों का मनोरंजन करना और पैसा बनाना। पैसे बनाने की होड़ में फिल्मों के माध्यम से एक फंतासी की दुनिया गढ़ते हैं, जिसमें आम दर्शक उलझते चले जाते हैं।

मुंबईया कॉमर्सिल फिल्मों से इतर फिल्म जगत में एक समानांतर धारा लंबे समय से चली आ रही है। लाभ-हानि के ग्रामर से बाहर निकल कर कई फिल्मकारों ने अपनी सूझ से जीवन से जुड़ी बेहतर फिल्में बनाई है, यह परंपरा आज भी जारी है।

इस फिल्म फेस्टिवल में बच्चों को स्वस्थ्य मनोरंजन देने पर भी खासा ध्यान दिया गया। आज की तड़क-भड़क वाली फिल्में बच्चों के कोमल मस्तिष्क को प्रदुषित कर रही हैं। ऐसे में बच्चों के मस्तिष्क को स्वस्थ्य रखना एक बड़ी चुनौती है। इस फिल्म फेस्टिवल में बच्चों के इन जरूरतों को ध्यान रखकर भी फिल्में शामिल की गई हैं। थियेटर के बार प्रतिरोध फिल्मों के साहित्य भी भरपूर मात्रा में उपलब्ध हैं।      

निर्देशक संकल्प मेश्राम की फिल्म छुटकन की महाभारत को लेकर बच्चे काफी उत्साहित हैं। नौटंकी देखते-देखते छुटकन महाभारत को लेकर अपनी अलग दुनिया गढ़ लेता है। महाभारत के तमाम पात्र उसकी बनाई हुई दुनिया के मुताबिक चलने-फिरने लगते हैं। छुटकन की दुनिया में महाभारत के पात्र लड़ते नहीं है। दुर्योधन को अपनी गलती का अहसास होता है और वो माफी मांग लेता है। बच्चों को यह फिल्म खूब भा रही है और साथ ही इस फिल्म के अंदर छुपे हुये संदेश को भी ये सही संदर्भ में पकड़ रहे हैं।

युवा दर्शक भी इस फिल्म फेस्टिवल की सार्थकता को समझ रहे हैं। गुढ़ अर्थ वाली फिल्में युवाओं के दिमाग को रौशन करते हुये उन्हें अंदर तक आंदोलित कर रही हैं। इस तरह की फिल्मों के पक्ष में उनका झुकाव स्पष्ट रूप से दिखाई देता है।

थियेटर के बाहर जन सरोकारों से जुड़े कई प्रसिद्ध साहित्यकारों की कविताओं की पंक्तियों को उकेरा गया है। इन पंक्तियों की ओर लोग आकर्षित भी हो रहे हैं। इसके अतिरिक्त फिल्म से संबंधित किताबों का स्टाल भी लोगों को अपनी ओर खींच रहा है।

प्रतिरोध सिनेमा की धारा और इसके उद्देश्यों को लेकर भी यहां आने वाले फिल्मकार काफी मुखर हैं। प्रतिरोध फिल्मों के तौर-तरीकों को दुनियाभर की फिल्मों के संदर्भ में समझाने की कोशिश भी कर रहे हैं।

निर्देशक शाही एन करुन के मुताबिक अमेरिका की चकाचौंध भरी फिल्मों से इतर प्रतिरोध की फिल्में दुनिया भर में बहुत बड़ी संख्या में बनी हैं। इन फिल्मों का अपना खास पैमाना है। दुनियाभर के फिल्म व्यवसाय पर मुख्य रुप से अमेरिकी व पश्चिमी देशों के फिल्मकारों का दबदबा रहा है। अमेरिकी व पश्चिमी देश के फिल्मकार अपने तरीके से फंतासी वाली फिल्में बनाते और दिखाते हैं। इन फिल्मों की प्रतिक्रिया में चीन, लैटिन अमेरिका, ताइवान, अफ्रीका आदि के फिल्मकारों ने अपने लोगों को केंद्र में रखकर फिल्में बनानी शुरु की। इन फिल्मों में उनकी कहानी को उन्हीं की भाषा में दिखाया गया। एक तरह से यह चलताऊ अमेरिकी व पश्चिमी फिल्मों के खिलाफ प्रतिरोध था।   

इस फिल्म फेस्टिवल के आयोजक भी पूरी मजबूती से इस बात पर बल दे रहे हैं कि भारत में भी प्रतिरोध फिल्मों की संस्कृति को बनाये रखने की जरूरत है।

फेस्टिवल के उदघाटन के दौरान कई प्रसिद्ध हस्तियों ने मंच पर बैठकर प्रतिरोध फिल्म की धारा को निरंतर मजबूत होने का अहसास कराया। मंच से भी वक्ताओं ने प्रतिरोध सिनेमा की महत्ता को स्थापित करने की पूरी कोशिश की।

फिल्म के प्रदर्शन के बाद थियेटर के अंदर दर्शकों से फिल्मकारों के बीच संवाद भी खूब चल रहे हैं। फिल्म तकनीक पर सवाल पूछने के साथ-साथ दर्शक फिल्म के संदेशों पर भी सवाल उठा रहे हैं।  

इस फिल्म फेस्टिवल में महिला फिल्मकारों की फिल्मों को भी प्रमुखता से स्थान दिया गया है। सबा दीवान की फिल्म दि अदर सांग के अतिरिक्त अनुपमा श्रीवास्तव की आई वंडर, दीपा भाटिया की नीरोज गेस्ट, तरुण भारतीय और के मार्क स्वेर की फिल्म हम देखेंगे शामिल है। फेस्टिवल में महिला दर्शकों की संख्या भी उत्साहजनक है। 

इस फेस्टिवल में महिलाओं की शिरकत प्रतिरोध फिल्म के फैलते दायरे को ही दर्शा रहा है। फिल्मों के प्रति इनका नजरिया खुलकर सामने आ रहा है। बेहतर फिल्मों की तलाश इन्हें भी है।

अमेरिका और यूरोप में फिल्म कई मूवमेंटों से होकर गुजरा है,जैसे इटली का रियलिज्म मूवमेंट और फ्रांस का वेव मूवमेंट। समुद्र पार के देशों में फिल्म थ्योरी पर खूब काम हुआ, और कई तरह के सिद्धांत भी गढ़े गये, जैसे एपरेटस थ्योरी, ऑटर थ्योरी, Feminist theory, इन सब को लेकर उन दिनो कैहिस डू सिनेमा नामक एक फ्रांसीसी पत्रिका में खूब मारा मारी होती थी। इस पत्रिका का संपादक बाजिन था। उस समय के सारे छटे हुये फिल्म समीक्षक उस पत्रिका से जुड़े हुये थे। बाद में इन्हीं लोगों ने खुद फिल्में बनाकर प्रतिरोध फिल्मों की शुरुआत की। जिस वक्त जीन रिनॉयार पोयटिक फिल्म बना कर दुनिया की फिल्म को एक नई दिशा दे रहे थे उस वक्त भारत में भी प्रतिरोध की बेहतर फिल्में ताबड़ तोड़ बन रही थी और ये कथ्य के लिहाज से पूरी तरह से भारतीय थी। विमल दा और सत्यजीत रे भारत में प्रतिरोध की फिल्म की जड़ें सींचने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। आज भी इस क्षेत्र में बहुत कुछ हो रहा है।

निर्देशक शाही एन करुन के कहते हैं कि फिल्मों की भाषा को समझना काफी आसान है। चलती बोलती तस्वीरें सीधे जेहन में अपना पैठ करती हैं, चाहे वे किसी भी भाषा में क्यों न बनी हो।

लोगों के जेहन में पटना फिल्म फेस्टिवल का असर लंबे समय तक बना रहेगा। पिछले कुछ वर्षों में बेहतर फिल्मों की चाह लोगों में बढ़ी है।

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