प्यार आपका मालिक है, आप उसके सेवक

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(मटुक नाथ चौधरी )

प्यार को समाज में अच्छे-बुरे सब रूपों में लिया जाता है। लोग एक तरह के हैं नहीं, अनेक तरह के हैं।  इसलिए प्यार के प्रति उनकी दृष्टियाँ भिन्न भिन्न हैं।

प्यार को सिरे से खारिज करने वाला आदमी शायद एक भी न मिले। सिर्फ प्यार के स्वरूप को लेकर मतभेद   है। प्यार का एक रूप वर्ग विशेष को पसंद है तो दूसरे वर्ग को वह बिलकुल नापसंद है। इसलिए यहाँ पर संक्षेप में प्यार के विविध रूपों को रखना चाहूँगा।

जितने भी प्रकार के प्रेम हैं, उन्हें दो रूपों में वर्गीकृत किया जा सकता है। प्रेम का एक रूप वह है जो आपके भीतर उतरता है और पूरी तरह आप पर कब्जा जमा लेता है। उस अवस्था में आप प्यार के वश में होते हैं, आपका प्यार पर कोई वश नहीं होता। प्यार जैसे आपको नचाता है, नाचते हैं, जिधर ले जाता है, जाते हैं। प्यार आपका मालिक है, आप उसके सेवक हैं। मेरी नजर में ऐसा प्रेम ही वास्तविक और सर्वश्रेष्ठ है। मीरा, कबीर, तुलसी, नानक, दादू इत्यादि के प्रेम इसी श्रेणी के शिखर हैं। लैला-मजनू, शीरी-फरहाद आदि जोड़ियाँ भी जुनूनी हैं। अंतर इतना है कि इन जोड़ियों के पास प्रेम विरह तक सिमटा रह गया और वह विस्तार नहीं पा सका। वह संभवतः आत्मा की गहराई तक उतरते उतरते रह गया। 

पहले प्रकार के प्रेम को आप परमात्मा के द्वारा बनाया हुआ प्रेम, प्राकृतिक प्रेम, नैसर्गिक प्रेम, स्वाभाविक प्रेम, स्वच्छन्द प्रेम आदि कह सकते हैं। स्वच्छंद शब्द बहुत प्यारा है। इसका माने है अपनी लय में, अपने छंद में जीना। यह स्वतन्त्र शब्द से भी ज्यादा सुंदर है। स्वतंत्र का अर्थ है अपने तंत्र में अर्थात् अपने शासन में जीना। छंद आंतरिक चीज है, तंत्र बहुत कुछ बाह्य है। शासन अपना ही क्यों न हो, है तो शासन ही न! दुर्भाग्य से स्वच्छन्द शब्द ‘मनमानी’ के अर्थ में प्रचलित होकर अपनी अर्थवत्ता से बहुत दूर चला गया है।

प्राकृतिक प्रेम या स्वच्छन्द प्रेम के अनंत रूप हैं। चूँकि हर मनुष्य की प्रकृति अलग-अलग होती है, इसलिए प्राकृतिक प्रेम भी उसकी प्रकृति के अनुसार अलग अलग होता है। समाज में इस श्रेणी के प्रेमियों की संख्या दुर्लभ है। इस तरह के प्रेम में बड़ी ताकत होती है। वह समाज को दूर दूर तक लंबे समय तक प्रभावित करता है। जब तक ऐसे प्रेमी जिंदा रहते हैं, तब तक प्रभाव छोड़ते रहते हैं। उनके मरने के बाद धीरे धीरे प्रभाव क्षीण पड़ता है और समाप्त हो जाता है। जब ऐसा प्रेम प्रभावशून्य होकर जीवन से बाहर हो जाता है, तब हम उसकी पूजा शुरू कर देते हैं। उन्हें मंदिर में स्थापित कर देते हैं। कृष्ण और राधा की हम पूजा करते हैं, लेकिन वास्तविक जीवन में कृष्ण और राधा दिखाई पड़े तो उन्हें जिंदा जला देते हैं ! इस तरह की पूजा कर्मकांड बनकर निरर्थक हो जाती है और बहुत बार हानिकारक भी होती है। 

हिन्दी के स्वच्छंद कवि घनानंद की एक पंक्ति याद आ रही है-

‘लोग हैं लागि कबित्त बनावत, मोहि तौ मेरे कबित्त बनावत’

लोग सायास कविता बनाते हैं, लेकिन मुझे तो मेरी कविता ही बनाती है। यानी कविता अपने आप बनती है, मैं नहीं बनाता। कविता जब स्वतः उतरती है तो उसकी खुशबू कुछ और होती है, लेकिन जब बनायी जाती है, तो वह बात नहीं रह जाती। ऐसे ही प्रेम जब स्वयं उतरता है, तो स्वर्गीय सुगंध से युक्त होता है, लेकिन जब उसे निर्मित किया जाता है, तो वह दोयम दर्जे का होता है।

दूसरे प्रकार का प्रेम सामाजिक है। वह मनुष्य निर्मित प्रेम है। समाज उसकी मर्यादा तय करता है और एक खास सीमा में प्रेम को चलाने की इजाजत देता है। पटना के पास दानापुर कंटोनमेंट के अंदर से जो सड़क गुजरती है, उसकी गति सीमा निर्धारित है। वहाँ सैनिकों का पहरा रहता है। किसी ने नियम तोड़ा कि डंडा बरसा, गाड़ी जप्त,कानूनी कार्रवाई शुरू ! सामाजिक प्रेम को भी इसी तरह एक खास गति सीमा में चलाने की इजाजत है। इसे विवाह के अंतर्गत चलाने की आज्ञा है। विवाह मालिक है, प्रेम उसका नौकर। कहा जाता है कि इससे समाज सुचारु रूप से चलता है ! विवाह के बाहर का प्यार अनैतिक माना जाता है ! 

 विवाह के मुख्यतः दो रूप हैं- पहला अरेंज मैरिज और दूसरा लव मैरिज। लव मैरिज को प्राकृतिक प्रेम के अंतर्गत मुझे रखना चाहिए था, लेकिन नहीं रख रहा हूँ; क्योंकि वह ज्यादातर पुरानी रूढ़ियों के अनुसार ही चलता है और विवाह में बदलकर तो अरेंज मैरिज जैसा ही हो जाता है। वह प्रेम अपनी मर्यादा के अनुसार नहीं, समाज की मर्यादा के अनुसार चलने लगता है, इसलिए स्वच्छंदता समाप्त हो जाती है। जिस प्रेम की मर्यादा प्रेम के भीतर से निकले वह स्वच्छंद प्रेम और जिसकी मर्यादा समाज निर्धारित करे, वह सामाजिक प्रेम। साफ शब्दों में कहूँ तो अपने छंद में ( लय ) में जीना स्वच्छंद प्रेम है और समाज के अनुसार जीना सामाजिक प्रेम है। सामाजिक प्रेम एक प्रकार की गुलामी है।

अरेंज मैरिज के भी अनेक रूप हैं। मैंने अपने बालपन में अरेंज मैरिज का एक दिलचस्प रूप देखा था। देखा कि नवविवाहित पति महोदय सबकी नजरों से बचते हुए चुपके से रात के अंधेरे में पत्नी-कक्ष में पहुँचते हैं। कुछ देर प्यार करते हैं। उसके बाद आहिस्ते दबे पाँव निकलकर पुनः दरवाजे पर जाकर सो जाते हैं। घर का कोई व्यक्ति पति को पत्नी के साथ रात में भी न देखे तो बड़ी सराहना होती थी। बुजुर्ग लोग अगर पति को सोते वक्त दरवाजे पर देखें और जगते वक्त भी वहीं पायंे, तो बड़े खुश होते थे। ऐसे दंपत्ति की इस ‘शालीनता और मर्यादित आचरण’ की सराहना होती थी। प्रेम का यह रूप अब लुप्त हो चुका है। आज का कट्टरपंथी भी इसे स्वीकार नहीं करेगा।

शुरू में अरेंज मैरिज में लड़की को विवाह पूर्व देखना प्रतिष्ठा के विरुद्ध बात थी, आज भी है, लेकिन धीेरे-धीरे यह बंधन टूट रहा है। कहीं कहीं इनगेजमेंट के बाद लड़का लड़की फोन पर परिवार की इजाजत से और कहीं इजाजत के बिना ही खूब बतियाते हैं। कभी कभी हॉल में सिनेमा भी देख लेते हैं, पार्क में, घर में या जहाँ तहाँ मिल भी लेते हैं। प्रेम विवाह का जितना विरोध पहले था, वह हल्का हुआ है। मैंने तो एक वज्र रूढ़िवादी को भी प्रेम विवाह स्वीकारते देखा। पिछले पचास वर्षों पर नजर डालें तो यह स्पष्ट हो रहा है कि प्रेम की स्वीकृति की दिशा में समाज ने थोड़ी यात्रा की है, जो स्वाभाविक भी है। लेकिन इस मंथर गति से समाज को विकसित होने में सैकड़ों वर्ष लग जायेंगे। इसलिए समाज को एक प्रेम क्रांति और सेक्स क्रांति की जरूरत है। अगर विवेक के साथ इस क्रांति का स्वागत नहीं किया गया, तो अनेक विकृतियाँं आती रहेंगी। जिस शहर को सरकार किसी योजना के तहत तत्परतापूर्वक नहीं बसाती है, वहाँ बेतरतीब ढंग से लोग बस जाते हैं और तमाम परेशानियों का सामना करते हैं। वैसे ही अगर समाज सुविचारित ढंग से सेक्स-रूपांतरण की योजना तैयार नहीं करता है, तो यह बेतरतीब ढंग से चलता रहेगा। इससे कुंठाएँ पैदा होती रहेंगी, अपराध बढ़ते रहेंगे, हिंसा फैलती रहेगी।

तो भाई, समाज में प्रेम को अनेक रूपों में देखा जाता है। यह देखनेवालों की शिक्षा, संस्कार और विवेक पर निर्भर करता है। विवेकशील व्यक्ति प्रेम के मामले में बहुत उदार हैं। सुशिक्षित और सुसंस्कृत व्यक्ति प्रेम को बड़ी ऊँची नजर से देखते हैं। जो पढ़े लिखे नहीं हैं, लेकिन सरल हृदय के हैं, वे भी चाहे ग्रामीण हों या शहरी; प्रेम को बहुत आदर देते हैं। मैंने सिर्फ कुटिल हृदय, कुसंस्कारी और कुशिक्षित कट्टरपंथियों को जीवंत प्रेम के विरुद्ध आग उगलते देखा है। वे अवांछित मर्यादाओं के भीतर दम तोड़ते प्रेम को अपने संस्कार के मेल में पाते हैं। अपनी इच्छा के विरुद्ध प्रेम करने वालों के प्रति वे बड़े असहिष्णु होते हैं। उनकी प्रभाव छाया में पलने वाले मूढ़ भी उन्हीं का अनुसरण करते हैं।

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