प्रचंड मुक्कों की तपिश क्यों नहीं महसूस करता खेल मंत्रालय ?
मनीष शर्मा, नई दिल्ली
खेलों में ‘बसंत ऋतु’ पूरे जीवन में एक या दो बार ही आती है..ऐसी ही बसंत ऋतु मुक्केबाजी और कुश्ती में साल 2008 के ओलंपिक खेलों के बाद आई, जब सुशील कुमार और विजेंदर ने अपने-अपने वर्ग में कांस्य पदक जीते..(अभिनव बिंद्रा को इस ‘बसंत ऋतु’ में इसलिए नहीं गिनूंगा क्योंकि निशानेबाजी आम आदमी का खेल नहीं है….चायवाले और ठेले पर सब्जी बेचने वाले का बच्चा एक बार को शूटर बनने का सपना देख सकता है, लेकिन इस महंगे खेल को वहन नहीं कर सकता).. क्या कर सकता है ??..लेकिन भारत सरकार/खेल मंत्रालय न तो इस ‘बसंत ऋतु’ को भुना ही सका, न ही पूरी तरह सहयोग कर सका…हां ये सही है कि इस साल भारत सरकार ने लंदन ओलंपिक की तैयारियों पर करोड़ों रुपये खर्च किए…बहुत अच्छी बात है..अच्छा काम किया..पैसे का असर भी लंदन में दिखाई पड़ा…इस पहलू को स्वीकारा जा सकता है..लेकिन ‘बसंत ऋतु’ भुनाना अलग बात है, और तैयारियों पर खर्च अलग बात।
यहां बहुत ही अहम सवाल ये हैं कि सरकार/खेल मंत्रालय ने बीजिंग में साल 2008 ओलंपिक खेलों में सुशील और विजेंदर के कांस्य पदक जीतने के बाद क्या क्रांतिकारी/असाधारण फैसले लिए या कदम उठाए? क्यों राष्ट्रीय मुक्केबाजी अकादमी की स्थापना नहीं की जा सकती थी? भिवानी को मुक्केबाजों की मंडी में तब्दील क्यों नहीं किया जा सकता था? क्यों इस अकादमी में अंडर-14 आयु वर्ग से कम लड़के-लड़कियों को दाखिला देकर अगले ओलंपिक के लिए तैयार नहीं किया जा सकता था ? क्या ये बेहतर विचार नहीं होता कि खेल मंत्रालय ग्रामीण क्षेत्रों में कुश्ती में प्रतिभा तलाशने का अभियान चलाता ? या फिर ग्रामीण क्षेत्रों में क्षेत्रीय या स्थानीय स्तर पर कुश्ती अकादमियों की स्थापना नहीं हो सकती थी? क्यों कुश्ती में अंडर-14 आयु वर्ग में लड़के-लड़कियों को तलाश कर राष्ट्रीय कुश्ती अकादमी की स्थापना नहीं हो सकती थी? क्यों नहीं अकादमी स्थापित कर विश्व स्तरीय कोचों के पैनल की नियुक्ति नहीं की जा सकती थी? अगर पिछली बार ही ऐसा हो गया होता, तो कौन जानता है कि भारत बॉक्सिंग और कुश्ती में और पदक लेकर आता ? क्यों खेल मंत्रालय अभी तक भारत के मुक्के के दम से अनजान है? क्यों उसे भारतीय मुक्के पर भरोसा नहीं है ? अगर नहीं है, तो मेरी सलाह है खेलमंत्री सहित मंत्रालय के तमाम वरिष्ठ अधिकारी 20 साल के मणिपुर के देवेंद्रो का मुकाबला (क्या सभी अधिकारियों ने देखा?) एक बार फिर से देखें…देवेंद्रो सिंह बेशक बीजिंग 2008 ओलंपिक के कांस्य पदक विजेता से हार गए..लेकिन देवेंद्रो के प्रचंड मुक्कों की तपिश, जज्बे और साहस को एक आम आदमी भी महसूस कर सकता है… क्यों मंत्रालय पिछली बार सुशील के कांस्य की चमक को महसूस नहीं कर सका..ये आश्चर्य की बात है..ये आम आदमी के खेल हैं…करोड़ों की संख्या वाले हिंदुस्तान में अनगिनत ऐसे युवा पहलवान और मुक्केबाज हैं, जो भविष्य में ओलंपिक में झंडा गाड़ सकते हैं…मंत्रालय को सिर्फ ठोस रणनीति बनाने और मजबूत इच्छाशक्ति के साथ इसके क्रियान्वन की जरूरत है।
बहरहाल भारत सरकार/खेल मंत्रालय अभी भी अपनी गलती सुधार सकता है, क्योंकि उसका और देश के करोड़ों खेलप्रेमियों का सौभाग्य ये है कि ये ‘बसंत ऋतु’ चार साल बाद भी जारी है…नहीं तो उन खेलों का हाल भी हाकी जैसा ही हो सकता है…एक बार को भारत सरकार/खेल मंत्रालय की खेलों के प्रति नीयत पर बेनिफिट ऑफ डाउट (संदेह का लाभ. क्या ये भी तो ज्यादा नहीं है ?) दिया जा सकता है, लेकिन उसकी तैयारी और रणनीति उऩ खेलों के प्रति शक के घेरे में है, जिनमें भारत पदक लेकर आया है…कोई ये भी कह सकता है कि प्लानिंग और रणनीति का न होना ही नीयत का सबसे बड़ा सबूत है…बहरहाल हर कोई जानता है कि अगर ये खिलाड़ी पदक लेकर आए हैं, तो इनमें सरकार की तुलना में इनकी अपनी और परिवार की मेहनत और त्याग कहीं ज्यादा है..सरकार तो ज्यादातर मौकों पर पदक जीतने के बाद करोड़ों की घोषणा कर इतिश्री कर लेती है…लेकिन बड़ा सवाल क्या इतने भर से इन खेलों का भला होगा? क्या इतने भर से 2016 ओलंपिक में पदक आना सुनिश्चित हो जाएगा ? बॉक्सिंग और कुश्ती वो खेल हैं, जिनमें भारत सुपर-पावर बन सकता है….अगर ध्यान दिया गया होता, तो सालों पहले ही ये उपलब्धि हासिल हो सकती थी…या नहीं ?…अगर सरकार/खेल मंत्रालय जागा हुआ होता, तो अभी तक इन खेलों में राष्ट्रीय अकदामी स्थापित हो चुकी होती….ओलंपिक में पदक और खेलों के लगातार विकास के लिए सिर्फ शिविरों और तैयारियों पर पैसा बहाना ही काफी नहीं है…वहीं निजी कंपनियां इन पदक विजेताओं को भुनाने के लिए तो आगे आईं…विजेंदर जैसे खिलाड़ी ने प्रायोजन से करोड़ों रुपये बनाए..लेकिन इन निजी कंपनियों ने मुक्केबाजी और कुश्ती को आगे ले जाने के लिए कुछ नहीं किया..एमआरएफ पेस अकादमी दो दशक में एक विश्व स्तरीय तो क्या, उम्दा तेज गेंदबाज तक पैदा नहीं कर सकी…लेकिन मुक्केबाजी और कुश्ती में भरोसा दिया जा सकता है कि अगर ये कंपनियां इन खेलों के विकास के लिए आगे आई होतीं, तो और ज्यादा बेहतर परिणाम देखने को मिलते..बहरहाल, भारत सरकार और खेल मंत्रालय/स्पोर्ट्स ऑथोरिटी ऑफ इंडिया/खेल संघों को अभी भी आंखें खोलने की जरूरत है….और आंखें खोलने की जरूरत निजी कंपनियों को भी है..सुशील, मैरीकॉम, योगेश्वर दत्त जैसे खिलाड़ी बार-बार उसे ये मौका दे रहे हैं…क्या आंखें खुलेंगी ?….एक बार फिर से कह रहा हूं कि खेलों में ‘बसंत ऋतु’ बार-बार नहीं होती ?
(मनीष शर्मा वरिष्ठ पत्रकार हैं के साथ–साथ बेहतर खिलाड़ी भी हैं। इन दिनों महुआ न्यूज में बातौर खेल संपादक खेल की वृहत दुनिया पर पैनी नजर रखे हुये हैं। )