मैं ऐसी फिल्मे बनाना चाहती हूँ जो दर्शको को मनोरंजन के साथ कोई न कोई सामाजिक संदेश भी दे: पायल कश्यप
बॉलीवुड यानी हिन्दी फिल्मो की दुनियां में एक लंबे अरसे से पुरूष निर्देशकों का बोलबाला था। जहां लाइट, कैमरा, एक्शन से लेकर पैक अप तक के सारे निर्देश पुरूष निर्देशकों के मोहताज थे। लेकिन विगत चार-पांच वर्षों में पुरूष निर्देशकों के मोनोपॉली को तोड़ते हुए कई महिला निर्देशकों का पदार्पण बॉलीवुड में हुआ। इन महिला निर्देशकों द्वारा न सिर्फ दर्शकों पर छाप छोड़ा गया, बल्कि रचनात्मक उपस्थिति का लोहा भी मनवाया गया। इन्ही निर्देशकों की फेहरिश्त में एक नाम शामिल है पायल कश्यप का। शोख, चुलबुली और बिंदास तथा कैमरे के पीछे खड़े हो पुरूष सत्तात्मक फिल्म के इतर नारी को शक्ति के प्रतीक के रूप में अपनी सोच के रुप में फिल्म गढ़ने को आतुर है। फिल्म ” गंगा की पुकार” से अपने निर्देशकीय पारी की शुरुआत करने वाली पायल इस समय अपने निर्देशकीय पारी की पांचवीं फिल्म दिल्ली गैंगरेप कांड पर आधारित निर्भया का इंसाफ को निर्देशित करने की आवश्यक तैयारी कर रही है। इसी फिल्म को लेकर पायल कश्यप से तेवर ऑनलाइन डॉटकॉम के लिए खास बातचीत की वरिष्ठ फिल्म एव टीवी पत्रकार राजू बोहरा ने ।
अपने निर्भया कांड को ही अपनीं अगली फिल्म के विषय के रूप में क्यों चुना ?
देखिये मुझे फिक्शन से ज्यादा फैक्ट अपील करती है। साथ ही रियलिस्टिक फिल्म बनाने से ऑडियन्स ज्यादा जुड़ाव महसूस करते है। इसके अलावे उन दिनों जब निर्भया कांड हुआ मैं दिल्ली में राजीव गांधी के जीवन पर एक डॉक्युमेंट्री शूट कर रही थी। अखबार व न्यूज चैनल के माध्यम से मैं निर्भया को समाज के विभत्स अंश के जघन्य करतूतों के कारण तिल तिल मरते देखा। सप्ताह भर तक अस्पताल में पड़े निर्भया के सिसकियों को सुना। इस घटना ने मुझे काफी उद्वेलित किया। घटना ने पूरे देश को झकझोर दिया। लेकिन देश के अलग अलग हिस्से में निर्भया कांड की पुनरावृति होती रही । मुझे लगा इस कांड को केन्द्र में रख एक ऐसी फिल्म का निर्माण हो जिसे देख कर फिर से कोई दरिंदा इस प्रकार की घिनौनी हरकत करने के पहले सौ बार सोचे। साथ ही निर्भया के परिवार वाले को अपेक्षित न्याय नहीं मिलने से मायूस मन के दुखते घावो को फिल्म के माध्यम से मरहम पट्टी करना भी एक कारण है।
तो फिल्म के माध्यम से आप समाज सेवा करना चाहते हैं ?
देखिये मेरा काम कहानी को पर्दे पर उतारना है। साथ ही मेरे फिल्म का एक अहम हिस्सा होता है मनोरंजन। मैं कहानी के माध्यम से कुछ कहना चाहती हूं। जिस कहानी का विषय दिल को छु जाता है उस कहानी को कहने के लिये तैयारी में लग जाती हूं। और रही बात समाज सेवा की तो मैं भी समाज का एक अंग हूं । सो मेरी भी यह जिम्मेवारी बनती है कि देश और समाज के लिये कुछ न कुछ करूं। मनोरंजन तो फिल्म देखने के वक्त तक होता है, जबकि संदेश आप अपने दिमाग के साथ घर तक ले जाते है। और इसी संदेश का समाज पर प्रतिकात्मक प्रभाव पड़ता है।
आप तो तेलगु भाषा की फिल्म भी कर रहें हैं?
जी हां। मैं न सिर्फ बटर थीप प्रोडक्शन की तेलगु फिल्म ‘ काल भैरवा’ को निर्देशित कर रही हूं, बल्कि उस फिल्म में मैं एक रोल भी कर रही हूं। मेरी नजर में सिनेमा की कोई भाषा नहीं होती। मैं कहानी सुनाना चाहती हूं, माध्यम कोई भी भाषा बने। और मैं बता दूं कि मैने अपने कैरियर की शुरूआत बतौर अभिनेत्री भोजपुरी फिल्मों से की है। बाद में निर्देशन की कमान संभालते हुए तीन भोजपुरी फिल्म निर्देशित की। फिल्म निर्भया का इंसाफ में भी एक ऐसा रोल करने वाली हूं , जो भले ही छोटा है लेकिन फिल्म के लिये टर्निंग प्वॉयन्ट होगा।
फिल्म निर्देशन, लेखन, अभिनय एवं नृत्य निर्देशन में आप सक्रिय है। लेकिन कई नावों की सवारी में खतरा भी तो है ?
हंसते हुए .. होने को तो कुछ भी हो सकता है। ऐसा भी हो सकता है कि जिस अकेले नाव की सवारी आप कर रहें हैं, उसमें भी छेद हो सकता है और आप की नाव डूब सकती है। अत: जो लाइफ में रिस्क उठाने का माद्दा नहीं रखता उसका लाइफ रिस्की हो जाता है । इसलिये मैं रिस्क उठा रही हूं । और एक रिस्क बहुत जल्द फिल्म निर्माता बन कर भी उठाने जा रही हूं।
आप निर्देशक तो है ही साथ ही सेट पर अभिनय भी कर लेती हैं। किसमें ज्यादा मजा आता है?
निर्देशन करने में एक खास तरह की अनुभूति होती है । सच कहूं तो निर्देशन मुझे अभिनय से ज्यादा रचनात्मक लगता है, पर यह अभिनय ही है जो मेरे रग रग में बसा मेरे वजूद का हिस्सा है और इसी ने मुझे एक खास पहचान दी।
पहले इंसपैक्टर हंटरवाली, अब निर्भया का इंसाफ आपकी फिल्में महिला प्रधान ही क्यों?
सौ वर्षों के सिनेमा इतिहास पर नजर डालेंगे तो पाते है कि कहानीकारों, फिल्मकारों ने स्त्री छवि को स्टीरियो टाइप अबला व कमजोर व्यक्तित्व का या यूं कह लीजिये ” नारी तेरी यही कहानी आंचल में है दूध आंखों में है पानी ” की तरह प्रस्तुत किया है। आज भी कुछ फिल्मों को छोड़ दें तो नायिका को महज शोपीस की तरह दिखायी जाती है। जब कि आज महिलाएं किसी भी क्षेत्र में पुरूषों से कम नहीं है। हमारे हुक्मरान भी आधी आबादी को 50% आरक्षण देने की बात कर रहें हैं। लेकिन सिनेमा आज भी जस की तस वाली स्थिति में है। और किसी न किसी को तो शुरुआत तो करनी ही है। मैं चाहती हूं कि रूपहले पर्दे पर एक बार फिर फिल्म अभिनेत्री नाडिया की हंटर की गूंज डॉल्बी साउण्ड में गुंजे,
आप आगे वर्तमान में किस तरह की फिल्मे बनाना चाहती है ?
मेरा विजन बिलकुल साफ ऐसी सामाजिक और मनोरंजक फिल्मे बनना चाहती हूँ जो दर्शको को मनोरंजन के साथ कोई न कोई सामाजिक सन्देश भी दे। मेरा मानना फिल्मे समाज का आइना होती है।