अंधेरों में गुम होना पड़ सकता है सुपर रियलिस्टिक डायरेक्टर रामगोपाल वर्मा को

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आलोक नंदन

फ्रेडरिक विल्हम नीत्से का प्रसिद्ध चरित्र जरथुष्ट्र अपने अनुयायियों  से कहता है, मैं तुम लोगों को प्यार करता हूं…बेहद प्यार करता हूं…इसलिए में चाहता हूं कि तुमलोग हमेशा युद्ध में रत रहो…शांति चाहो, लेकिन वह भी अल्पकालीन ताकि एक नई युद्ध की तैयारी कर सको..क्योंकि दुनिया में जो कुछ भी बेहतर वह सब युद्ध के बदौलत ही है। युद्ध साधन नहीं साध्य है। फ्रेडरिक विल्हेम नीत्से के जबरदस्त प्रशंसक राम गोपाल वर्मा अपने तरीके से संशोधन के बाद इसी मंत्र का इस्तेमाल फिल्म जगत में करते हैं, और यहां पर फिल्म उनके लिए साध्य हो जाता है। एक के बाद फिल्मों का निर्माण ही उनका उदेश्य हो जाता है। राम गोपाल वर्मा व उनकी फिल्मों को इसी संदर्भ में बेहतर तरीके से समझा जा सकता है।

जिस वक्त राम गोपाल वर्मा ने हिंदी फिल्म जगत में दस्तक दी थी उस वक्त हिन्दी फिल्म जगत एक लंबा सफर तय कर चुका था। विभिन्न कथ्य पर विभिन्न तरह के फिल्म बन रही थीं लेकिन सभी फिल्मों की मेकिंक स्टाईल कमोबेश एक जैसी ही थी। अपनी पहली फिल्म शिवा (1989) में रामगोपाल वर्मा कैमरे के साथ नये तरीके से खेलते हुये नजर आये और उनका यही प्रयोगवादी नजरिया उन्हें रातो रात हिंदी फिल्म जगत में एक स्पष्ट सोंच और समझ वाले फिल्म निर्देशक के तौर पर स्थापित कर दिया, और फिल्म जगत के तमाम तंत्रों को सुलझाते हुये वह एक के बाद निर्माता और निर्देशक के तौर पर फिल्मों की झड़ी लगाते रहे, और समय के साथ एक फिल्म स्कूल के रूप में उभर कर सामने आये। वर्तमान भारतीय फिल्म परिदृश्य को नेपथ्य से नेतृत्व करने वालों में अनुराग कश्यप,विशाल भारद्वाज, सुमित आमिन, मधुर भंडाकर आदि की फिल्मों पर रामगोपाल वर्मा का स्पष्ट प्रभाव है और ये लोग अपने कार्यों से रामगोपाल वर्मा स्कूल की फिल्म मेकिंग स्टाइल को ही स्थापित और विस्तारित कर रहे हैं।   

रामगोपाल वर्मा से पहले भारतीय फिल्मों में ढिशुम ढिशुम वाली फाइटिंग संस्कृति का जोरदार चलन था, जिसे प्रकाश मेहरा, मनमोहन देसाई जैसे फिल्म मेकरों ने अपने समय में अपने तरीके से नई ऊंचाईयां प्रदान की थी। अपनी पहली हिंदी फिल्म शिवा में रामगोपाल वर्मा ने ढिशुम ढिशुम वाली संस्कृति को तोड़ डाला और फाइटिंग सीक्वेंश को रियलिटी ग्राउंड पर खींच लाया। एक सीन में अपनी उंगलियों में लोहे का जबड़ लगाकर कालेज कैंपस के बाहर रहकर कालेज में दादागिरी को नियंत्रति करने वाले एक खलनायक के मुंह पर पड़ने वाला शिवा का एक घूंसा अब तक चले आ रहे लंबे ढिशुम ढिशुम फाइटिंग सीक्वेंश कहीं ज्यादा असरकारक था। कार के नाचते हुये पहियों को कवर करते हुये तमाम अच्छे और बुरे चरित्रों के कदमों के मूवमेंट को जिस नायाब अंदाज में उन्होंने फिल्माया था उससे दर्शकों के दिल और दिमाग में सिहरन सी हुई थी।

अपनी अगली फिल्मों में शाट टेकिंग की इसी शैली का विस्तार करते हुये उन्होंने दर्शकों को और भी रोमांचित किया। फिल्म सत्या (1998) का नायक सत्या अपराध की दुनिया में प्रवेश करते हुये एक होटल में एक अपराधी की हत्या करने के लिए सिर्फ एक गोली का इस्तेमाल करता है। हत्या के इस सीन में एक भी डायलाग नहीं है। इसी तरह इस फिल्म में भीखू मात्रे की भी हत्या होती है, भाऊ उसके भेजे में एक गोली मारता है और भेजा बाहर। फिल्म के अंतिम सीन में सत्या को पुलिसवाले  एक मकान में कुछ इसी अंदाज में मार गिराते हैं। इसके पहले फिल्मों खूब गोलियां चलती थी, यहां तक कि गोलियां लगने के बाद फिल्मी किरदार खड़े होकर लंबे समय तक डायलागबाजी भी करते थे, और कभी-कभी तो उसी अवस्था में खलनायक को मार भी डालते थे। गोली के असल इफेक्ट को रामगोपाल वर्मा ने भारतीय हिंदी फिल्म में बेहतरीन साउंड इफेक्ट के साथ दशर्कों के सामने रख कर मनोवैज्ञानिकतौर पर उन्हें खास घटना के करीब ला दिया।

मकबूल और ओमकारा में विशाल भारद्वाज फिल्म मेकिंग में रागोपाल वर्मा स्कूल के अघोषित व्याकरण को ही अपने तरीके से बढ़ाते हुये नजर आते है, चांदनी बार में मधुर भंडारकर इसी शैली पर आगे बढ़ते हैं, ब्लैक फ्राइडे में अनुराग कश्यप भी इसी शैली को निखारते हैं। हालांकि इसके साथ ही इनकी अपनी मौलिक सोंच भी कार्य कर रही थी, इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता है। लेकिन इन फिल्मों में गोली चलने के जितने भी दृश्य हैं अगर उनको एक साथ कंपाईल करके देखा जाये तो इफेक्ट के स्तर पर सभी दृश्य एक जैसा ही परिमाण देते हैं, दर्शकों को एक रियलिस्टिक टच का अहसास होता है। इन तमाम फिल्मों में मरने और मारने वाले चरित्रों के साथ वे अपने आप को खड़ा पाते हैं। इस लिहाज से यदि देखा जाये तो राम गोपाल वर्मा एक के बाद एक सिर्फ फिल्मों की संख्या ही नहीं बढ़ाते रहे, बल्कि फिल्म मेकिंग के गहन कार्य के दौरान अचेतनरूप से उनलोगों को भी प्रभावित करते रहते हैं, जो फिल्म मेकिंग के विभिन्न विभागों से जुड़ कर अपना कैरियर बनाने में लगे हुये रहते हैं, हालांकि कार्य करने का उनका तरीका पूरी तरह से पेशेवराना है।

कैमरा के साथ साउंड ट्रैक पर भी काम करते हुये राम गोपाल वर्मा एक नई लकीर खींचते हुये नजर आते हैं। पारंपरिक बैक ग्राऊंड म्यूजिक से इतर इस क्षेत्र में भी वह अपनी टीम के साथ खुलकर सफल प्रयोग करते हैं। फिल्म रात में जंगल में एक छोटी से नाले के पास रेवती जब अपनी नजरे ऊपर उठाती है, उस समय एक झटके वाले बैकग्राउंड म्युजिक का प्रयोग किया जाता है, और फिल्म का हीरो बड़बड़ाकर पानी में गिरता है और दर्शक एक अजीब भय से रोमांचित हो जाते हैं। फिल्म भूत के अपार्टमेंट के अंदर पुराने स्टाईल वाली कालबेल की आवाज सिहरन पैदा करती है।

पारंपरिक रूप से फिल्म को एक व्यवसाय माना जाता है। इस लिहाज से बाक्स आफिस पर कलेक्शन ही फिल्म की सफलता और असफलता का तात्कालिक मापदंड है। रामगोपाल वर्मा की कई फिल्में बाक्स आफिस पर बेजोड़ कमाई कर चुकी है, और कई फिल्मों को दर्शकों ने नकारा भी है। रामगोपाल वर्मा की आग व्यवसायिक तौर पर रोमगोपाल वर्मा के लिए घातक साबित हुई, फैक्टरी युग का अंत हो गया। लेकिन फिल्मों को बनाने का सिलसिला जारी है।

अपनी फिल्मों में रामगोपाल वर्मा ने अगल-बगल के परिवेश को दिखाया है, जो वास्तविकता का अहसास कराता है। फिल्म शिवा की कहानी एक कालेज में चल रही गुंडागर्दी से शुरू होकर शहर के पूरे तंत्र को अपने आप में समेट लेती है और फिल्म का नायक न चाहते हुये ला एंड आर्डर को दुरुस्त करने के लिए अपने तरीके से इसे अपने हाथ में ले लेता है और अंत में अपनी पत्नी को गवां बैठता है।

इस फिल्म में एक जगह शिवा कहता है, अगर वो इंट से मारेंगे तो मैं इसका जवाब पत्थर से दूंगा ! सारी सर, मैं गांधी नहीं हूं ! इस संवाद में शिवा की मानसिकता खुलकर सामने आती है, और यही मानसिकता 80 के दशक के अंत के भारतीय युवाओं को पूरी मजबूती से अपनी ओर आकर्षित करती है। राजनीतिकतौर पर रामगोपाल वर्मा गांधी के अहिंसावाद के मूल्य के विपरित जाकर युवाओं को शिवा के माध्यम से संबोधित करते हुये एक व्यवहारिक आर्दश स्थापित करते हुये नजर आते हैं। इस फिल्म के एक सीन में शिवा नेता बने परेश रावेल से कहता है, यहां से निकल जाओ नहीं तो चप्पले मार कर निकलूंगा। तुम नेता लोग ही ला एंड आर्डर को बिगाड़ते हो। शिवा वर्तमान ला आर्डर को ही दुरुस्त करने में अपने आप को झोंके हुये रहता है, हालांकि उसकी यह लड़ाई व्यक्तिगत स्तर पर शुरु होती है और इसका खात्मा भी शहर के नामी गुंडे भवानी के खात्मा के साथ व्यक्तिगत स्तर पर होता है। इस फिल्म ने कालेज के जीवन शैली और युवा मस्तिष्क को जोरदार तरीके से प्रभावित किया था। चकाचक जूतों का स्टाईल कालेजों में खूब लोकप्रिय हुआ था, और इस फिल्म का प्रभाव कालेजों की फाइटिंग शैली पर भी पड़ा था।     

इसके 10 साल बाद बनी सत्या में मुंबई के अपराध जगत को मानवीय दृष्टिकोण से प्रस्तुत किया गया था। भीखू मात्रे जब जेल छुटकर देर रात को  सत्या के साथ अपने घर आता है तो उसकी पत्नी उसके साथ उलझ पड़ती है। भीखू मात्रे सत्या से कहता है, तु गाड़ी लेके जा, यह औरत का झमेला है देर रात तक चलेगा। कथ्य के स्तर पर रामगोपाल वर्मा सत्या में एक बेहतरीन प्रयोग करते हुये नजर आये, जिसे दर्शकों ने खूब पसंद किया। अब तक हिन्दी फिल्मों में अपराध जगत को पूरे तामझाम के साथ दिखाने का प्रचलन था। रागोपाल वर्मा ने सहज मानव%E