अराजकता का बेहतर सपूत है उत्सव शर्मा है
अराजकता के कुछ नार्म्स हैं, कुछ लक्षण हैं, जो लोक व्यवहार में दिखाई पड़ते हैं और एक साथ कई चीजों को डैमैज कर चुके होते हैं या करने की प्रक्रिया में होते हैं या फिर अपनी ही परिभाषा गढ़ चुके होते हैं। घर, मुहल्ले, गली, चौक-चौराहों, कोर्ट-कचहरी, रेलवे-स्टेशन लगभग सभी सार्वजनिक और गैर-सार्वजनिक स्थलों पर ये नार्म्स पूरी तरह से इस्टैबलिश मिलेंगे, बस इनको आईडेन्टीफाई करने के लिए थोड़ा सा एटेंशन की मुद्रा में होना चाहिये और आईक्यू लेवल थोड़ा ज्यादा होना चाहिए। राज्य स्तर पर व्याप्त आराजकता को मापने के कुछ अलग तौर तरीके हैं। बेकाबू अपराध, फाइनेंनसियल घोटाले, सामूहिक हत्याएं आदि के जरिये अराजकता की पहचान की जा सकती हैं. ये अराजकता के लक्षण हैं।
कलेक्टिव साइकोलाजी और लोगों के टाकिंग में भी इससे महसूस किया जा सकता है। लोग ज्यादातर किन विषयों पर बातचीत करते हैं, और चीजों को बोल चाल में व्यक्त करने का उनका लहजा कैसा होता है। तमाम तरह के धरना प्रदर्शनों को नाटक नौटकी मान सकते हैं, हालांकि डेमोक्रेटिक तरीके से ये धरने प्रदर्शन अराजकता को ही दिखाते हैं। क्योंकि इनका सीधा प्रभाव ट्रैफिक और दुकानों पर पड़ता है, जो अंतत : आम जीवन के रफ्तार को रोकते हैं।
दिल्ली तो मानों पिछले एक दशक से फाइनेंसियल घाटालों का केंद्र ही बना हुआ है, और कई राज्य भी इस मामले में दिल्ली का कान काटने में लगे हुये हैं। बाहरी धन को लेकर तो लगातार शोर गुल मचा रहता है। संसद की बैठकें तो वनवास काट रही हैं, एक ससंसदीय निकाय जेपीसी के गठन को लेकर। जहां तक सामूहिक हत्याओं की बात है तो ये दिल्ली में भी हुई हैं, गुजरात में भी, बिहार, बंगाल, उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र में भी। नार्थ इस्ट के सेवन सिस्टर राज्यों में यह दौर चलता रहा है और चल रहा है।
एक अराजक राज्य में ईश्वर और ईश्वर के पुतले भी खूब बवाल काटते हैं, और इनके पीछे एक पूरा तंत्र कुटुंब के रूप में छोटे-छोटे तंतुओं से जुड़े होते हैं। इनके टकराव को धार्मिक नारों के रूप में सुना और समझा जा सकता है। धक्का-मुक्की को रक्तपात में बदलते देर नहीं लगता बस थोड़ी हवा उड़ाने की जरूरत होती है। देवालयों के टनटनाहट और घड़घड़ाहट को सुनकर जितने लोग जमा होते हैं उससे अधिक लोगों को अपनी नींद गंवानी पड़ती या फिर गहरी नींद में होते हैं तो उन्हें चौंककर जागना पड़ता है। इस तरह राज्य के अंदर एक छोटी सी दिखने वाली सत्ता जमीनी स्तर पर राज्य से बड़ी हो जाती है और राज्य के व्यवहार को भी अपने अनुकूल ढालने लगती है या फिर ढाल लेती है। तमाम तरह के धार्मकि जलसों को नियंत्रित करने में लगी पुलिस इसका सबसे बेहतरीन उदाहरण है।
यदि सभ्य भाषा में कहा जाये तो लोग स्वभाव से ही सहनशील होते हैं। औरा थोड़ा सा ब्रूटल तरीका अपनाया जाये तो कहा जा सकता है कि स्वभाव से ही लोग डरपोक होते हैं, क्योंकि डरने के सारे साजो समान एकत्र करने में ही उनकी सारी एनर्जी जाती है और फिर यही डर उनकी जिंदगी के तौर-तरीकों में शामिल हो जाता है। उनकी पूरी जिंदगी इसी डर में उंघते हुये निकलती है। डर के सारे साजो समान वे पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित करते जाते हैं, और इसके साथ अराजकता भी। इस तरह से अराजकता एक संस्कृति का रूप ले लेती है। सरकार बदलती है, लेकिन राज्य नहीं। संस्कृति के बदलाव में कई फैक्टर्स काम करते हैं। इंटरनल और एक्सटर्नल संघर्ष व सामंजस्य महत्वपूर्ण हैं।
कभी-कभी व्यक्तिगत प्रयास से भी सामूहिक अराजकता को तुफान अंदाज में रिफ्लेक्ट किया जाता है और इस तरह का रिफ्लेक्शन अराजकता की खतरनाक स्थिति को ही दिखाता है। उदाहरण के तौर पर उत्सव शर्मा को ले सकते हैं। एसपी राठौर और तलवार के साथ दूर दूर तक लेना-देना नहीं है। फिर वो पूरी शक्ति के साथ इन दोनों पर आक्रमण करता है, और न्याय की पूरी प्रक्रिया को सिरे से खारिज कर देता है। मानसिक तौर पर बीमार कह कर उत्सव शर्मा की सोंच पर सवाल उठाया जा सकता है, लेकिन इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि अपनी जान को जोखिम में डालकर उसने वही किया जो उसे न्यायसंगत लगा। न्याय की प्रक्रिया से लोगों का विश्वास उठना भी अराजकता को ही सूचित करता है। अराजकता का बेहतर सपूत है उत्सव शर्मा है।
अराजकता का दौर कहां से खत्म होता और कहां से शुरु कह पाना थोड़ा मुश्किल है। फिलहाल तो ग्लोबलाइजेशन का सेकेंड फेज है, और लोगों की आंखें चुंधिआई हुई हैं। ऐसे में फ्लैट, गाड़ी, फ्रीज, गीजर, आडियो-विडियो सेट, कांडम आदि के अलावा कुछ और देखने की कोशिश आपको पिछड़े की कतार में खड़ा कर देगा।
Alok Nandan Ji,
“ऐसे में फ्लैट, गाड़ी, फ्रीज, गीजर, आडियो-विडियो सेट, कांडम आदि के अलावा कुछ और देखने की कोशिश आपको पिछड़े की कतार में खड़ा कर देगा।”
यह पंक्ति सुझाव है या सच को देखने की कोशिश, मैं नहीं समझ पाया ।