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प्रेम के लिए झा से पासवान बनने वाले वेदानन्द का शतक

पश्चिम के सरकोजी और उनकी प्रियतमा कार्ला ब्रूनी के उत्कट प्रेम देख पूरब के भारत-वासी सुखद अनुभूति से भर उठे । विकिलिक्स दस्तावेजों में कमजोर पुरूष कहे जाने से बेपरवाह …पत्नी बन चुकी कार्ला से सरकोजी की प्रतिबद्धता ने बहुतों को चौंकाया। कुछ ही दिन पहले फ्रांसीसी राष्ट्रपति निकोलस सरकोजी जब भारत आए तो ताजमहल देख लेने की उनकी चाहत छुपाए नहीं छुप रही थी। इस बार कार्ला भी साथ थी। प्रेम के अनुपम प्रतीक ताजमहल देखने के बाद उन्होंने राहत का इजहार किया। दिल की हसरत पूरी हुई । इतना संतोष उन्होंने भारत से हुए समझौतों पर भी नहीं जताया।

टोकना टोल की खुशबू …. जो कि दो महीने बाद दसवीं क्लास में जाएगी …. इन बातों से निहायत ही अनजान है। उसे नहीं पता कि सरकोजी साल 2008 में जब भारत आए तो प्रोटोकॉल की वजह से कार्ला को साथ नहीं ला पाए थे …. तब तक वे परिणय सूत्र में कहाँ बंधे थे। खुशबू को इसका भी अंदाजा नहीं कि सरकोजी तब कितनी टीस लेकर लौटे होंगे। खुशबू …अखबार नहीं पढ़ती…पर उसके दादा यानि झा-पासवान तो घर में ही हैं। फिर भी उसे अहसास नहीं कि उसके दादा ने जो साहसिक कदम उठाया था उसके क्या मायने हैं ? अपने दादा-दादी की प्रेम कहानी पर बार-बार कुरेदने पर भी वो हैरान नहीं होती …उल्टे ये बोध कराती रही कि उनका पारिवारिक-सामाजिक जीवन बिलकुल सामान्य है। उलझन भरे सवालों को सुन खुशबू की दादी यानि गोदावरी देवी सहट कर पास आई। कुछ ही पलों में गोदावरी की यादें परत-दर -परत खुलती जा रही थी….उधर झा-पासवान पशुओं के चारे के लिए कुट्टी काटने में मग्न रहे।

संघर्ष के दिनों को याद करते हुए गोदावरी बताती हैं कि उनका बालपन समस्तीपुर जिले के मैनका गाँव में बीता। खेत- खरिहान में काम करते हुए वो कब सयानी हो गई—पता नहीं चला। मधुबनी जिले के भेजा गाँव में बहन ब्याही गई थी जिस कारण गोदावरी का वहां आना-जाना लगा रहता। उन दिनों मैनका के पासवान जाति के मजदूर मधुबनी जिले के इस इलाके में काम पर लाये जाते थे। इसी दौरान मैनका में ही वेदानन्द झा की मुलाकात गोदावरी से हुई। वेदानन्द , मधुबनी जिले के बाथ गाँव के जमीन-जथा वाले गृहस्थ रहे …लिहाजा मजदूरों को लाने अक्सर मैनका जाते। गोदावरी भी इन मजदूरों में शामिल होती।

सिलसिला चलता रहा…और दोनों में प्रेम के अंकुर फूटने लगे। चेहरे पर चंचल मुस्कान बिखेरते गोदावरी कहती है की तब तक वो इन मजदूरों की मेंठ बन चुकी थी। प्रेम पूर्णता के लिए व्याकुल होने लगा… मिलन की महक चरम आनंद को दस्तक देने लगी। दोनों का साथ बाथ के लोगों को रास नहीं आया। पहले से विवाहित वेदानन्द ने घर-परिवार त्यागने का अहम् फैसला ले लिया।

इस बीच गोदावरी से मिलने महिला मंडल विकास योजना के सदस्य आ गए। वो उनसे बात-चीत में मशगूल हो गई। तब जा कर पता चला कि चौथी क्लास तक पढ़ी गोदावरी समाज सेवा से भी वास्ता रखती हैं। इधर वेदानन्द पशुओं के चारे का इंतजाम कर चुके थे। पास आए और ये सोच कि कोई सरकारी अमला आया है…. निधोक होकर हर-संभव सहयोग की गुजारिश करने लगे। परिचय-पात के बाद उनके चेहरे का भाव बदला। थोड़ी ही देर में वो अपने जीवन के रोमांचक क्षणों में गोता लगा रहे थे। गोदावरी को लेकर जब वे घर से निकल पड़े तो उनके सामने ठौर की समस्या मुंह बाए खड़ी थी। सारी संपत्ति छोड़ आए थे….जीवन पहाड़ सा लगने लगा। जगह-जगह भटकने के बाद टोकना टोल ने इन्हें आसरा दिया।

रहुआ और भेजा गाँव के बीच बसा है टोकना टोल। मुख्य सड़क के किनारे स्थित इस टोल में दुसाध जाति के 50 परिवार रहते हैं। एक तरफ रहुआ गाँव है जो प्रगति की रफ़्तार में ठहराव झेल रहा है। इसी ऐतिहासिक गाँव में पारसमणि मंदिर परिसर है …जहाँ कभी संत लक्ष्मी-नाथ गोसाईं ने तपस्या की थी। इस परिसर के आस-पास की अविरल शांति संत के अनुयाइयों को पुकारती रहती है। लेकिन मुख्य मंदिर की मूर्ती चोरी होने के बाद से यहाँ चहल-पहल ख़त्म सी हो गई है। दूसरी तरफ भेजा गाँव है जो कोसी नदी के पश्चिमी तट-बाँध पर बसा है। सरकारी कारिंदे यहाँ रहते हैं लिहाजा शुद्ध देहाती आवरण के बीच विकास के बिन्दू दिखेंगे। तट-बांध के पूरब हर साल आने वाले विदेशी पक्षियों के झुण्ड कलरव करते दिखे। ये पक्षी यहाँ आते हैं….प्रजनन करते…और जब नए मेहमान उड़ने लायक हो जाते ….लौट जाते हैं अपने देस। पर वेदानन्द लौटने नहीं आए थे। आस्था और समर्पण का मूर्त रूप रहुआ और चलायमान जिन्दगी की धमक सुनाने वाला भेजा ..मानो उन्हें उथल-पुथल से लड़ने की प्रेरणा दे रहे थे।

अतीत को खंगालते वेदानन्द कहते हैं कि पासवान समाज ने उन्हें स-शर्त पनाह दी थी। पूरे मधेपुर ब्लाक के पासवान समाज के प्रमुख लोग टोकना टोल में जमा हुए….बैठक हुई। इसमें वेदानन्द को ब्राह्मण से दुसाध बन जाने की शर्त रखी गई। कहा गया कि वे ” झा” के साथ ” पासवान” शब्द भी अपने उपनाम में जोड़ें….जनेऊ का त्याग करें। ये भी शर्त रखी गई कि होने वाले बच्चों के उपनाम पासवान ही रहेंगे। उद्वेग की इस घड़ी ने वेदानन्द और गोदावरी को और करीब ला दिया। दोनों के बीच प्रेम का संबल था ….और थी निर्वाह की प्रबल भावना।

झा-पासवान की कथा सुनते हुए भोजपुर अंचल के मडई दूबे और सुगमोना की अमर दास्तान जेहन में उमड़ने लगी। भोजपुर के सलेमपुर गाँव के रहने वाले मडई ब्राह्मण थे जबकि सुगमोना डोम जाति की । सुगमोना के प्यार में ऐसे बंधे कि मडई ब्राह्मण से डोम बनने के लिए भी तैयार हो गए। इलाके में हाहाकार मच गया। मडई को कठिन परीक्षा के दौर से गुजरना पड़ा। श्मशान घाट पर उनसे वो सारे काम करवाए गए जो डोम जाति के किसी शख्स को करना होता था। मडई किंवदंती बने। उनकी गाथा पर “पिरितिया के खेल” नामक फिल्म भी बनी पर वो विवादों में फंस गई। झा- पासवान ने मडई की कथा नहीं सुनी है …वो अपने जीवन में उठे झंझावातों को याद करते हैं।

मडई की तरह झा-पासवान ने भी ऐतिहासिक कदम उठाया और मिथिला के रुढ़िवादी ढाँचे से लोहा लिया। झा-पासवान जानते थे कि अंतरजातीय विवाह के लिए भारतीय मानस उर्वर नहीं है। उन्हें इसका भी आभास था कि ऐसी शादियों के पीछे जाति क्रम में ऊपर जाने की लालसा प्रबल रही है। वो इसके विपरीत कदम उठाने जा रहे थे। जाति व्यवस्था के शीर्ष पायदान से सीधे निचले क्रम में जाने का उन्होंने साहस दिखाया। दुसाध बनने के लिए उन्हें भी कठिन परीक्षा देनी पड़ी। इसके बाद ही पंचों ने उन्हें अपने समुदाय की हिस्सा कबूल किया।

कर्पूरी ठाकुर को अपना आदर्श मानने वाले वेदानन्द इलाके में झा-पासवान के नाम से ही जाने जाते हैं। गोदावरी से उन्हें तीन बेटे हैं जिनके उपनाम पासवान हैं। ये बच्चे जनेऊ नहीं पहनते और इनकी शादी भी पासवान समाज में ही हुई है। वेदानन्द कहते हैं कि बाथ गाँव में उनके वहिष्कार के बावजूद उनके भाई-बंधु कभी-कभार टोकना टोल आते हैं और अपनी भावज मसे बात करते हैं।

जाति बदलने के बावजूद अपने उपनाम में झा शब्द रहने के सवाल पर उन्होंने कहा कि ऐसा युवा वर्ग को प्रेरणा देने के लिए किया। वेदानन्द ने खुलासा किया कि हाल में बनी निर्वाचन सूची में उन्होंने अपने उपनाम से “झा” शब्द भी हटा लिया है। यानि अब वे खालिस वेदानन्द पासवान हो गए हैं। झा से झा-पासवान और फिर झा-पासवान से पासवान तक की यात्रा कितनी दुष्कर रही होगी…एक चक्र पूरा हुआ। उनके चेहरे की झुर्रियां इस पर संतोष वयां कर रही थी। घर के माहौल में अब कुछ भी “अजीब” नहीं है……….खुशबू शायद इसी का बोध करा रही होगी।

वेदानन्द पासवान की मानें तो 2011 में वे सौ साल पूरे करेंगे। सेंट वलेंटाइन डे को उत्सव मनाने वाले भारतीय युवा प्रेम के ऐसे देसी संतों को भी याद करें। निज मामलों में निश्छल सरकोजी तो ताज तक खिंचे चले आए….फिर प्रेम का उत्कर्ष दिखाने वाले देसी प्रतीकों से हमें परहेज क्यों? मडई हैं….और जीवित झा-पासवान भी हैं। सौवें साल में प्रवेश के लिए झा-पासवान को शुभकामनाएँ तो दी ही जा सकती हैं।

संजय मिश्रा

लगभग दो दशक से प्रिंट और टीवी मीडिया में सक्रिय...देश के विभिन्न राज्यों में पत्रकारिता को नजदीक से देखने का मौका ...जनहितैषी पत्रकारिता की ललक...फिलहाल दिल्ली में एक आर्थिक पत्रिका से संबंध।

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