भारत में FDI की जरुरत
FDI (प्रत्यक्ष विदेशी निवेश) को लेकर भले ही मुख्य विपक्षी दल सरकार से खफ़ा हो मगर FDI के लिए यूपीए सरकार का लगातार संघर्ष देश में FDI की जरुरत और जमीनी हकीकत को टटोलने पर विवश करता है। हमें सोचना चाहिए कि प्रत्यक्ष विदेशी निवेश पर सरकार का संघर्ष केवल आश्वासनों के समीकरण पर तो नहीं चल सकता। इसके पीछे अन्य कोई वजह है, और वह वजह क्या है, इसे सोचने, समझने और जानने की जरुरत है।
भारत की चरमराई अर्थव्यवस्था किसी से छुपी नहीं है, इसका अंदाजा इसी आधार पर लगाया जा सकता है कि वर्ष 2008-09 में भारत का वित्तीय घाटा सकल घरेलू उत्पाद का 6.2 फीसदी रहा था और राजस्व घाटा वित्तीय घाटे का 75.2 फीसदी हो गया था। वर्ष 2009-10 में वित्तीय घाटा जीडीपी का 6.6 फीसदी था और राजस्व घाटा वित्तीय घाटे का 80.7 फीसदी हो गया था। जिसके कारण महंगाई निरंकुश हो गई तथा जिसे रोकने की सरकार लगातार कोशिशें करती रही, मगर यूपीए सरकार, यहाँ तक कि बतौर अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री भी इस संकट को रोकने में असमर्थ रहे। आर्थिक विषयों पर शोध करने वाली एजेंसी ‘क्रिसिल’ ने अपनी शोध से एक रिपोर्ट पेश की जिसके अनुसार – वर्ष 2008 से 2011 तक मंहगाई के कारण देश के सभी वर्गों के लोगों की जेबों से तकरीबन छः लाख करोड़ रूपये अधिक खर्च हुए, इसका मतलब साफ है कि लोगों पर यह अतिरिक्त बोझ पड़ा और इसका कारण भारतीय निवेशकों द्वारा भारत की अपेक्षा विदेशों को ज्यादा तवज्जों देना रहा। वर्ष 2011 की ही बात करें तो भारतीय निवेशकों ने भारत की अपेक्षा विदेशों में करीब 44 अरब डालर का निवेश किया, जबकि भारत में भारतीय निवेशकों का निवेश महज 18 से 20 अरब डालर का रहा।
कहा जा सकता है कि जब अपने अपने न रहें तब गैरों से उम्मीद जगती है और यही हुआ। भारत सरकार ने भारतीय निवेशकों से अच्छी खासी उम्मीद की मगर जब हमारे निवेशक हमारी सरकार के विचारों पर खरे न उतर सके तब भारत के पास FDI ही वह युक्ति बची जिससे गिरती आर्थिक साख को थामा व मजबूत किया जा सकता है।
बहरहाल, आम आदमी की हितैषी बनी भाजपा सहित अन्य सियासी पार्टिया विशुध्द रूप से राजनीति कर रही है। मगर हम सभी भारतीयों को सोच समझ कर निर्णय लेने की जरूरत है।
-अक्षय नेमा मेख
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