रक्षा-बंधन(कविता)

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अनुजय प्रताप सिंह ‘रवि’,

तू जिस रूप में है मेरी बहना।

तेरी रक्षा है मुझको करना।

माँ बहन बेटियां या पत्नी।

क्यूँ बेटियाँ ही हैं घृणा।

रक्षा का है कैसा बंधन।

ये आबरू ही उसका गहना।

केवल है धागा ही बचा।

जब करना ही है उससे घृणा।

खलती है सबको बेटियाँ।

फिर माँ को अब न माँ कहना।

वो भी किसी की बेटी ही।

बेटी से ना नफरत करना।

जिस रूप में है मेरी बहना।

तेरी रक्षा है मुझको करना।

रक्षा  का  है  वादा तूझसे।

धागा नहीं वादा करना ।।

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सदियों से इंसान बेहतरी की तलाश में आगे बढ़ता जा रहा है, तमाम तंत्रों का निर्माण इस बेहतरी के लिए किया गया है। लेकिन कभी-कभी इंसान के हाथों में केंद्रित तंत्र या तो साध्य बन जाता है या व्यक्तिगत मनोइच्छा की पूर्ति का साधन। आकाशीय लोक और इसके इर्द गिर्द बुनी गई अवधाराणाओं का क्रमश: विकास का उदेश्य इंसान के कारवां को आगे बढ़ाना है। हम ज्ञान और विज्ञान की सभी शाखाओं का इस्तेमाल करते हुये उन कांटों को देखने और चुनने का प्रयास करने जा रहे हैं, जो किसी न किसी रूप में इंसानियत के पग में चुभती रही है...यकीनन कुछ कांटे तो हम निकाल ही लेंगे।

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