
कठपुतली बनने के बजाय अपने भविष्य की सोचे—
डॉ.ओ.पी. मिश्र
( वरिष्ठ पत्रकार, लखनऊ )
आज हम हम किधर जा रहे हैं? कहां जा रहे हैं और क्यों जा रहे हैं? यह बात मैं इसलिए कह रहा हूं क्योंकि देश का वर्तमान चित्र बहुत ही पीड़ा दायक है। वायू मे बगावत की बू आ रही है तो धरती के ऊपर एक अजीब सी अविश्वास भरी सनसनाहट सुनाई दे रही है। तो उसके अंतराल में महाविनाश के गड़गड़ाहट भी गूंज रही है। भूखा इंसान कब अपना ईमान बदल दे कुछ कहा नहीं जा सकता। दिग्भ्रमित तथा ब्रेन वाश वाला नौजवान कब किस पर हमला कर दे, गाली दे दे कुछ पता नहीं।
उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव तो 2027 में प्रस्तावित है लेकिन चुनाव जीतने के लिए जमीन समतल करने का काम शायद राजनीतिक दलों ने उसमें सत्तारूढ दल भी शामिल है अभी से शुरू कर दिया है। ऐसे में हमें इस बात की पूरी उम्मीद की जानी चाहिए कि उत्तर प्रदेश में कुछ भी हो सकता है। आगरा में सपा सांसद राम जी लाल सुमन के घर पर जो धावा करणी सेना ने बोला था जिसमें उसका बाल भी बांका नहीं हुआ था। अब आहिस्ता-आहिस्ता आगे बढ़ता जा रहा है।
इसका एक नमूना पिछले दिनों इटावा जनपद में देखने को मिला जहां अहीर रेजिमेंट के लोगों ने पुलिस के हाथों के तोते उड़ा दिए। अब यह अलग बात है कि अहीर रेजिमेंट के दर्जन भर दिग्भ्रमित नौजवानों को गिरफ्तार कर जेल भेजा जा चुका है। अभी इटावा का तनाव जो ब्राह्मण बनाम यादव था वह ठंडा भी नहीं पड़ा था कि रविवार को प्रयागराज के करछना में आजाद सेना के दिग्भ्रमित रणबाकुरो ने मोर्चा संभाल लिया। आगरा का दलित बनाम ठाकुर प्रयागराज पहुंचते पहुंचते दलित बनाम प्रशासन हो गया। इससे पहले ब्राह्मण बनाम पाल भी हो चुका है और आगे भी इस बात की पूरी संभावना है कि यह चलता रहेगा।
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के क्षेत्र में भी ब्राह्मण बनाम ठाकुर का बाजार गर्म है यह गर्मी कोई नई नहीं है बल्कि एक लंबे अरसे से चली आ रही है सिर्फ किरदार बदल जाते हैं। इसका एक नमूना पिछले दिनों उस समय देखने को मिला जब उत्तर प्रदेश विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष माता प्रसाद पांडे गोरखपुर पहुंचे जहां उन्हें भाजपा के लोगों द्वारा बुलडोजर खड़ा करके रोका गया। जिंदाबाद, मुर्दाबाद, गो बैक के नारे लगे। पांडे जी ने तो यहां तक आरोप लगाया कि अगर वे गाड़ी से बाहर निकलते तो कुछ भी हो सकता था।
सपा प्रमुख अखिलेश यादव को अंततः कहना पड़ा की हाता नहीं सुहाता। क्योंकि यह राजनीतिक दलों को सूट भी करता है और बेवकूफ तथा जातिवाद की भावना से ग्रसित बेरोजगार तथा शिक्षित नौजवानों को भी हाथ साफ करने का मौका भी देता है। रविवार को ही मुझे एक समाचार पढ़ने का मौका मिला यह खबर इटावा के बकेवर डेट लाइन से प्रकाशित हुई थी। समाचार में रेनू दुबे नामक एक शिक्षिका ने आरोप लगाया कि उसे विद्यालय से इसलिए हटा दिया गया क्योंकि विद्यालय संचालक यादव है। जानते चले की दादरपुर वहीं गांव है जहां यादव जाति के भागवतचार्यो पर जाति छुपाने का आरोप लगाते हुए दुर्व्यवहार किया गया था। दुर्व्यवहार करने वाले चूंकि ब्राह्मण थे इसलिए इस बार डी एल इंटरनेशनल स्कूल निवाड़ी में पढ़ने वाले ब्राह्मण शिक्षिका रेनू दुबे को हटा दिया गया। यह तो अभी एक घटना है जो प्रकाश में आई है। इस तरह की अनगिनत घटनाएं सामने आने वाली है। क्योंकि राजनीतिक दल और सत्ता दल ने मिलकर पहले समाज को धर्म के आधार पर, हिंदू मुस्लिम के बीच बांटने का भरपूर प्रयास किया। जिसमें उन्हें काफी हद तक सफलता भी मिली। लेकिन जब उससे पेट नहीं भरा तो अब समाज को जाति के नाम पर बाटा जा रहा है और हमारा बेरोजगार दिग्भ्रमित तथा ब्रेन वाश से निकला नौजवान बिना अपने तथा अपने परिवार के भविष्य की परवाह किए उनके हाथों की कठपुतली बनकर अपना जीवन बर्बाद कर रहा है।
मैं या नहीं कहता कि पहले जातिवाद नहीं था, धर्मवाद नहीं था, लेकिन सही मायने में इसकी पहचान 2014 के बाद ही हुई है। भाजपा की एक सांसद के मुताबिक भारत वास्तव में 2014 में ही आजाद हुआ है। लेकिन यह कैसी आजादी है जो एक दूसरे के खून की प्यासी बन चुकी है। एक जमाना था कि डॉक्टर और वकील की प्रैक्टिस उसकी योग्यता और अनुभव के नाम पर चलती थी लेकिन आज डॉक्टर और वकील की भी पहचान जाति के नाम पर की जा रही है। भले ही उनको कुछ ना आता हो। लेकिन चूंकि उनकी बिरादरी का है इसलिए उनकी प्राथमिकता वही है। आज ना तो मीडिया सरकार से सवाल पूछ रही है और ना ही शिक्षित बेरोजगार सरकार से सवाल कर पा रहा है। क्योंकि सरकार ऐसा वातावरण बना रही है जिसमें सवाल जवाब नहीं बल्कि हिंदू मुस्लिम की बात हो, ऊंच-नीच की बात हो अगडे पिछड़े की बात हो। पीडीए की बात हो, दलित और पिछड़े की बात हो। अपनी सरकार की उपलब्धियां कि नहीं बल्कि पूर्ववर्ती सरकारों की असफलताओं की बात हो। सत्ता दल के नेताओं के भाषण में अपनी सरकार की नहीं, डबल इंजन सरकार की नहीं बल्कि पूर्ववर्ती सरकारों की चर्चा हो। तभी तो मैंने शुरू में ही सवाल उठाया था कि हम जा कहां रहे हैं? हम कर क्या रहे हैं?
पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई के शब्दों में यदि संकटो का नाजायज फायदा उठाकर सत्ता दल ने अपनी राजनीतिक गोटिया लाल करने की प्रक्रिया ऐसे ही चालू रखी तो जन क्षोम के ज्वालामुखी को भटकने से रोक पाना सर्वथा असंभव होने के साथ ही हमारी लोकतांत्रिक पद्धति को भी नष्ट होने से बचाया न जा सकेगा। पूर्व प्रधानमंत्री ने कहा था की आकर्षक नारे लगाकर , पानी की तरह पैसा बहाकर, शासन तंत्र का खुला दुरुपयोग करके सत्ता पर कब्जा करना असंभव नहीं है। लेकिन सत्ता किसके लिए? क्या सत्ता, सत्ता के लिए या समाज परिवर्तन के लिए ? क्या सत्ता केवल उपभोग के लिए? क्या सत्ता काल पात्र में दबाए गए इतिहास में अपना नाम लिखवाने भर के लिए? या दूसरे के नाम कटवाने भर के लिए? क्या सत्ता मात्र अहम की संतुष्टि के लिए? आखिर सत्ता का प्रयोजन क्या है? उसी बात को एक बार पुनः मै अपने शब्दों में दोहराता हूं कि सत्ता क्या धर्म के नाम पर, जाति के नाम पर, भाषा के नाम पर, संप्रदाय के नाम पर, दलित और गैर दलित के नाम पर सिर्फ और सिर्फ वह वैमनस्य फैलाने के लिए है, उन्माद फैलाने के लिए है? जातीय हिंसा को बढ़ावा देने के लिए है या बेरोजगार, नौजवानों को नौकरी और रोजगार देने के लिए? महंगाई पर अंकुश लगाने के लिए? भ्रष्टाचार पर सख्त कदम उठाने के लिए? जीरो टॉलरेंस की चर्चा मात्र करने के लिए, सबको शिक्षा और सबको स्वास्थ्य की सुविधा देने के लिए या फिर सत्ता बनी रहे इसके लिए, सारी सरकारी एजेंसियो और मीडिया को बस में करने के लिए? आखिर सत्ता किसलिए?