हिंदी फिल्मों की खाद भी है, खनक भी है और संजीवनी भी है खलनायकी(पार्ट-2)
अमजद खान तो कामेडी भी करने लग गए। लव स्टोरी और चमेली की शादी की याद ताज़ा कीजिए। खैर अब फ़िल्मों का ट्रेंड भी बदल रहा था। मल्टी स्टारर फ़िल्मों का दौर तो था ही, एंटी हीरो का भी ज़माना आ गया। अब खलनायक और कामेडियन दोनों ही खतरे में थे। यह अमिताभ बच्चन के स्टारडम का उदय और उन के शि्खर पर आ जाने का समय था। वह स्मगलर, मवाली और जाने क्या क्या बन रहे थे। कालिया से लगायत…..। वह खलनायकों वाले काम भी कर रहे थे और कामेडियनों वाला भी। उन के आगे तो सच कहिए हीरोइनों के लिए भी कोई काम नहीं रह गया था। सिवाय उन के साथ चिपट कर गाने या सोने के। एक नया ही स्टारडम था यह। जिस में सिवाय नायक यानी अमिताभ बच्चन के लिए ही काम था। बाकी सब फ़िलर थे। मदन पुरी और रंजीत, कादर खान और शक्ति कपूर जैसे बिचारे खलनायक ऐसे परदे पर आते, इस बेचारगी से आते गोया वह अभिनय नहीं कर रहे हों किसी नदी में डूब रहे हों और डूबने से बचने के लिए उछल कूद या हाय-तौबा मचा रहे हों। कि अस्सी के दशक में आई अर्धसत्य।ओमपुरी के पलट बतौर खलनायक आए सदाशिव अमरापुरकर। ओमपुरी सरीखे अभिनेता पर भी भारी। पर बस याद ही रह गई उन के अर्धसत्य के अभिनय की। बाद में वह अमिताभ बच्चन के ही साथ आखिरी रास्ता और धर्मेंद्र के साथ भी एक फ़िल्म में आए पर जल्दी ही वह भी चरित्र अभिनेता की डगर थाम बैठे। पर यह देखिए इसी अस्सी के दशक में एक फ़िल्म आई शेखर कपूर की मिस्टर इंडिया। और मिस्टर इंडिया में अवतरित हुए मुगैंबो, ! गब्बर की धमक के वज़न में ही यह मुगैंबो भी छा गया परदे पर। और सचमुच लगा कि जैसे हिंदी फ़िल्मों में खलनायकी की वापसी हो गई है। हुई भी। प्राण के बाद अगर खलनायकी की इतनी सफल इनिंग किसी ने हिंदी फ़िल्म में खेली है तो वह अमरीशपुरी ही हैं जो मदनपुरी के छोटे भाई हैं। अमरीशपुरी मिस्टर इंडिया में हिंदी फ़िल्मों के लिए कोई नए नहीं थे, वह पहले ही से हिंदी फ़िल्मों में थे। और श्याम बेनेगल की निशांत और भूमिका जैसी फ़िल्मों में खलनायक रह चुके थे। तमाम और फ़िल्मों में उन्हों ने छोटी बडी तमाम भूमिकाएं की थीं पर मिस्टर इंडिया में जो उन का खलनायक शेखर कपूर ने उपस्थित किया वह अविरल ही नहीं महत्वपूर्ण और नया मानक भी बन गया। इतना महंगा कस्ट्यूम हिंदी फ़िल्म के किसी खलनायक ने नहीं पहना था, न ही इतना स्पेस किसी खलनायक को हिंदी फ़िल्म में मिल पाया था। कहते हैं कि फ़िल्म बजट का एक बड़ा हिस्सा अमरीशपुरी के कास्ट्यूम पर खर्च किया गया था। उतना कि जितना अमरीशपुरी को पारिश्रमिक भी नहीं मिला था। इतना चीख -चिल्लाने वाला खलनायक भी हिंदी सिनेमा पहली बार देख रह था। फिर तो अमरीशपुरी ने पीछे मुड़ कर नहीं देखा। हां वह ज़रूर चरित्र भूमिकाओं में भी बार-बार दिखे। और सचमुच मेरे लिए यह कह पाना कठिन ही है कि वह खलनायक की भूमिका में ज़्यादा फ़बते थे कि चरित्र भूमिकाओं में। मुझे तो वह दोनों में ही बेजोड़ दीखते थे। पर बावजूद इस सब के उन का मोगैंबो उन पर भारी था यह भी एक सच है।
परेश रावल भी कभी बेजोड़ खलनायक बन कर उभरे। पर जल्दी ही वह भी चरित्र भूमिकाओं मे समा कर रह गए। उन्हों ने अभिनय के अजब गज़ब शेड हिंदी फ़िल्मों में परोसे हैं जिन का कोई सानी नहीं है। अमानुष जैसी कुछ फ़िल्मों में खलनायक की भूमिका में उत्त्पल दत्त की भी याद आती है। पर बाद में वह भी चरित्र भूमिकाओं में आने लगे। यही हाल कादर खान और शक्ति कपूर जैसे खलनायकों का भी हुआ। वह भी कामेडी से लगायत सब कुछ करने लगे। नाना पाटेकर की परिंदा और मनीषा कोइराला के साथ वाली फ़िल्मों में वह खलनायक के ज़बरदस्त शेड ले कर उपस्थित हुए। पर वह भी चरित्र अभिनेता ही बन गए। अनुपम खेर भी कर्मा में डा डैंग की भूमिका में आए और वापस वह भी चरित्र अभिनेता हो गए। मोहन अगाशे, पुनीत इस्सर, अरबाज़ खान जैसे तमाम अभिनेता हैं जिन्हें खलनायक के बजाय चरित्र अभिनेता की राह ज़्यादा मुफ़ीद लगी।
आशुतोष राणा ने भी खलनायकी में नई इबारत दर्ज़ की है। तो मनोज वाजपेयी ने सत्या और रोड में रामगोपाल वर्मा के निर्देशन में खलनायकी की एक नई भाषा रची। पर मौका मिलते ही वह भी नायक बनने के शूल में बिंध गए। पर शूल ने भी हिंदी फ़िल्मों को एक नया और हैरतंगेज़ खलनायक दिया। रज़ा मुराद ने भी खलनायकी में अपनी आवाज़ बुलंद की है। डर्टी मैन फ़ेम गुलशन ग्रोवर और गोगा कपूर भी याद आते हैं। पर जाने क्या बात है कि ज़्यादातर खल चरित्र जीने वाले अभिनेता या तो नायक हो गए या चरित्र अभिनेता। कभी यह सोच कर हंसी भी आती है कि क्या आगर रावण या कंस सरीखे लोग भी इस हिंदी फ़िल्म के चौखटे में आते तो क्या वह भी चरित्र अभिनेता तो नहीं बन जाते बाद के दिनों में?
खैर यहां यह जानना भी खासा दिल्चस्प है कि कुछ चरित्र अभिनेताओं ने भी खलनायकी के पालने में पांव डाले हैं। और तो और सीधा-साधा और अकसर निरीह चरित्र जीने वाले अभिनेता ए.के. हंगल ने भी खलनायकी की भूमिका की है। एक दीवान के रुप में राजकाज पर कब्जा जमाने के लिए इस खूबसूरती से वह व्यूह रचते हैं कि कोई उन पर शक भी नहीं करता और वह कामयाब होते भी दीखते हैं पर जैसी कि हिंदी फ़िल्मों की रवायत है आखिर में उन का भेद खुल जाता है। हंगल के खलनायक का इस फ़िल्म को फ़ायदा यह मिला कि सस्पेंस आखिर तक बना रहा। वह सस्पेंस जो कभी हमराज या वह कौन थी जैसी फ़िल्मों में क्रिएट किया जाता था। कुछ नायकों ने भी कभी कभार खलनायकी की भूमिका में अपने को सुपुर्द किया है और कामयाब भी खूब हुए हैं। जैसे कि ज्वेल थीफ़ में अशोक कुमार। दर्शक आखिर तक सस्पेंस की अनबूझ चादर में फंसा रहता है।
फ़िल्म के आखिरी दृष्यों में राज़ फास होता है कि ज्वेल थीफ़ तो अपने अशोक कुमार हैं। अमिताभ बच्चन भी अक्स में खलनायकी को बखूबी निभाते हैं तो शाहरुख खान डर में खलनायक बन कर खूब डराते हैं। ऐसे ही अजय देवगन कंपनी में खलनायकी का रंग जमाते हैं। सनी देवल भी खलनायक बन जाते हैं तो संजय दत्त तो खलनायक फ़िल्म मे खलनायकी के लिए कई शेड्स बिछाते हैं। इतने कि हीरो लगने लगते हैं और गाने भी लगते हैं कि नायक नहीं खलनायक हूं मैं ! वास्तव में भी उन की खलनायकी का सिक्का खूब खनखनाता है।
खलनायकी की बात हो और अपनी आधी दुनिया की बात न हो तो बात कुछ जमती नहीं है। ललिता पवार , बिंदु, शशिकला या अरुना इरानी ने अपने खल चरित्रों को जिस तरह से जिया है और अपने चरित्रों के लिए जो नफ़रत दर्शकों में बोई है उस का भी कोई जवाब है नहीं। काजोल की खल भूमिका की भी याद ज़रूरी है। बात फिर वही कि बिना खलनायक के नायक नहीं बनता। तो फ़िल्म चाहे जैसी भी हो खलनायक के बिना न उस की नींव तैयार होगी न ही उस की नैया पार लगेगी। प्रतिनायक की यह भूमिका हमारी हिंदी फ़िल्मों की संजीवनी भी है, इस से भला कौन इंकार कर सकता है?
(समाप्त)
[हमार सिनेमा से साभार]
पूरी खलनायकी की पड़ताल। बढिया!