आधी आबादी, भरपूर सियासत !

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अनिता गौतम,

वर्तमान समय में पूरे देश में महिलाओं की स्थिति और हर क्षेत्र में उनकी भागीदारी पर चौतरफा बहस हो रही है। महिला-पुरूष की बराबरी और महिलाओं की सामाजिक और राजनीतिक क्षेत्रों में भागीदारी, साथ ही उनके हक की बातें और आर्थिक स्वतंत्रता का समर्थन, यह राष्ट्रीय स्तर का मुद्दा बना हुआ है। तारीफ इस बात की है कि वर्तमान राजनीति में महिलाओं के हक की बात तो सभी करत हैं, पर जब भी ऐसी किसी योजना को जमीन पर उतारने की बात होती है, सभी के सुर बदल जाते हैं।

महिला पुरूष की बराबरी और महिलाओं की हक की बात बढ़ चढ़ करने वाले भी अपने दोहरे रवैये का प्रमाण देने में पीछे नहीं रहते हैं। देश में आकड़ों की सच्चाई को ही यदि आधार बनाया जाये तो बात बिल्कुल पानी की तरह साफ हो जाती हैं कि देश में देवी देवताओं की पूजा में स्त्री शक्ति का जहां ग्राफ जहां बहुत ऊपर है, वहीं हकीकत में महिलाओं की स्थिति एक दम उलट है।

बल, बुद्दि, विद्या और धन पर हिन्दू शास्त्रों में देवी रूपों के अधिकार की कल्पना भले की गई हो परन्तु धरातल पर आज भी अधिकांश महिलायें इन सबके लिये पुरूष प्रधान समाज के सामने अबला बनी हुई हैं। देश में राजनीतिक पटल पर शुरू से ही महिलाओं की भागीदारी कम रही है, पर समय के साथ शिक्षा और आर्थिक स्वतंत्रता की आड़ में महिलाओं ने अपना वजूद तलाशना शुरू किया, तब राजनीति ही नहीं अमूमन हर क्षेत्र में महिलाओं ने आत्मविश्वास के साथ अपने कदम रखे। सामाजिक रूढिवादिता, पुरूषवादी समाज, पूर्वाग्रह और उपभोग की सोंच से इतर महिलाओं ने गरीबी और अशिक्षा जो उनकी प्रगति में सबसे बड़े बाधक थे, पर लगाम लगाने की पहल की।

हाशिये पर होने वाली महिलाओं ने मुख्य धारा में आने के लिये स्त्री विमर्श जैसे विषयों को हवा दी। स्त्री विमर्श ने महिलाओं की स्थिति में कितने सुधार किये यह बहस का विषय है पर इस पर चर्चा और निराकरण के पक्ष और विपक्ष में लॉबी जरूर बन गयी। स्त्री विमर्श सिर्फ चर्चा और बहस की बस्तु बन कर ही रह गया। अपने आप को इस सुगढ़ विचारधारा से वर्तमान समाज भी प्राचीन काल की व्यवस्था से बाहर नहीं निकाल पाया।

स्त्री की स्वतंत्रता यानि समाजिक व्यवस्था में आराजकता, अनाधिकारिक रूप से कुछ ऐसी ही मानसिकता अब भी झलक जाती है।

जाहिर है किसी भी समुदाय की राजनीतिक भागीदारी उसकी सामाजिक हिस्सेदारी को तय करती है। इसी भाव के साथ महिलाओं ने अपनी राजनैतिक इच्छा शक्ति को दृढ़ किया ताकि वे भी पुरूषों की बराबरी में अपने आपको खड़ी कर सकें। इसके लिये आवश्यकता पड़ी संविधानिक पहल की, यानि आरक्षण की बैसाखी की। परंतु यह महिलाओं का दुर्भाग्य ही है कि पिछले कई सालों से सरकारें तो बहुत बदली, महिलाओं की स्थिति पर आंसू तो बहुत बहाये गये पर किसी भी राजनेता या राजनैतिक दल ने इस 33 प्रतिशत के महिला आरक्षण बिल को पास कराने की न जरूरत समझी और न ही जहमत उठाई।

उनके लिये तो यह तुरूप का पत्ता बना हुआ है, महिलाओं के जख्मों पर मरहम लगाने का और उन्हें अपने साथ वोट की खातिर जोड़े रखने का। राजनीतिक चेतना की बात करें तो साफ तौर पर यह स्वीकार किया जाता है कि महिलायें पुरूषों से काफी आगे हैं। घर और गृहस्थी की दीवार में भी महिला शक्ति को कम करके नहीं आंका जा सकता है। यही वजह है कि हर राजनैतिक दल आज वोट के लिये तो महिलाओं को लुभाने की कोशिश करते नजर आते हैं, पर जब भी किसी दल या समुदाय के नेतृत्व की बात आती सभी बगले झाकते नजर आते हैं। यहां भी उनका दोहरा चेहरा सामने आ जाता है।

साफ शब्दों में, महिलाओं के अधिकार की बातें तो आगे रहती हैं पर उनके लिये नेतृत्व के मौके नहीं के बराबर। बहरहाल महिला संगठन, महिला अधिकार, महिला सशक्ति-करण या महिलाओं को आत्म निर्भर बनाने की बड़ी-बड़ी बातें राजनेताओं और राजनीति का सबसे असरदार मुद्दा हो सकती हैं, पर ईमानदार समीक्षा और आंकड़ों के आधार पर इस सच से इनकार नहीं किया जा सकता है कि आज भी राजनीतिक भागीदारी या हिस्से दारी में महिलायें पूरी तरह से हाशिये पर ढकेल दी गई हैं।

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