कैसे बनती और टूटती हैं मन्यताएं

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सुधीर राघव

मान्यताओं को लेकर लोगों में यह भ्रम है कि मान्यताएं सामूहिक ही होती हैं। मगर ऐसा नहीं होता। वह किसी भी व्यक्ति के जेहन से निकलती हैं और छूत की बीमारी की तरह तेजी से फैलती हैं। हर मान्यता के पीछे व्यक्तिगत अनुभव और भ्रम होते हैं, जब वह व्यक्ति उन्हें प्रचारित करता है तो कुछ और लोग अपने अनुभव और भ्रम से उनसे जु़ड़ते चले जाते हैं, इस तरह मान्यताएं सामूहिक हो जाती हैं। इसे एक उदाहरण से स्पष्ट करना चाहूंगा। आप का कोई काम नहीं हो रहा है। दो महीने से आप काफी परेशान हैं। काम ऐसा है कि कोई मदद करने वाला भी नहीं दिख रहा। आप मदद के लिए रोज किसी न किसी से कहते हैं। पर कुछ नहीं हुआ है। आप जिस रास्ते से गुजरते हैं, उसमें एक कीकर का पेड़ हैं। एक दिन आपके मन में विचार आता है। आप उस पेड़ के पास रुकते हैं। उस पर एक रुपये का सिक्का चढ़ाते हैं और मदद के लिए कहते हैं। कुछ दिन बाद आपका काम हो जाता है। आप खुश हैं और आश्चर्यचकित हैं। यह पेड़ सचमुच मदद करता है, आपकी पहली मान्यता बनती है, जिसके पीछे आपका काम हो जाने का प्रत्यक्ष अनुभव है। आप यह बात अपने मित्रों-दोस्तों को बताते हैं। कुछ ही महीनों बाद आप देखते हैं कि उस कीकर के पेड़ के पास धर्मस्थल बन रहा है, संभव है कि इसके लिए सहयोग करने वालों में आप भी सबसे आगे हों। इस तरह से व्यक्ति की मान्यताएं भी सामूहिक मान्यताएं बनती हैं।

 

झगड़े की जड़ कैसे

पर यह तय है कि मान्यताएं हमारे विवेक पर पर्दा डालती हैं और झगड़े भी कराती हैं। इसे एक उदाहरण से और अच्छी तरह से समझा जा सकता है। एक बच्चा मां के पास जाता है और अपने घर की ओर इशारा करके पूछता है मां यह किसका घर है। मां कहती है बेटा यह तुम्हारा ही घर है। बेटा कहता है, अच्छा यह मेरा घर है। उसका मन अब इस बात को मान लेना चाहता है कि यह उसका घर है। पर कुछ शक है। वह पिता के पास जाता है और पूछता है पापा क्या यह मेरा घर है। पिता कहता है हां बेटा यह तुम्हारा ही घर है और उसकी मान्यता दृढ़ हो जाती है।

अब उसकी मान्यता है कि यह मेरा घऱ है। अब वह अपने भाई के पास जाता है और कहता है भाई यह मेरा घर है। उधर भाई भी उसी माता-पिता की संतान है और उन्हीं परिस्थितियों के बीच बड़ा हो रहा है, इसलिए उसके पास भी यह मान्यता पहले से है कि यह मेरा घर है। इसलिए भाई खंडन करता है कि नहीं छोटे यह मेरा घर है। छोटा कहता है नहीं मेरा है। दोनों झगड़ा करते हैं। रोते हुए मां-बाप के पास जाते हैं, तब मां-बाप कहते हैं, बच्चो यह हमारा घर है। हम सबका घर है। दोनों बच्चों को पहले तो समझ नहीं आता कि मां-बाप अब झूठ बोल रहे हैं, या पहले झूठ बोल रहे थे, मगर उनकी पहली मान्यता टूटती है। उनका भ्रम टूटता है। यह मान्यता आसानी से इसलिए टूट जाती है क्योंकि जिनकी वजह से यह मान्यता पैदा हुई थी उन्होंने ही इसका खंडन कर दिया। इसलिए बच्चों के पास मानने के अलावा कोई चारा नहीं था। तर्क-कुतर्क की गुंजाइश भी नहीं।

समाज में मान्यताएं इसलिए आसानी से नहीं टूट पातीं क्योंकि समाज का कोई माई-बाप नहीं होता। इसलिए समाज में मान्यताओं के लेकर झगड़े हजारों साल तक चलते रहते हैं। धर्म को लेकर जुड़ी मान्यताओं में ऐसा हो रहा है। उन्हें जिसने शुरू किया, वह हमारे बीच है नहीं, तब जो खंडन करेगा वह नया झगड़ा ही पैदा करेगा। किसका ईश्वर श्रेष्ठ है, यह फैसला कभी नहीं होने वाला। क्षेत्रीय तौर पर इसका फैसला यह होता है कि जहां जिसके अनुयायी अधिक होते हैं, उसी का ईश्वर भी श्रेष्ठ होता है। जहां संख्या बराबरी की होती है या मुकाबले में ठीक-ठाक होती है तो झगड़े ज्यादा होते हैं।

साभार  http://sudhirraghav.blogspot.com/

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