गर्मी, बस्ता और बेहाल बच्चे
कभी सरकारी विद्यालयों और गांव के स्कूलों में यह जुमला बहुत प्रसिद्ध था कि … “भोंदू विद्यार्थी के बस्ता भारी…” पर आज तो हर विद्यार्थी इन भारी बस्तों के बोझ तले अपना बजूद तलाश रहा है।
नौनिहाल और पीठ पर भारी-भारी बस्ते, आखिर किस गुनाह की सजा दी जाती है इन मासूमों को। सुबह की सैर के वक्त आप इन बच्चों की बेबसी देख सकते हैं। फिर भरी दोपहरी में जब बच्चे स्कूल की छुट्टी की घंटी के बाद भी बिना किसी भाव के बोझिल चाल से अपनी पीठ किसी पिट्ठू की तरह आगे की तरफ झुकाये अपने कंधे से भारी बस्ता और हाथ में पानी का बोतल थामें घर या किसी सवारी की तरफ बढ़ते दिख जाते हैं। पीठ पर कापी-किताबों के भारी बोझ को देखकर सहज अंदाजा लगाया जा सकता है कि कोई भी नियम और कानून इन नौनिहालों के लिए फिक्रमंद नहीं है। समय समय पर कितने कानून इन बच्चों को बस्ते से निजात दिलाने के लिए बनते रहे हैं, पर सभी इन्हें भारी बस्ते से निजात दिलाने के लिए नहीं वरन् स्वयं ठंढ़े बस्ते में जाने के लिए विवश हो गये। पीठ पर लदे ये भारी बस्ते इन बच्चों को कितना शिक्षित कर रहे यह तो कहना मुश्किल है पर एक समस्या जो इन पर चौतरफा वार कर रही है, वह है पीठ की मांसपेशियों में जीवन भर के लिए दर्द का होना। जब कभी इस तरह की कोई शिकायत किसी चिकित्सक के पास जाती है तो वहां से भी सिर्फ एक चेतावनी के रूप में इसे समझाकर इतिश्री कर ली जाती है। इस छोटी उम्र में जब कि बच्चों का शरीर स्वयं परिवर्तित होता है, उसपर पीठ पर लादे गये इन भारी भारी बस्तों से पीठ के दर्द और मांसपेशियों के खिंचने का खतरा कई गुना बढ़ जाता है। शारीरिक और मानसिक तनाव में बच्चों का प्राकृतिक ग्रोथ बाधित हो रहा है इसे चिकित्सक और मनोचिकित्सक भी नकार नहीं पाते, पर शिक्षा का ताना बाना उन्हें इसमें दखल देने की इजाजत नहीं देता।
समय समय पर जो भी अध्ययन रिपोर्ट और सर्वे रिपोर्ट पारित होते रहते हैं उनकी अगर गहनता से जांच की जाये तो एक ही बात निकल कर सामने आती है कि यदि बस्ते का वजन बच्चे के वजन से 10-12 फीसदी से ज्यादा है, तो पीठ के दर्द होने का अंदेशा बढ़ जाता है। इतना ही नहीं आगे चलकर यह दर्द गंभीर रूप भी ले सकता है और बच्चे के लिए ता उम्र इस बीमारी से छुटकारा पाना मुश्किल हो सकता है। पर सर्वविदित है कि बच्चों के बस्ते का वजन आज 8 से 10 किलों तक मापा जा सकता है। इस तरह के भारी बस्ते बच्चों में न केवल पीठ और मांसपेशियों के दर्द के रूप में सामने आ रहे हैं बल्कि एक अलग तरह का तनाव भी बच्चों के सामाजिकरण में बाधा बन रहा है। अमूमन तीन से चार साल के बच्चों का प्ले स्कूल के नाम पर नामांकन होता, पर कब उनका बस्ता इतना भारी हो जाता स्वयं बच्चों के माता-पिता को भी पता नहीं चलता। विद्यालय प्रशासन को इन सारी बातों से कोई लेना देना नहीं, उन्हें तो बस एक रूटीन चलानी है किताबों को प्रतिदिन स्कूल लाने के स्दर्भ में, पर उन्हें इसकी कोई फिक्र नहीं कि बच्चों के विषय भले नहीं बदल रहें और बढ़ रहें पर इन बढ़ते बच्चों के बढ़ते क्लास के साथ उनकी किताबों का वजन अवश्य बढ़ रहा है। बच्चों के स्वास्थ की जांच के नाम पर लोग बच्चों का वजन करवा लेते पर कभी इनके बस्तों के वजन की आवश्यकता नहीं महसूस की गई। जबकि कानूनन इन के बस्ते का वजन 4 से 6 किलों अधिकतम तय है। फिर भी इनकी तकलीफ कोई नहीं सुनने वाला और इन्हें अपने अधिकारों का ज्ञान नहीं क्योंकि ये तो अपने उसी अधिकार को जानने और समझने के लिए अपने इस बस्ते को ढो रहे हैं। शारीरिक श्रम के रूप में एक ऐसी सजा पा रहे जिसमें यह कहा जा सकता कि इन्हों ने कोई गुनाह किया ही नहीं।
बहरहाल नौनिहालों को बस्ते से निजात दिलाने का तो कोई रास्ता दूर दूर तक नहीं दिखता पर कुछ तकनीकी कदम उठा कर इनके बस्ते के वजन को कम किया जा सकता है। मसलन दो–तीन प्रमुख विषयों को रोज न पढ़ाकर दो घंटी लागातार या फिर एक दिन में दो बार पढ़ाना, मोटी किताबों को लाइट वेट बाइंडिंग करवाना, कॉपियों में मोटी जिल्द की बजाय सादी रखना, सात या आठ पिरियड में खेल, संगीत और दूसरी गतिविधियों के लिए जगह बनाना, आदि आदि। साथ ही छोटे बच्चों को प्राथमिक स्तर तक सप्ताह में दो दिन की छुट्टी यानि रविवार और शनिवार की। इन चंद कदम से शिक्षा की गुणवत्ता पर कोई खास असर नहीं पड़ेगा पर यदि बच्चों के सर्वांगिण विकास की बात करें तो उनके लिए हमें सामाजिक और शारीरिक दोनों के लिए समान रूप से फिक्रमंद होने की जरूरत है।
जब हम लोग पढ़ते थे तब ऐसा नहीं था। किताब -कापियों पर घर में ही बासी कागज से जिल्द चढ़ाते थे। अब दफ्ती की कापियाँ-स्कूल व होम वर्क की अलग-अलग होती हैं और स्कूल से ही खरीदनी पड़ती हैं। यह सब शिक्षा की दुकानों के मुनाफे के हिसाब से है देश के भावी नागरिकों के कल्याण के ख्याल से नहीं।
एक बहुत ही मार्मिक पहलू आपने इस रिपोर्ट में छुआ है अनिता जी. किस तरह आपका आभार व्यक्त करूँ…! आपने आपने बालमन की दुखती पीड़ा को सहलाया है. आपने समाज के उस वर्ग की मूक भावनाओं को आवाज दी है जिनके अभिभावक भी जिन्हें प्रतियोगिता बाजार की एक मशीन मात्र समझते हैं.