इन्फोटेन
फिल्मों को नई दिशा दी इटली की ‘नियो रियलिज्म’ ने
विश्व सिनेमा के इतिहास में इटली की ‘नियो रियलिज्म’ और फ्रांस की ‘न्यू वेव मूवमेंट’ की फिल्में व्यववसायिक फिल्मों के दायरे से निकल कर न सिर्फ एक नई लकीर खींचने में कामयाब रही है, बल्कि दुनिया के अन्य हिस्सों में अर्थपूर्ण फिल्मों के निर्माण के लिए व्याकुल कई बेहतरीन हिदायतकारों को भी गढ़ती रही है। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान चारों तरफ तबाही और बर्बादी का मंजर आम था। चूंकि यूरोपीय शक्तियां इस युद्ध में खुलकर शिरकत कर रही थीं, इसलिए पूरा यूरोप ही जंग का मैदान बना हुई था। इसका प्रभाव यूरोप की फिल्म कंपनियों पर भी पड़ रहा था।
बमबारी के माहौल में फिल्म बनाना दुष्कर हो गया था। बमबारी की वजह से कई फिल्म स्टूडियों मलबों के ढेर में तब्दील हो गये थे, भारी भरकम खर्च के साथ आउट लोकेशन पर भी शूटिंग करने का रिस्क लेने की स्थिति में यूरोप की व्यवसायिक फिल्म कंपनियां नहीं थी। ‘मित्रराष्टÑ’ और ‘धुरी राष्टÑ’ का गठबंधन एक दूसरे के मुल्कों को तबाह करने पर तुला हुआ था, और इसका स्पष्ट प्रभाव फिल्म निर्माण कंपनियों पर पड़ रहा था। तमाम व्यवसायिक फिल्म कंपनियां हांफ रही थी। हर विध्यंस के पीछे निर्माण छिपा होता है। विध्वंस के इसी दौर में इटली में ‘नियो रियलिज्म’ मूवमेंट आकार ले रहा था। राबेर्टो रोसेलिनी, विटोरियो डी सिका, सेसर जावाटीनी, लूसीनो विस्कोन्टी, गियूसेपे डी सैन्टिस, सूसो सेसही डी एमिको और फेडेरिको फेलिनी जैसे फिल्मसाज और हिदायतकार युद्ध में झुलसी हुई जिंदगी और उसके विभिन्न रूपों को पर्दे पर उसी रूप में रखने की जद्दोजहद कर रहे थे, जैसी वह थी। और उनका यह अंदाज अब तक के स्थापित व्यवसायिक फिल्मी व्याकरण को हर स्तर पर तोड़ते हुये विश्व सिनेमा के इतिहास में एक नई धारा बना रही थी।
इटली में ‘नियो रियलिज्म’ की शुरुआत फासिस्ट नेता मुसोलिनी के पतन के बाद हुई। इसके पहले इटली में आलोचनात्मक राजनीतिक अलेख लिखने पर प्रतिबंध था। लूसिनो विस्कोन्टी, गियानी पुसीनी, जावेटीनी, डी सैंन्टिस एक फिल्म पत्रिका में जिसका संपादक तानाशाह मुसोलिनी का बेटा विटोरियों मुसोलिनी था, फिल्मों पर आलोचनात्मक आलेख लिख कर अपनी खीज मिटाते थे। इटली की लोकप्रिय फिल्में जिन्हें ‘व्हाइट टेलिफोन’ कहा जाता था की ये लोग अपने आलेखों में जमकर धज्जिया उड़ाते थे। 1945 में मुसोलिनी के पतन के बाद ये लोग फिल्म निर्माण के क्षेत्र में सक्रिय हुए। युद्ध के बाद की इटली की स्थिति को रियल लोकशन पर इन लोगों ने शूट करना शुरु कर दिया।
1946 में राबर्टो रोसेलिनी की फिल्म ‘रोम, ओपेन सिटी’‘कान्स फिल्म फेस्टिवल में ग्रैन्ड पाइज हासिल करके पूरी दुनिया का ध्यान आकर्षित करने में सफल रही। ‘रोम, ओपेन सिटी’ने ‘नियो रियलिज्म’ के सिद्धांतों को स्थापित करने का काम किया था। इस फिल्म में रोम पर जर्मन कब्जा के बाद वहां के लोगों के दिन प्रति दिन के संघर्ष को दिखाया गया था। अपने जीनव को पटरी पर लाने की कोशिश करते हुये वे लोग हर संभव तरीके से जर्मनी का विरोध कर रहे हैं। इस फिल्म में मुख्य भूमिका एक बच्चे की थी जो वर्तमान को देखते हुये मुस्तकबिल के प्रति आशावान है।
इस दौर में बनने वाली फिल्मों में गरीबी और भुखमरी के दौर को शिद्दत से दिखाया गया था। मुसोलिनी के बाद इटली की नई सरकार इस तरह की फिल्मों को लेकर नाक भौं सिकोड़ रही थी। चूंकि उस वक्त इटनी नव निर्माण की प्रक्रिया से गुजर रहा था, इसलिए वहां की सरकार चाहती थी कि ऐसी फिल्में बने जो लोगों को नव निर्माण के लिए प्रेरित करे। गरीबी और निराशा को पर्दे पर उकेरने के खिलाफ सरकार फिल्मसाजों को आगाह कर रही थी। नियो रियलिज्म पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुये डी गासपेरी कैबिनेट के उप मंत्री गिलियो एंड्रेओटी ने कहा था, ‘यह गंदा कपड़ा है जिसे साफ करके खुली हवा में नहीं सुखाना चाहिए।’
बाद के दौर में पत्रकारिता से निकल कर फिल्म की दुनिया में कदम रखने वाले फेडरिको फेलिनी ने परिस्थिति में पड़े हुये किरदारों के विभिन्न अयामों को अपनी फिल्मों में बहुत ही रोचक तरीके से प्रस्तुत करके लोगों को दंग कर दिया। फेलिनी की प्रारंभिक फिल्में ‘सेकेंड बिडॉन’ और ‘ला स्ट्राडा’ में युद्ध के बाद इटली का बदलता हुआ समाज मजबूती से दिखाई देता है।
नियो रियलिज्म के प्रारंभिक दौर में सामूहिक रूप से मानवीयता पर अधिक जोर दिया गया था। चूंकि उस समय युद्ध का तात्कालिक प्रभाव था, पूरा देश युद्ध जनित समस्या से जूझ रहा था, इसलिए कमोबेश सभी लोगों की समस्या एक जैसी ही थी। इसलिए मानवीय पक्ष पर जोर देते हुये सामूहिकता को उकेरा गया था। फेलिनी ने किरदारों के व्यक्तित्व को विस्तार दिया। समाज से उनके कटाव, एकाकीपन और संवाद स्थापित करने में उनकी असफलता को मुखर अभिव्यक्ति दी, जिससे उस समय का इटली समाज जूझ रहा था। इसी तरह एंटिनियोनी का फिल्में ‘रेड डिजर्ट’ और ‘ब्लो अप’ में युद्ध के बाद इटली समाज खुद से जद्दोजहद करते हुये नई जिंदगी की तलाश करता हुआ नजर आता है।
1948 में प्रदर्शित विटोरियो डी सिका की फिल्म ‘बाइसाइकिल थीव्स ’नियो रियलिज्म शैली की एक प्रतिनिधि फिल्म थी। इसमें काम करने वाले अदाकार पूरी तरह से गैर पेशेवर थे। इस फिल्म में रोचक तरीके से युद्ध के बाद मजदूरों के सामने पेश आने वाली कठिनाइयों को व्यक्त किया गया था।1948 में ही गियोवानी वर्गा के उपन्यास ‘मालावोगलिया’ को थोड़ी बहुत फेर बदल के बाद शूट करके नियो रियलिज्म को एक नई ऊंचाई पर पहुंचा दिया। इस फिल्म का नाम था ‘दी अर्थ ट्रेंबल्स ’, जिसमें गैर पेशेवर से अदाकारी कराई गई थी। से काम लिया गया था।
इटली के नियो रियलिज्म मूवमेंट का प्रभाव भारतीय फिल्म हिदायतकारों भी जबरदस्त पड़ा है। डी सिका का फिल्म ‘बाईसाइकिल थीव्स’ देखने के बाद ही विमल राय ने ‘दो बीघा जमीन’बनाई थी। वर्तमान में फिल्मसाज और हिदायतकार अनुराग कश्यप की फिल्मों पर भीा नियो रियलिज्म का प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ता है। अनुराग की शूटिंग शैली पूरी तरह से नियो रियलिज्म के करीब है। ‘ब्लैक फ्राइडे’ ‘नो स्मोकिंग’और ‘गैंग आफ वासेपुर’ वर्तमान दौर में भारत में इटली नियो रियलिज्म की ही अगली कड़ी है। अनुराग कश्यप ख्रुद इस बात को स्वीकार करते हैं कि दिल्ली में पढ़ाई के दौरान डी सिका की फिल्में देखने के बाद ही फिल्मों को लेकर उनकी बेचैनी बढ़ गई थी। अनुराग कश्यप कथ्य और स्टाइल के लिहाज से ‘नियो रियलिज्म’ ‘सड़क पर ही कदम बढ़ा रहे हैं।