रंगकर्म समर्पित जीवन जिया गोपाल शरण ने

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गोपाल शरण
गोपाल शरण

–    रविराज पटेल//

रंगमंच और जीवन का कदमताल:

“ठाकुर बाबा हो, हम गोरबा लागु तोर, बेच के गगरिया, चढ़ाउआ तैयार करेला , पुजारी बताबेला हमरा के चोर …” तीस के दशक में यह मगही गीत पटना के हर गली मोहल्ले के बच्चों का ज़ुबानी गीत हो गया था. खास कर समाज में नीची जातियों की संज्ञा से चिन्हित तबकों में इस गीत को विशेष दर्ज़ा प्राप्त हुआ था. वजह था एक नाटक. सन 1932  ई. में “अछूतोद्धार” नामक नाटक का मंचन पटना के बाकरगंज ,बजाजा गली में हुआ था. जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है “अछूतोद्धार अर्थात अछूत का उद्धार “. यह नाटक छुआछुत पर आधारित था और इसका मुख्य पात्र “अछूत” बाकरगंज, नटराज गली का महज सात वर्षीय बालक गोपाल शरण थे.

रंगमंच की दुनिया में सशक्त प्रतिष्ठा पा चुके गोपाल शरण जी का जन्म एक  मध्यम वर्गीय परिवार के भेटनरी हॉस्पिटल के कम्पाउंडर पिता जंगी राम के घर  20  जनवरी सन 1926  को हुआ. हालाँकि लगभग छः माह की अल्प आयु में ही श्री शरण के सर से माँ की ममता छीन गई. इतना ही नहीं  लगभग एक वर्ष की आयु  में पिता भी चल बसे, चाचा-चाची ने इनका पालन पोषण किया जो निःसंतान थे. श्री शरण तीन भाई बहनों में  सबसे छोटे थे, बड़े भाई का नाम स्व. श्रीराम दास एवं बहन सरस्वती थीं. प्राथमिक शिक्षा बाकरगंज मोहल्ले में ही गोपी जी के निजी पाठशाला से प्रारंभ हुआ. मध्य एवं माध्यमिक शिक्षा बी.एन. कॉलेजीएट, पटना से पूरी की जहाँ से सन 1946  ई. में मैट्रिक की परीक्षा भी  उतीर्ण हुये, वहीँ सन 1948 ई. बी.एन.कॉलेज,पटना से अंतर स्नातक की डिग्री तत्कालीन पटना विश्वविद्यालय, पटना से हासिल किया. अपने गृहस्थ जीवन की शुरुआत सन 1949  ई. में लीलावती नामक योग्य युवती के साथ सातो वचन निभाने की क़सम खा कर किया था. इधर नाटकों में सक्रियता तो बरक़रार थीं ही. उन दिनों युवा उर्जावान कलाकारों, लेखकों एवं निर्देशकों में प्यारे मोहन सहाय ,डॉ. चतुर्भुज एवं डॉ. जीतेन्द्र सहाय जैसे नाटककारों के  चाहेताओं में रंगकर्मी गोपाल शरण का विशेष स्थान था.

गोपाल शरण ने सबसे अधिक प्यारे मोहन सहाय के निर्देशन में अभिनय किया. सहाय जी का “षोडशी”, “अंधेर नगरी चौपट राजा”, “शुतुरमुर्ग”, “अंडर सेक्रेटरी”, “राम रहीम”, “ज़िन्दगी के मोड़ “, “नीलकंठ निराला”, “मैं मंत्री बनूँगा”, “आखिर कब तक (भोजपुरी )”, “भगवत अजुकियम”, “कमरा न. -०५” , “चार प्रहर” एवं अन्य नाटकों में अभिनय किया तो जगदीश प्रसाद जी का “अछूतोद्धार” , अरविन्द रंजन दास का “सगीना महतो”, प्रभात रंजन दास का “राज दरबारी” , डॉ.चतुर्भुज का “बंद कमरे की आत्मा” तो वहीँ डॉ जीतेन्द्र सहाय का, “चार पार्टनर” के अलावा टेलीफिल्मों में कासिम खुर्शीद जो शैक्षिक दूरदर्शन के निर्देशक भी थे उनका “छुपा खजाना” मुकुल वर्मा (दिल्ली आकाशवाणी में उद्घोषक थे) का “संकल्प” गोपी आनंद का “पंच लाइट (फणीश्वरनाथ रेणु लिखित)” जगदीश प्रसाद का “अलग”, सन 1982  ई. में पहली बार प्रसिद्ध फ़िल्मकार मृणाल सेन के निर्देशन में फीचर फिल्म “एक अधूरी कहानी” में अभिनय किया. इसके कुछ ही समय बाद प्रकाश झा की फीचर फिल्म “दामुल” (1984) का एक अहम पात्र “गोकुल” की जीवन्त भूमिका निभा कर खूब प्रसिद्धि पाई, इतना हीं नही इस फिल्म में उनकी अपनी बेटी नीरजा भी गोकुल की बेटी बन अभिनय की है . प्रकाश  झा की  “कथा माधोपुर की (1988)” में “बिरछा” की भूमिका ,प्रकाश झा की  ही धारावाहिक ” वीर कुंवर सिंह या विद्रोह” में “गोपाली” की भूमिका में भी श्री शरण ने बेज़ोर अभिनय किया था . मुन्नाधारी की फीचर फिल्म “36 का आंकड़ा ” में स्वतंत्रता सेनानी की भूमिका को भी खूब सराहना मिली थी . वैसे तो तीस से अस्सी के दशक तक नाटकों में श्री शरण की अनिवार्य उपस्थिति रही. श्री शरण आकाशवाणी एवं दूरदर्शन, पटना के लिये भी लगभग पन्द्रह वर्षों तक ब्रोडकास्ट नाटकों में अहम् भूमिका अदा की थी. उनकी अभिनय की बहुत ही लम्बी फेहरिस्त है जो अब स्मरण करना मुश्किल है, यह दुखद भी है, ऐसे अद्भुत कलाकारों के बारे में जानकारी  संग्रह करना किसी की अनिवार्यता में शामिल न रहा है.

यूँ बने थे दामुल में गोकुल” : एक रोचक प्रसंग

पटना रंगमंच के ही कलाकार रहे श्री अनिल अजिताभ उन दिनों गोपाल शरण जी के सहकर्मी हुआ करते थे. अस्सी के दशक में वह नवोदित फ़िल्मकार प्रकाश झा के  सहायक के रूप में भी काम कर रहे थे. श्री झा की दूसरी फीचर फिल्म “दामुल” के लिए कलाकारों का चयन प्रक्रिया जारी था. तक़रीबन सभी पात्रों का चुनाव भी हो चुका था, परन्तु फिल्म में एक अहम् पात्र “गोकुल” की भूमिका के लिए पारखी प्रकाश को मनचाहा कलाकार अभी तक नही मिल पाया था. तत्कालीन सह निर्देशक अनिल जी ने गोपाल शरण का नाम सुझाया और परिचय करवाया , श्री शरण अब प्रकाश झा के सामने थे उन्होंने उन से कहा कि “आपके बेटे की हत्या कर दी गई है ,यह बुरी खबर को सुन कर आपके ऊपर क्या असर होगा… How you will feel ? ,बकौल श्री शरण, यह सुन कर मैं अवाक् हो गया ,सिर्फ शून्य में देखता रहा ,बिलकुल मूक हो गया. सिर्फ अपनी आँखों से दिल की वेदना को प्रकट  किया, मैंने केवल अपना फेसियल एक्सप्रेशन दिया. मेरे अनजाने में एक कैमरा रखा हुआ था, प्रकाश जी कहते हैं ओ .के. और मैं “दामुल” में “गोकुल” की भूमिका के लिये चुन लिया गया. इसी सन्दर्भ में श्री शरण का प्रकाश झा जी का दफ्तर आना जाना शुरू हो जाता है. एक दिन की बात है, श्री शरण, प्रकाश जी का कार्यालय जाते हैं और कार्यालय द्वार पर खड़े हो कर प्रवेश करने का आदेश मांग रहे होते हैं ,तभी श्री झा जानबूझ कर आँख लाल-पीला कर झल्ला , चिल्ला और गुस्से में कह उठते हैं – कौन है ? पता नहीं कहाँ कहाँ से चला आता हैं मुंह उठाये, भागो यहाँ से, चलो हटो, ऐ जी हटाओ इसको …श्री शरण ने भी  ईंट का जबाब पत्थर से दिया. पीछे हटने के बजाय, एक कदम और आगे बढ़े, पेट पर हाथ रखा, चेहरे पर कल्पित भाव और अत्यंत निवेदित स्वर में कहने लगे – माई बाप ,दया करो माई बाप ,दो दिन से कुछ खाया पीया नही है, पेट में एक अन्न नहीं है माई बाप ,भूखे मर जायेंगे हम…,यह सुन देख प्रकाश भौचक रह जाते हैं और जोर से ताली ठहाका लगाते हुये खड़े हो कर सम्मानित तरीके से उन्हें सामने लगे कुर्सी पर बैठाते हैं, चाय पानी होता है. प्रकाश जी फिर कहते हैं “गोकुल दा ” इस बार भी आप परीक्षा पास कर गये और उसी वक्त से वह उन्हें “गोकुल दा” के नाम से पुकारने लगते हैं .

“दामुल” के  मुख्य कलाकारों में अन्नु कपूर, श्रीला मजुमदार, दीप्ती नवल , मनोहर सिंह, प्यारे मोहन सहाय, रंजन कामत, सुमन कुमार सहित तमाम समूह के साथ प्रकाश बेतिया के समीप छपबा मोड़ रवाना हो चलते हैं, जहाँ इसकी पूरी शूटिंग संपन्न हुई. “दामुल” के लेखक साहित्यकार “शैवाल” थे. यह फिल्म 31  अक्तूबर 1984 को रिलीज हुई और वर्ष 1985 में सर्वश्रेठ फिल्म एवं निर्देशक का राष्ट्रीय पुरस्कार तथा फिल्म फेयर क्रिटिक्स अवार्ड हासिल किया.

परिवार:

स्व.  शरण दो पुत्रों एवं चार पुत्रियों के पिता थे, बड़े बेटे का नाम  राजेश कुमार तथा छोटे का नाम राकेश कुमार हैं, दोनों निजी क्षेत्रों में नौकरी करते हैं. चार पुत्रियों में कामिनी सिन्हा ,नीरजा देवी, दोनों हिन्दी की शिक्षिका एवं अंजना देवी गृहिणी हैं तथा  सबसे बड़ी बेटी उषा देवी स्वर्गवासी हो चुकीं हैं. उनके छः बच्चों में नीरजा का थोड़ा बहुत लगाव रंगमंच से भी रहा ,वह आकाशवाणी, पटना के लिए भी कई नाटकों में काम करती रहीं. अर्धांगिनी लीलावती शरण जी का देहांत 7 अक्टूबर 2009 में ही हो गया था.

ज़िन्दगी का एक सत्य पड़ाव:

कलाकार हर रूप में हर उम्र में कलाकार ही होता है, स्व. शरण 85  वें बसंत पार कर चुके थे. ढलती उम्र के कारण आज कल कुछ ज्यादा बीमार  रहते थे, परन्तु ज्यों ही कोई नाटकों या मंचों की बात छेड़ता था तो मानों उनके रगों में रक्त के जगह रंगाभाव का संचार होने लगता था.

सम्मान:

स्व.  शरण को बिहार आर्ट थियेटर की ओर से “अनिल मुखर्जी शिखर सम्मान” , आर्ट एंड आर्टिस्ट को -पटना की ओर से “स्व.प्रो.राम नारायण पाण्डेय शिखर सम्मान” , बिहार आर्ट थियेटर एवं मगध आर्टिस्ट की ओर से “डॉ. चतुर्भुज शिखर सम्मान” , भारतीय राष्ट्रीय  छात्र संगठनसांस्कृतिक प्रकोष्ठ,बिहार की ओर से “कलाश्री सम्मान “, प्रांगण की ओर से “पाटलिपुत्र सम्मान” नटराज सम्मान के अलावा सन 2012  में बिहार शताब्दी दिवस के उपलक्ष्य में  कला, संस्कृति विभाग की ओर से मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के हांथों भिखारी ठाकुर सम्मान से सम्मानित हो चुके थे.

निधन:

स्व. शरण कुछ वर्षों से रीढ़ की हड्डी और सर्वाइकल समस्या से पीड़ित चल रहे थे.  23 फरवरी 2013 की शाम में अपने कमरे में कुर्सी पर बैठ कर अपने पोते पोतियों को पढ़ा रहे थे, तभी अचानक चक्कर आया और नीचे गिर गए. सिर में चोट आई. हालत गंभीर होते देख परिजनों ने 28 फरवरी 2013 समय 12:15 बजे दोपहर पटना मेडिकल कॉलेज अस्पताल में भर्ती करवाया. जहाँ उनका इलाज इंदिरा गाँधी आस्मिक इकाई के मेडिकल वार्ड में 17 न. बेड पर चल रहा था. लगातार ऑक्सीजन पर चल रहे स्व.शरण के स्वास्थ्य में गिरावट ही आती गई. अंततः 3  मार्च 2013 की सुबह 2:15 बजे वे अमरत्व को प्राप्त कर गए.

11 बजे  (पूर्व.) उनके पैतृक निवास बाकरगंज , नटराज गली से उनकी शव यात्रा निकली. 11 :40 बजे बांसघाट शवदाह गृह पंहुचा गया. 12:25बजे तक धार्मिक विधान संपन्न हुए और 12:35  में उनके बड़े सुपुत्र राजेश कुमार ने मुखाग्नि दिया और  वे पंचतत्व  में विलीन हो गए.

उनके अंतिम दर्शन को उनके परिजनों के आलावा रंगकर्मियों में ऊँगली पर गिन कर मात्र चार लोग ही पहुंचे,  उनमें वरिष्ठ रंगकर्मी सुमन कुमार , डॉ. एन एन पाण्डेय , सुरेश कुमार हज्जू , अभय सिन्हा थे.

(लेखक पटना रंगमंच पर शोध कर रहे हैं , संपर्क :+91-9470402200 )

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सदियों से इंसान बेहतरी की तलाश में आगे बढ़ता जा रहा है, तमाम तंत्रों का निर्माण इस बेहतरी के लिए किया गया है। लेकिन कभी-कभी इंसान के हाथों में केंद्रित तंत्र या तो साध्य बन जाता है या व्यक्तिगत मनोइच्छा की पूर्ति का साधन। आकाशीय लोक और इसके इर्द गिर्द बुनी गई अवधाराणाओं का क्रमश: विकास का उदेश्य इंसान के कारवां को आगे बढ़ाना है। हम ज्ञान और विज्ञान की सभी शाखाओं का इस्तेमाल करते हुये उन कांटों को देखने और चुनने का प्रयास करने जा रहे हैं, जो किसी न किसी रूप में इंसानियत के पग में चुभती रही है...यकीनन कुछ कांटे तो हम निकाल ही लेंगे।

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