कोरिया प्रायद्वीप की शांति में खलल

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उत्तर कोरिया ने योंगब्योन परमाणु परिसर को फिर से शुरू करने की घोषणा की है और इसके साथ ही कोरिया प्रायद्वीप में फिर से तनाव बढ़ गया है। उत्तर कोरिया की बढ़ती ताकत से सबसे अधिक खतरा दक्षिण कोरिया और जापान को है और ये दोनों देश अमेरिका की सरपरस्ती में हैं। ऐसे में अमेरिका का चिंतित होना स्वाभाविक है। इसी साल फरवरी में तीसरी बार परमाणु परीक्षण करके उत्तर कोरिया ने स्पष्ट कर दिया था कि वह अपने परमाणु कार्यक्रमों को जारी रखेगा। अभी हाल में ही कोरिया प्रायद्वीप में अमेरिका और दक्षिण कोरिया के संयुक्त सैन्य अभ्यास से उत्तर कोरिया खासा नाराज है। उत्तर कोरिया द्वारा योंगब्योन परमाणु परिसर को फिर से शुरू करने की कवायद इसी नाराजगी का नतीजा है। हालांकि उत्तर कोरिया की इस घोषणा के बाद से अमेरिका के रुख में भी तल्खी आ गई है। उत्तर कोरिया के इस कदम को गंभीरता से लेते हुये अमेरिकी विदेश मंत्री जॉन कैरी ने स्पष्ट कर दिया है कि वह अपने सहयोगी देशों दक्षिण कोरिया और जापान की हर स्थिति में रक्षा करेगा। वैसे भी अमेरिका यह कतई नहीं चाहता कि उत्तर कोरिया एक परमाणु संपन्न देश के रूप में उभर कर सामने आए। किसी भी संभावित खतरा से निपटने के लिए अमेरिका ने कोरिया प्रायद्वीप में दो मिसाइल विनाशकों को भी तैनात कर रखा है।
कोरिया प्रायद्वीप में इस नवीन परिस्थिति को लेकर संयुक्त राष्टÑ के महासचिव बान की मून भी चिंता जता चुके हैं। वह चाहते हैं कि इस मसले पर उत्तर कोरिया के साथ तुंरत बातचीत की जाये। उन्हें इस बात का डर है कि जिस तरह से अमेरिका और उत्तर कोरिया खुलकर एक-दूसरे की मुखालफत कर रहे हैं, उससे हालात बेकाबू हो सकते हैं। उत्तर कोरिया के नेता किम जोंग लगातार जहर उगल रहे हैं और अमेरिका भी पूरी तल्खी के साथ पेश आ रहा है। ऐसे में आने वाले समय में इस क्षेत्र में तनाव और बढ़ सकता है। यदि ऐसा होता है तो निस्संदेह इस क्षेत्र की शांति खतरे में पड़ सकती है। अक्टूबर 2007 में छह पक्षीय वार्ता के दौरान बनी सहमति के आधार पर योंगब्योन परमाणु परिसर को बंद कर दिया गया था। हालांकि उत्तर कोरिया के लोग इसके पक्ष मेंं नहीं थे। चूंकि उत्तर कोरिया बिजली की किल्लत झेल रहा है। यहां के लोगों का मानना है कि इस बिजली संकट को दूर करने के लिए परमाणु भट्टी का सहारा लेना जरूरी है। इस दिशा में अडंÞगा लगाकर अमेरिका जानबूझकर उत्तर कोरिया की प्रगति को बाधित करने की कोशिश कर रहा है, जिसे बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। इस तनातनी का सीधा असर उत्तर कोरिया और दक्षिण कोरिया के आपसी संबंधों पर पड़ रहा है। दोनों देश पहले से ही एक दूसरे के खिलाफ आक्रामक मुद्रा अख्तियार किये हुये हैं। अब तो उत्तर कोरिया खुलेआम यह कह रहा है कि वह दक्षिण कोरिया के साथ युद्ध के हालात में प्रवेश कर गया है। उत्तर कोरिया के संकेतों को समझते हुये दक्षिण कोरिया के राष्टÑपति पार्क ग्यून ने भी सेना को जवाबी कार्रवाई के लिए तैयार रहने को कहा है। उत्तर कोरिया ने तो यहां तक कहा है कि आत्मरक्षा के लिए वह परमाणु हमला भी कर सकता है। इसके अलावा 1953 की कोरियाई युद्ध विराम संधि को भी रद्द कर सकता है।
सैन्य विशेषज्ञ भी उत्तरी कोरिया की धमकी को गंभीरता से ले रहे हैं। उनका कहना है कि अभी यह तो स्पष्ट नहीं है कि इस प्रकरण में आगे क्या मोड़ आने वाला है, लेकिन इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि इस क्षेत्र में किसी भी तरह की सैनिक झड़प के बाद इस संघर्ष का दायरा व्यापक नहीं होगा। जिस तरह के बयान किम जोंग दे रहे हैं, उससे तो यही लग रहा है कि उत्तरी कोरिया अमेरिका के साथ भी दो-दो हाथ करने में मूड में है। अमेरिका भी अपने बम वर्षक विमानों को तैयार किये हुये है। कुछ ऐसी ही परिस्थिति में  वर्ष 2010 में उत्तर कोरिया ने दक्षिण कोरिया के एक युद्ध पोत को डुबो दिया था, जिसमें 46 लोग मारे गये थे। वर्तमान परिस्थिति को देखते हुये कहा जा सकता है कि हालात तेजी से बिगड़ रहे हैं और यदि जल्द ही कुछ नहीं किया गया तो संभव है कि एक बार फिर इस क्षेत्र की शांति भंग हो जाये। यदि ऐसा होता है तो इसका प्रभाव पूरी दुनिया पर निश्चिततौर पर पड़ेगा। उत्तर कोरिया के पास इस वक्त 1.1 मिलियन सैनिक हैं, साथ ही उसके पास लंबी दूरी तक मार करने वाली मिसाइलें भी हैं, जो सहजता से जापान को भी निशाने पर ले सकती हैं। इसके अलावा गुयाम और ओकिनावा में स्थित अमेरिकी बेस को भी पलक झपकते ही ध्वस्त करने की क्षमता उत्तर कोरिया के पास मौजूद है। इस बात से भी इन्कार नहीं किया जा सकता है कि उत्तर कोरिया अपनी महत्वाकांक्षा के वशीभूत होकर सैनिक कार्रवाई के मामले में किसी भी सीमा तक जा सकता है। यदि ऐसा होता है तो अमेरिका भी चुप नहीं बैठेगा। किसी भी पक्ष की ओर से शुरूकिया गया पारंपरिक हमला देखते- देखते रासायनिक हमलों में तब्दील हो सकता है।
चीन इस क्षेत्र में तनाव कम करने का पक्षधर है, हालांकि वर्ष 2010 की घटना से इस क्षेत्र में अमेरिकी सैनिकों के जमावड़े से वह खुश नहीं है। युद्ध छिड़ने की स्थिति में बड़ी संख्या में लोग शरणार्थी के तौर पर चीन के दक्षिणी सीमा की तरफ कूच करेंगे और चीन यह कतई नहीं चाहेगा कि उसकी सीमा में शरणार्थियों का जमावड़ा लगे। यही वजह है कि चीन आधिकारिक तौर पर सभी पक्षों से संयम बरतने और बातचीत करने को कह रहा है। वर्ष 1950-53 में कोरिया युद्ध के दौरान चीन उत्तर कोरिया के पक्ष में खड़ा था, जबकि अमेरिका दक्षिण कोरिया की मदद कर रहा था। लंबा समय निकल जाने के बावजूद चीन और अमेरिका का रुख आज भी कमोवेश पहले जैसा ही है। यदि इस क्षेत्र में युद्ध की आग भड़कती है तो एक बार फिर चीन और अमेरिका अप्रत्यक्ष रूप से आमने सामने होंगे।
वर्ष 2010 से लेकर दूसरे आलमी युद्ध (1945) तक कोरिया पर जापान की हुकूमत थी। दूसरे आलमी युद्ध की समाप्ति पर कोेरिया को दो भागों में बांट दिया गया था। उत्तरी कोरिया सोवियत संघ के प्रभाव में था तो दक्षिणी कोरिया अमेरिका के। 1948 में स्वतंत्र चुनाव की असफलता के बाद उत्तर कोरिया पूरी तरह से कम्युनिस्ट मॉडल में आ गया था, जबकि दक्षिण कोरिया पूंजीवाद की राह पर अग्रसर हो गया था। वैचारिक भिन्नता की वजह से उत्तर कोरिया और दक्षिण कोरिया में लगातार तनाव बना रहा। 25 जून, 1950 को उत्तर कोरिया ने दक्षिण कोरिया के खिलाफ सैनिक कार्रवाई शुरू कर दी। चीन के मसले पर सोवियत संघ द्वारा सुरक्षा परिषद के बहिष्कार का फायदा उठाते हुये अमेरिका ने अपनी फौज कोरिया में उतार दी थी। इसके जवाब में पीपुल्स रिपब्लिक आॅफ चीन की सेना भी मैदान में उतर आई, जिसे सोवियत संघ का जबरदस्त समर्थन मिला। यह जंग 27 जुलाई, 1953 में एक समझौते के बाद समाप्त हुई और उत्तर कोरिया और दक्षिण कोरिया दुनिया के नक्शे पर दो मुखतलफ मुल्क के रूप में अस्तित्व में आये। तब से लेकर दोनों मुल्कों के बीच लगातार तनातनी बना रहा।
दोनों मुल्क आज भी एक दूसरे को फूटी आंख नहीं सुहाते हैं। दोनों के बीच सैनिक होड़ लगी हुई है। तमाम अंतरराष्टÑीय दबावों को दरकिनार करते हुये उत्तर कोरिया अंदरखाते आणविक शक्ति हासिल करने में सफल हो चुका है। अब अपनी सुरुक्षा के नाम पर इस दिशा में खुलकर अपनी महत्वाकांक्षा का इजहार कर रहा है। फिलहाल जिस तरह से उत्तर कोरिया योंगब्योन परमाणु परिसर को फिर से शुरू करने की बात कर रहा है, उससे अमेरिकी नीति निर्धारकों के माथे  पर चिंता की लकीरें साफतौर पर दिखने लगी हैं। इस परमाणु भट्टी के चालू होते ही इस क्षेत्र में शक्ति संतुलन उत्तर कोरिया के पक्ष में हो जाएगी। इसका तात्कालिक असर दक्षिण कोरिया पर तो पड़ेगा ही, अमेरिका भी इसकी ताप से नहीं बच पाएगा। ‘युद्ध की संभावना को ध्वस्त करने के लिए युद्ध करो’ की नीति पर चलने वाला अमेरिका उत्तर कोरिया को उसकी औकात पर लाने के लिए जीतोड़ कोशिश करेगा। अब यह देखना रोचक होगा कि उत्तर कोरिया
योंगब्योन परमाणु भट्टी को चालू करने की बात पर कहां तक अड़ा रहता है। कोरिया प्रायद्वीप की शांति बहुत हद तक उत्तर कोरिया और अमेरिका के रुख पर निर्भर करेगा। फिलहाल तो दोनों एक दूसरे पर गुर्राने में लगे हुये हैं और इनकी गुर्राहट को देखकर यही प्रतीत हो रहा है कि इस क्षेत्र की शांति खतरे में है।

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