जिय रजा कासी !

0
30

काशीनाथ सिंह का उपन्यास अपना मोर्चा जब पढा था तब पढता था और उस का ज्वान उन दिनों रह रह आ कर सामने खडा हो जाता था। उन का कहानी संग्रह आदमीनामा भी उन्हीं दिनों पढा। माननीय होम मिनिस्टर के नाम एक पत्र या सुधीर घोषाल जैसी कहानियां एक नया ही जुनून मन में बांधती थीं। बाद के दिनों में काशी का अस्सी सिर चढ कर बोलने लगा। अब तो चंद्रप्रकाश द्विवेदी ने इस पर एक फ़िल्म भी बना दी है।
प्रसिद्ध रंगकर्मी ऊषा गांगुली ने इस के पांडे कौन कुमति तोहें लागी नाम से जाने कितने शो किए हैं। फिर नामवर पर लिखे उन के संस्मरणों ने मुझे उन का मुरीद बना दिया। खास कर भाभी यानी नामवर सिंह की पत्नी की यातना और उन की करुणा जिस तरह उन्हों ने परोसी है, पढते समय जाने क्यों मुझे अपनी अम्मा याद आती रहीं। जैसा नामवर ने अपनी पत्नी की उपेक्षा की जीवन भर, शायद उन की समूची पीढी ने यही किया है। इसी लिए नामवर की पत्नी के अक्स में मुझे अपनी अम्मा की याद आती रही। खैर यह एक दूसरा विषय है।
काशीनाथ सिंह का खांटी बनारसीपन, उन की साफगोई और भाषा की चाशनी आदि मिल कर उन का एक ऐसा रुप उपस्थित करती है कि बस पूछिए मत। हमारे सामने ज़मीन से कटे लेखकों को देख लीजिए और काशीनाथ सिंह को देख लीजिए, फ़र्क साफ दिखेगा। न सिर्फ़ लेखन में वह सहज और पूरे बांकपन के साथ उपस्थित रहते हैं बल्कि जीवन में भी उसी ऊर्जा और उछाह के साथ मिलते हैं। बनारसीपन तो उन में से हरदम टपकता है ऐसे गोया कोई पान खा ले और पान की लार टपक जाए, लगभग ऐसे ही।

सोचिए कि मैं उन से उम्र और रचना दोनों ही में कच्चा हूं। पर जब उन्हें कभी फ़ोन करता हूं और नमस्कार करता हूं तो वह छूटते ही जोर से पालागी बाबा ! बोल पडते हैं। एक बार बनारस के एक गुरु की चर्चा करते हुए वह बताने लगे कि अगर कोई उन के पांव छूने लगता है तो वह कहते हैं चरण ही छूना आचरण नहीं ! अब इन्हीं काशीनाथ सिंह को उन के उपन्यास रेहन पर रग्घू पर आज साहित्य अकादमी पुरस्कार देने की घोषणा हुई है। उन्हें बधाई देने का बहुत मन कर रहा है। बहुत बधाई काशी जी ! कि तनी देरियै से सही मिलल s ! जिय रजा काशी !

Previous articleस्कूल प्रशासन बच्चों की तरफ से बेपरवाह क्यों !
Next articleप्रबंधन में रेलकर्मियों की भागीदारी (प्रेम) समूह की तृतीय बैठक संपन्न
अपनी कहानियों और उपन्यासों के मार्फ़त लगातार चर्चा में रहने वाले दयानंद पांडेय का जन्म 30 जनवरी, 1958 को गोरखपुर ज़िले के एक गांव बैदौली में हुआ। हिंदी में एम.ए. करने के पहले ही से वह पत्रकारिता में आ गए। वर्ष 1978 से पत्रकारिता। उन के उपन्यास और कहानियों आदि की कोई 26 पुस्तकें प्रकाशित हैं। लोक कवि अब गाते नहीं पर उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान का प्रेमचंद सम्मान, कहानी संग्रह ‘एक जीनियस की विवादास्पद मौत’ पर यशपाल सम्मान तथा फ़ेसबुक में फंसे चेहरे पर सर्जना सम्मान। लोक कवि अब गाते नहीं का भोजपुरी अनुवाद डा. ओम प्रकाश सिंह द्वारा अंजोरिया पर प्रकाशित। बड़की दी का यक्ष प्रश्न का अंगरेजी में, बर्फ़ में फंसी मछली का पंजाबी में और मन्ना जल्दी आना का उर्दू में अनुवाद प्रकाशित। बांसगांव की मुनमुन, वे जो हारे हुए, हारमोनियम के हज़ार टुकड़े, लोक कवि अब गाते नहीं, अपने-अपने युद्ध, दरकते दरवाज़े, जाने-अनजाने पुल (उपन्यास),सात प्रेम कहानियां, ग्यारह पारिवारिक कहानियां, ग्यारह प्रतिनिधि कहानियां, बर्फ़ में फंसी मछली, सुमि का स्पेस, एक जीनियस की विवादास्पद मौत, सुंदर लड़कियों वाला शहर, बड़की दी का यक्ष प्रश्न, संवाद (कहानी संग्रह), कुछ मुलाकातें, कुछ बातें [सिनेमा, साहित्य, संगीत और कला क्षेत्र के लोगों के इंटरव्यू] यादों का मधुबन (संस्मरण), मीडिया तो अब काले धन की गोद में [लेखों का संग्रह], एक जनांदोलन के गर्भपात की त्रासदी [ राजनीतिक लेखों का संग्रह], सिनेमा-सिनेमा [फ़िल्मी लेख और इंटरव्यू], सूरज का शिकारी (बच्चों की कहानियां), प्रेमचंद व्यक्तित्व और रचना दृष्टि (संपादित) तथा सुनील गावस्कर की प्रसिद्ध किताब ‘माई आइडल्स’ का हिंदी अनुवाद ‘मेरे प्रिय खिलाड़ी’ नाम से तथा पॉलिन कोलर की 'आई वाज़ हिटलर्स मेड' के हिंदी अनुवाद 'मैं हिटलर की दासी थी' का संपादन प्रकाशित। सरोकारनामा ब्लाग sarokarnama.blogspot.in वेबसाइट: sarokarnama.com संपर्क : 5/7, डालीबाग आफ़िसर्स कालोनी, लखनऊ- 226001 0522-2207728 09335233424 09415130127 dayanand.pandey@yahoo.com dayanand.pandey.novelist@gmail.com Email ThisBlogThis!Share to TwitterShare to FacebookShare to Pinterest

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here