थोड़ा है थोड़े की जरूरत है…

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वे जानते हैं समाज के ठोस तान-बाने को बुनना। परस्पर सहयोग की पुख्ता नीतियां। अपनी नीतियों से आर्थिक प्रबंधन भी। न्याय की शिक्षा। आपसी विश्वसनीयता के मापदंड। स्वीकारने की सहजता…। यह विशेषताएं मप्र में पाई जाने वाली जनजातियों की हैं, जो अपनी तरह से कई मायनों में समृद्ध हैं, वहीं पिछड़े और वंचित भी। और कारण सिर्फ इतना कि, विकास की एक अंधी दौड़ में हम उनसे संसाधन तो ले रहे हैं, लेकिन उनका स्तर बहुत ही निचला मानते हुए उन्हें फायदों से नहीं जोड़ पा रहे। यह भी एक वजह रही कि जनजातियों के लिए बनाई योजनाओं का लाभ आज भी उन तक उस बेहतर तरीके से नहीं पहुंच पा रहा, जैसा नीतियों को निर्धारित करते वक्त अपेक्षित किया जा रहा है। नीतियों को उनके मुताबिक और अधिक प्रभावी बनाने के लिए इनके आसपास की हर बात को महत्व देना होगा।

आदिवासियों में बढ़े कुपोषण को लेकर सरकारी चिंता की बात करें तो, जमीनी हकीकत कंपनियों को बच्चों और गर्भवतियों के लिए बनाए जाने वाले पोषाहार के ठेके देने तक सीमित दिखाई दे रही है। हमारी नीतियां उनके कुपोषण दूर करें न करें उनका आहार नेताओं, ठेकेदारों और अधिकारियों को लगातार पोषित कर रहा है।

समाज के एक तबके से हमारी दूरी का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि, नीति निर्धारकों को कुपोषण और इससे होने वाली मौत को स्वीकारने में ही कई साल लग गए।
पोषण की सुरक्षा या कुपोषण किसी एक परिवार, माता-पिता या बच्चे की समस्या नहीं है। यह समाज में लगातार हो रही आर्थिक असुरक्षा का मामला है। इसके लिए जिम्मेदार हर फैक्टर पर लगातार वार की जरूरत है। संवेदनशीलता के साथ समाज की पुरानी परंपराओं को भी समझने की जरूरत है। जब वे अपने तरीकों से इन्हीं समस्याओं से लड़े और कई दफा जीते भी। सभ्य समाज की दखलंदाजी के पहले भी जनजातियों का अपना एक संसार खुबसूरती से चलता रहा। वे प्रकृति के इतने नजदीक थे कि हर समस्या का हल उन्होंने उसी में खोजा और अपने अस्तित्व को कायम रखने के प्रयास किए। परेशानियां उनके वहां रहने से कम, हमारे द्वारा विकास के लिए तैयार किए जा रहे धरातल के कारण आ रही हैं। जिसमें उनकी प्रकृति का 99 फीसदी हिस्सा बिना किसी सहमति के शामिल कर लिया गया। उनकी जमीनी जरूरतों को समझे बिना योजनाएं तो हम भी कई लेकर आ गए, लेकिन वे वास्तविक्ताओं से बहुत दूर ही रह गईं।

सामुदायिक बैंक का उदाहरण है ‘नोतरा’
उदाहरण के तौर पर भील जनजाति में आर्थिक प्रबंधन के लिए एक बहुत सुंदर सी परंपरा है जिसे वे ‘नोतरा’  कहते हैं। इस परंपरा के बारे में जानना मेरे लिए भी एक नया अनुभव रहा। जनजाति को आर्थिक संबल प्रदान करने वाला नोतरा उनके लिए न सिर्फ एक साथ एक बड़ी रकम एकत्र कर लेने का साधन है, बल्कि यह समाजिक सहयोग, दायित्व और भरोसे का घोतक भी है। किसी बैंक के लोन और गांरटी से कहीं आगे की यह परंपरा समाज में अतिरिक्त आर्थिक आवश्यकताओं के सब पर बांटे जाने और अर्थ के समय पर काम आने का बेहतरीन उदाहरण है। इस परंपरा में भील जाति के किसी भी व्यक्ति द्वारा घर पर किसी तरह का शुभ कार्य करने या आवश्यकता के एक दिन पहले या उसी वक्त समाजजनों को बुलावा भेजा जाता है। इस बुलावे पर समाज के वे सभी लोग शामिल होते हैं जिन्हें बुलावा देने वाले ने कभी न कभी उनके परिवार के कार्यों में शिरकत कर सहायता स्वरूप (आशीर्वाद) कुछ राशि या वस्तु दी हुई होती है। वे सभी उनको मिली राशि में कुछ और धन को जोड़कर न्योता देने वाले के यहां पहुंचते हैं और इस तरह बुलावा देने वाले को कई सालों में अपने समाज में ही दी गई धनराशि और जुड़ा हुआ भाग एक साथ मिल जाता है।
इस वक्त आदिवासियों को बचत सिखाने के लिए समूह बनाने की योजनाएं चल रही हैं। जिसमें वे अपनी बचत को बैंक में रखते हैं और उन्हें एवज में कुछ लोन या जमा राशि पर ब्याज मिल जाता है। हालांकि इस योजना के लिए भी कई औपचारिकताओं के चलते एक बड़ा वर्ग इससे अछूता भी है। योजना का उद्देश्य अच्छा है लेकिन इसे बनाने के पहले नोतरा जैसी परंपरा का भी शोध किया जाता और जनजाति की परिस्थतियों को समझा जाता तो एक बेहतर प्रारूप तैयार होता। जिसे समाज के लोगों द्वारा समाहित करने में आसानी होती।
हर किस्म के अनाज से पोषण
बेवर खेती हो या वनों से लिए जाने वाले तमाम फल और सब्जियां जनजातियों के पास पोषण के मान से काफी संसाधन हुआ करते थे। तमाम तरह के अनाज अलग – अलग भूमि के तुकड़ों पर उगाकर वे खाना बदोश तो रहे लेकिन आज से पचास साल पहले उनके बच्चों में कुपोषण की खबरें तो नहीं थी। स्वास्थ्य सुविधाओं के मामले में भले ही तब उनके पास कोई अत्याधुनिक उपकरण और सुविधाएं ना हों लेकिन वे स्वास्थ्य सुविधाएं पाने के लिए कर्ज के बोझ तले भी नहीं दबे थे। प्रकृति से ली जड़ी बूटियों से साधारण बीमारियों के इलाज, या झाडफ़ूक से मानसिक चिकित्सा के रास्ते तकनीक से भरे नहीं पर उनकी जड़ों से जुड़े थे। हमने जनजातियों को चिकित्सा सुविधा मुहैया कराने के लिए अस्पताल और स्वास्थ्य केंद्र खोले लेकिन उपचार के लिए वो संवेदनशील चिकित्सक और स्टॉफ लाने में नाकाम रहे। इसका हर्जाना वे लोग लगातार भुगत रहे हैं। उन्हीं की जड़ों से जुड़े इलाज की पद्धती और उनके लोगों को ही कुछ मायनों में प्रशिक्षित करना इनको स्वास्थ्य देने का बेहतर तरीका हो सकता है। साधारण बीमारियों के लिए ऐसे कुछ प्रयास संगठनों द्वारा किए भी गए, लेकिन नीति निर्धारक केवल लकीर के फकीर बनकर ही रह गए।
व्यवहारिक शिक्षा के अलग मापदंड
आदिवासी शब्द सुनते ही शहरी जनमानस में आमतौर पर जहन में बनने वाली तस्वीर बहुत रोचक या खुबसूरत नहीं होती। कारण है, हम हमेशा से अपने तरह की बोलचाल और वेशभूषा वालों को सभ्य मानते हैं। इस परिपाटी में आदिवासी उस तरह से नहीं आने के कारण उसे अशिक्षित और असभ्य माना जाता रहा। हालांकि उनकी सभ्यताओं में शिक्षा, संवेदनशीलता, जरूरतमंद की सहायता और न्याय की एक बड़ी परिपाटी है, जिसे सभ्य समाज में एकदम से नकार कर नए मूल्य तय कर दिए गए। यही कारण है कि इनके बच्चों में अपनी पंरपराओं के प्रति आदर न होकर हीन भावना आ रही है।

रोजगार
रोजगार विहीन आदिवासी ग्रामीणों के लिए केंद्र सरकार की रोजगार गारंटी योजना आजीविका का एक बड़ा साधन है। लेकिन इसमें उन्हें दोहरे शोषण का शिकार होना पड़ रहा है, क्योंकि इस योजना में कई महीनों तक काम करने के बाद भी मजदूरी का नहीं मिलना ज्वलंत समस्या बन गया है। इसके कारण लोगों का सरकारी योजनाओं से विश्वास घटा और वे विस्थापन को मजबूर हुए। इससे बच्चों की शिक्षा और स्वास्थ्य भी बड़े पैमाने पर प्रभावित हुए।

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