दि लास्ट ब्लो (उपन्यास, चैप्टर 3)

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आलोक नंदन शर्मा

3.

पुनाईचक में अंग्रेजी पढ़ने वाले लड़कों की टीम तैयार करना टेड़ी खीर थी। यह इलाका यादवों का था। बगल में सचिवालय होने की वजह से थर्ड और फोर्थ ग्रेड के कर्माचारी इस इलाके में छोटे-छोटे कमरे किराये पर लेकर रहते थे। गांववालों की आमदनी का मुख्य जरिया भी यही था। इसलिए उनकी यही कोशिश होती थी कि अपने घरों में अधिक से अधिक कमरे बना दें। नित्य कार्यो से फारिग होने के लिए कॉमन गुशलखाना होता था। यादवों और सरकारी बाबूओं के अलावा नीचले तबके के लोगों की संख्या भी यहां अच्छी खासी थी। वे लोग जहां तहां झोपड़िया बनाकर रह रहे थे।

दिवाकर अपने पिता के साथ रेलवे लाइन के ठीक बगल वाले बड़े से तीन मंजिला मकान में रहता था।यह पुनाईचक के सबसे बड़े जमींदार का मकान था। इस मुहल्ले में उसके इस तरह के कई मकान थे। इस मकान में तकरीबन 25-26 किरायेदार रहते थे। सभी किरायेदारों से किराया वसुलने की जिम्मेदारी एक मुंशी की थी, जिसका शरीर चर्मरोग से बदरंग हो चुका था। जब भी वह किराया लेने आता था लोग उसे घर के अंदर बैठाने के बजाये जल्दी से किराया देकर उसे चलता करने की जुगत में रहते थे।

पुनाईचक से पटना के लगभग सभी प्रमुख स्थलों की दूरी भी ज्यादा नहीं थी। बेलीरोड पुनाईचक और सचिवालय के बीच से दानापुर से लेकर डाकबंगला तक गुजरता था। पुनाईचक से डाकबंगला की तरफ बढ़ने पर थोड़ी दूरी पर ही हड़ताली मोड़ था। हड़ताली मोड़ शहर में किसी भी तरह के होने वाले प्रदर्शनों का यह मुख्य केंद्र था। अपनी मांगों को लेकर प्रदर्शनकारी हड़ताली मोड़ से होकर राज्यपाल या फिर मुख्यमंत्री आवास की तरफ बढ़ने की कोशिश करते थे और पुलिस ने उन्हें यही रोक देती थी। यहां पर अक्सर पुलिस और प्रदर्शनकारियों के बीच खूनी  झड़प होते रहते थे।

दिवाकर अपने पिता के साथ किराये के जिस घर में रहता था वह स्टेशन से होकर दीघा तक जाने वाली रेलवे लाइन के करीब था। इस मकान से हड़ताली मोड़ की दूरी महज चार-पांच मिनट की थी। मकान की छत से हड़ताली मोड़ साफ दिखाई देता था। जब भी कोई बड़ा प्रदर्शन होता और पुलिस के साथ प्रदर्शनकारियों की झड़प होती तो मकान के तमाम लोग छत पर एकत्र होकर घंटो हड़ताली मोड़ और इसके आसपास के क्षेत्रों में हो रही झड़पों को देखते रहते थे। इस तरह के जब भी झड़प होते थे छत से नजारा देख रहे लोग 1974 के प्रदर्शन का जिक्र जरुर करते थे।

एक लड़का अपनी फटी-फटी आंखों से अक्सर बताता था कि कैसे उस वक्त पुलिस ने गोलियां चलाई थी और उसकी आंखों के सामने ही पुनाईचक चौराहे पर गोली लगने से एक आदमी का खोपड़ी उलट कर सड़क पर आ गयी थी, कैसे भागते हुये प्रदर्शनकारियों ने पुनाईचक चौराहे के करीब स्थित एक सरकारी इमारत को आग के हवाले कर दिया था और उससे ऊंची-ऊंची लपटे उठने लगी थी।

शहर में बेहतर पढ़ाई के लिहाज से दिवाकर के पिता उसे गांव से अपने लेकर आये थे और पुनाईचक के ही एक सरकारी स्कूल में उसका नामांकन करा दिया था। उस स्कूल में ज्यादातर संख्या नीचले तबके के बच्चों की थी। पहले दिन ही वहां के बच्चों से दिवाकर की भिड़ंत हो गई थी और यह लड़ाई कई दिनों तक चलती रही। मौका देखकर बच्चे एक साथ झूंड में आते थे और उस पर हमला कर देते थे। कभी-कभी वे लोग किसी एक बच्चे को उसके सामने खड़ा करके उसे उससे लड़ने के लिए ललकारते थे। जब लड़ाई शुरु हो जाती थी और गुत्थम-गुत्थी अपने चरम पर होता था तो अचानक से सभी बच्चे एक साथ उस पर झपट पड़ते थे। चूंकि वे बच्चे उसी मुहल्ले के थे, इसलिए दिवाकर घर से बाहर निकलने के बाद हमेशा सतर्क रहना पड़ता था। वे या तो गलियों में कंचे खेलते थे, या फिर लट्टू नचा रहे या फिर रेलवे लाइन पर पतंगबाजी करते थे। सभी हमेशा झूंड में रहते थे और दिवाकर पर नजर पड़ते ही किसी न किसी बहाने उस पर हमला करने की ताक में रहते थे। उनके सामने पड़ने पर दिवाकर के समक्ष दो विकल्प होते थे, या तो लड़ो या फिर फरार हो जाओ। दिवाकर की पहली कोशिश यही होती थी इनसे नजरे चुरा कर निकल जाये। जब वे घेराबंदी करने लगते थे तो उसकी कोशिश होती थी उनके हाथ में पड़ने के बजाये किसी तरह से फरार हो जाये। लेकिन जब सारे रास्ते बंद हो जाते थे तो वह उनके साथ खुलकर लड़ता था। लड़ने के दौरान वह एक बात का खास ख्याल रखता था कि झूंड में से किसी एक बच्चे को पकड़े और फिर उसी पर पूरी तरह से पिल पड़ जाये। इस दौरान वह अपने घूंसे, लात, नाखून और दातों का जबरदस्त इस्तेमाल करता था। सामने वाले बच्चे को बुरी तरह के जख्मी करने के बाद ही उसे छोड़ता था।

थोड़े-थोड़े दिनों की अंतरराल की लड़ाई के बाद जब चार-पांच बच्चे उसके हाथों बुरी तरह से जख्मी हो गये तो उन लोगों ने हमला करना बंद कर दिया। अब वे लोग दूर से ही गुर्राते हुये उसे धमकाने की कोशिश करते थे। फिर अचनाक से उनका लहजा बदलने लगा। अब गुर्राना छोड़कर उसके साथ दोस्ताना अंदाज में पेश आने लगे। पहले तो उनका इस बदले हुये लहजे से दिवाकर को आश्चर्य हुआ, लेकिन जल्द ही उसे यह अहसास हो गया कि वाकई में उस मुहल्ले के बच्चों का रवैया उसके प्रति बदल गया है। कम से कम उनके व्यवहार में अब दुश्मनी जैसा कोई भाव नहीं था। धीरे-धीरे उनके साथ दिवाकर की दोस्ती होती चली गई।

अब दिवाकर का अधिकतर समय नीचले तबके के उन्ही बच्चों के साथ बीतता था। स्कूल जाने से वे लोग कतराते थे। यदि स्कूल जाते भी थे तो प्रार्थना के तुरंत बाद सरक लेते थे। उनका ज्यादातर समय सचिवालय के अगल बगल के इलाकों में व्यतीत होता था। सचिवालय और गर्वनर हाउस के आसपास कई सरकारी बंगले थे, जिनमें मंत्रियों का आवास था। उनके बंगले के इर्दगिर्द के खाली जमीनों पर आम, जामून, लीची, तूत, अमरुद, जलेबी के  पेड़ों की भरमार थी। स्कूल से छूमंतर होने के बाद बच्चे लोहे की तारों के नीचे से सरक कर बगानों में दाखिल होते थे और छककर चरते थे। कभी-कभी पकड़े जाने पर थोड़ी बहुत सजा देने के बाद इस चेतावनी के साथ उन्हें छोड़ दिया जाता था कि वे आइंदा इधर का रुख नहीं करेंगे। इसके बावजूद वे अपनी हरकतों से बाज नहीं थे।

हड़ताली मोड़ के पास जब भी की कोई प्रदर्शन होता दिवाकर इन आवारा बच्चों की टोलियां के साथ पुलिस और प्रदर्शनकारियों को काफी करीब से  देखने की कोशिश करता था। उत्तेजना में आकर जोर-जोर से नारे लगाते हुये लोग दूसरे बच्चों के साथ-साथ दिवाकर को भी अपनी ओर आकर्षित करते थे। जब पुलिस वालों की नजर उन पर पड़ती थी तो वे घुड़की देकर वहां से भगा देते थे। बाद में सभी बच्चे खेल-खेल में प्रदर्शनकारियों के नारों को ही जोर जोर से लयबद्ध तरीके से दुहराते थे।

नीचले तबके के जिन बच्चों के साथ दिवाकर की नई-नई दोस्ती हुई थी उनमें से ज्यादातर बच्चे चोरी की कला में माहिर थे। सचिवालय के आसपास की सड़कों पर छोटे-मोटे दुकानदारों की भरमार थी। बच्चे टिड्डी दल की तरह झूंड के झूंड इन दुकानों पर जाते थे और फिर मौके मिलते ही सामनों पर हाथ साफ कर देते थे। दुकानदारों को भी यह पता चला गया था कि बच्चे उनके माल उड़ाने के लिए ही उनकी दुकानों पर आते हैं। इसलिए वे बच्चों का आता देखकर पहले से ही सतर्क हो जाते थे और चिल्ला-चिल्ला कर गंदी-गंदी गालियां देते हुये उन्हें भगाने लगते थे। बदले में बच्चों की ओर से भी गालियों की बौछार की जाती थी। दुकानदार हाथों में डंडे लेकर बच्चों के पीछे दौड़ते थे और बच्चे सड़को पर पत्थर उठाकर उनकी तरफ चलाते हुये भागते थे।

धीरे-धीरे दिवाकर भी बच्चों के इस गिरोह का एक अहम सदस्य हो गया था। इस गिरोह में तकरीबन 25-30 बच्चे थे। इनकी नजर 1974 के आंदोलन में जलाई गई सरकारी दफ्तर के मलबे पर होती थी। सर्पीले आकार का यह दफ्तर लगभग तीन एकड़ में फैला हुआ था। जल जाने के बाद इसका मलबा काले सांप की तरह दिखता था। उधर जाने का कोई आम रास्त नहीं था।  जले  हुये दफ्तर के चारों तरफ ऊंची-ऊंची दीवारें थी। इस दफ्तर में तकरीबन 40 कमरे थे। इन कमरों का इस्तेमाल उस इलाके की झुग्गी झोपड़ियों में रहने वाले लोग खासतौर से रिक्शा चलाने वाले शौचालय के रूप में करते थे। इस जले दफ्तर के अगल बगल और कमरों में बड़ी-बड़ी जंगली घासें उगी हुई थी। इसके अंदर कदम रखते ही एक अजीब सा दुर्गंध नथूनों से होते हुये सीधे खोपड़ी के अंदर घर बना लेता था। लाख झटकने के बाद बावजूद वह दुर्गंध हफ्तों खोपड़ी पर कब्जा जमाये रखता था।

बच्चों का गिरोह इस जले हुये सरकारी दफ्तर से लोहे चुराते थे। इसके लिए उन्हें काफी मशक्त करनी पड़ती थी। दिन के उजाले में उन्हें दफ्तर में दाखिल होकर जले हुये लोहों में से उस लोहे को चिन्हित करना होता था जिसे वे चुराना चाहते थे और फिर शाम ढलने के पहले उन्हें अपना काम शुरु कर देना होता था। चुराये जाने वाले लोहे को चिन्हित करना भी आसान नहीं था। दफ्तर से आसानी से निकल सकने वाले वाले लोहों पर बहुत पहले ही इलाके के शातिर चोरों ने हाथ साफ कर दिया था।

चुराये जाने वाले लोहे के हिस्से का चयन करने के दौरान इस बात का अच्छी तरह से आकलन करना पड़ता था कि उसको निकालने में कितना समय लगेगा और कौन-कौन से औजारों जरुरत पड़ेगी। लोहे को चिन्हित और औजारों का इंतजाम करने के बाद बच्चों का गिरोह सूरज ढलने के पहले दफ्तर में दाखिल होता था और अपने काम को अंजाम देने में लग जाता था। चूंकि इस दफ्तर पर इलाके के बड़े चोरों के गिरोह की हमेशा नजर रहती थी। जरा सी खटपट की आवाज सुनते ही उनके कान खड़े हो जाते थे और बड़े धैर्य के साथ उस वक्त तक इंतजार करते थे जबतक चोर अपना काम करने के बाद खुद ब खुद सामान के साथ बाहर नहीं आ जाता था। बाहर आते ही उससे सारा माल छिन कर उसे चलता कर देते थे। बच्चे भी कई बार इस गिरोह के लोगों की चपेट में आकर अपना माल गंवा चुके थे। इसलिए काम करने के दौरान वे इस गिरोह को लेकर विशेष सावधानी बरतते थे। चोरी के माल को एक साथ जमाकर करके निकालने के बजाये अलग-अलग रास्तों से उसे निकालते थे। यदि माल का कोई हिस्सा सीनियर चोरों  की पकड़ में आ भी जाता था तो बाकी का माल बच जाता था। चोरी की इस तकनीक को बच्चों ने अपने अनुभव के आधार पर विकसित किया था और यह उनके लिए काफी कारगर भी था।

बच्चे चोरी के समान को मीठाई राम कबाड़ी वाले की दुकान पर बेचते थे, जो सचिवालय के ठीक पीछे था। बस सचिवालय की बाउंड्री से माल इस तरफ करने की जरुरत पड़ती थी। मीठाई राम की दुकान उस इलाके के सभी चोरों का अल्टीमेट डेस्टिनेशन था। इलाके के तमाम चोर किसी न किसी रूप से दुकान से जुड़े हुये थे। वहां कबाड़ चुनने वाली झबरीली बालों वाली दुबली-पतनी और मोटी महिलाओं की भीड़ लगी रहती थी। बीड़ी पीते हुये वे आपस में घंटो चबर-चबर मुंह चलाती रहती थी। बच्चों के गिरोह में शामिल होकर दिवाकर भी चोरी के इस खेल का एक हिस्सा बन गया था, हालांकि उसे इस बात का अहसास नहीं था कि वह जो कुछ कर रहा है वह अपराध है और जाने अनजाने वह एक बाल अपराधी बन चुका है।

माल बेचने के बाद बच्चों को जो पैसे मिलते थे उससे वे एक साथ सिनेमा देखते थे। यह कहना ज्यादा उचित होगा कि सिनेमा देखने के लिए वे चोरी करते थे। चोरी करने का उनका एक मात्र लक्ष्य यही होता था शहर के सिनेमाघरों में शुक्रवार को रिलीज होने वाली नई फिल्मों को वह पहले दिन ही देख सके। उन आवारा बच्चों के साथ दिवाकर ने  पहली फिल्म पटना के वीणा सिनेमा में शोले देखी थी। हॉल के अंदर बड़े पर्दे पर चमकती हुई रंगीन रोशनियों के सहारे उछलते, नाचते-गाते, गोली-बम चलाते फिल्म के किरदारों ने उसके दिमाग को पूरी तरह से अपने कब्जे में ले लिया था। इसके बाद तो उसके अंदर फिल्मों को लेकर एक ललक सी पैदा हो गई थी। वह फिल्म का दिवाना ही हो गया था। दिन रात वह पैसों की जुगाड़ में रहता था ताकि अपने आवारा और चोर दोस्तों के साथ सिनेमा देख सके।

अच्छे और मिलनसार व्यवहार की वजह से मुहल्ले  के लोगों से उसके पिता का परिचय हो गया था। जब किसी ने उन्हें आगाह किया कि दिवाकर आवारा लड़को की सोहबत में पड़कर चोरी करने और सिनेमा देखने लगा है तो उन्होंने एक सुलझे हुये पिता की तरह की तरह उससे बात की और उसके सामने एक प्रस्ताव रखा कि हर शुक्रवार को वह उसे सिनेमा देखने के लिए पैसे देंगे, बशर्ते कि उसे पढ़ाई पर ध्यान देना होगा। दिवाकर तुरंत राजी हो गया।

…जारी

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