देवी चौधरानी और महारानी तपस्वनी …….!

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-सुनील दत्ता,

इन दो महिलाओं ने देश की आजादी के लिए वो अलख जगाई जिसे आज

हम सब भूल गये हैं …………….

नर— नारी सृष्टि चक्र में दोनों ही एक सिक्के के दो पहलू है। शक्ति का स्रोत उसी समय फूटता है, जब उसके खनन में इन दोनों का सहयोग होता है।
श्रम शक्ति का आधार ही नारी का वह अनोखा योगदान है,  जिसे पुरुष ने कभी स्वीकारा नहीं है। आज हम जिस आजादी की जिस हवा में सांस ले रहे है, उस बयार को  प्रवाहित करने में भारतीय नारी किसी भी पुरुष से किसी कदर पीछे नहीं रही है।  ब्रिटिश हुकूमत के आरम्भिक काल में ही देश की नारी ने ही उसकी दासता को चुनौती दी है और भारत के पौरुष को जगाया है। सन 1763 में बंगाल के भयंकर अकाल के समय अग्रेजो ने निर्धन जनता पर जो जुल्म ढाए, उनका प्रतिकार करने के लिए नारी को ही आगे आना पडा और सन 1763 से 1850 ई . तक की लम्बी लड़ाई  में सन्यासियों को ब्रिटिश शासन के मुकाबले के लिए मैदान में उतरना पड़ा।  सन्यासियों की आजादी की ललक के संघर्ष को अंग्रेज इतिहासकारों ने सन्यासी  विद्रोह कहकर कमतर बनाने का प्रयास जरुर किया।
सन्यासियों का यह संघर्ष  इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि विद्रोह सन्यासी मंडलियों का नेतृत्व करने वाली  मुख्यत: दो महिलायें थी – देवी  चौधरानी और महारानी तपस्वनी । देवी चौधरानी मजनू शाह और भवानी पाठक की समकालीन थी।  महारानी तपस्वनी ने भी आगे चलकर  “लालकमल”  वाले साधुओं के दल को संगठित किये,  पर उनकी सक्रियता  सन 1857 की क्रान्ति आरम्भ होने के ठीक पहले तथा उसके बाद बढ़ी थी।  सन 1757 में प्लासी के मैदान में सिराजुद्दौला की हार के बाद मीर जाफर गद्दी पर  बैठा तो उसने अंग्रेज सेना की सहायता के बदले ईस्ट इंडिया कम्पनी को भारी  मासिक भत्ता देना तय किया।  यह धनराशी इतनी अधिक थी कि राजकोष खाली होता गया, किन्तु अंग्रेजों का कर्जा न चुका।  मीर जाफर के बाद मीर कासिम गद्दी पर आया,  तो कर्ज चुकाने के लिए उसे अंग्रेजो को बर्दमान,  मिदनापुर,  चटगाँव की जमीदारी देनी पड़ी।  पूर्वी भारत में ब्रिटिश शासन का यह पहला चरण था।  किन्तु भारतीय जनता ने इसे स्वीकार नहीं किया और यहाँ – वहां  जन — विद्रोह भड़क उठे।  इन्हीं जनविद्रोहियों में सन्यासी विद्रोह प्रमुख था।  1763  से 1800 ई. तक की लम्बी अवधि में जगह — जगह पर इन सन्यासियों के छापामार हमलो ने अंग्रेजों की नीद हराम किये रखी।  कई स्थानों पर तो अंग्रेजों को नाको चने चबाने पड़े,  हालाकि बाद में ये विद्रोह अंग्रेजो  द्वारा निर्ममता पूर्वक कुचल दिया गया, किन्तु फिर भी भारत की आजादी की लड़ाई में इसका महत्व इसलिए बहुत बढ़ जाता है कि यह लड़ाई दो महिलाओं के नेतृत्व में लड़ी गयी थी।
सन्यासी विद्रोह के प्रथम चरण का नेतृत्व  मुख्यत: देवी चौधरानी ने किया।  उनके साथ इस विद्रोह के अन्य प्रमुख नेता मजनू शाह,  मुसा शाह,  चिराग अली,  भवानी पाठक आदि भी थे।  आजादी के इस संघर्ष के दूसरे चरण में महारानी तपस्वनी का नाम उभर कर आया,  जिन्होंने  “लाल कमल”  वाले साधुओ के दल को संगठित किये, जिनकी सक्रियता सन 1857 की क्रान्ति आरम्भ होने के ठीक पहले और बाद में बढ़ी थी।
सन्यासी विद्रोह से जुड़े लोग मुल्त: लुटेरे नहीं स्वतंत्रता सेनानी थे,  जो स्थानीय जमीदारो और अंग्रेज अधिकारियों के गठबंधन के शिकार गरीब किसानों,  और कारीगरों की मदद करने और अंग्रेजों को भारत भूमि से खदेड़ने के लिए छापामार युद्ध लड़ रहे थे।  इस विद्रोह की नायिका देवी चौधरानी को अंग्रेज  इतिहासकारों ने  “दस्यु रानी” कहा है, जब कि वह अंग्रेजी शासन के विरुद्ध प्रबल क्रांतिकारी की भूमिका अदा कर रही थी।  सन्यासी विद्रोह के  पुलिस योद्धा  फकीर मजनू शाह ने सन 1774 — 75 में एक विराट विद्रोही संगठन बनाया था। सन 1776  में उन्होंने तत्कालीन कम्पनी सरकार से कई बड़ी टक्कर ली।  29 दिसम्बर 1786 को अंग्रेजी सेना से मुटभेड में वह गम्भीर रूप से घायल हुए और अगले दिन अर्थात 30 दिसम्बर को उनकी मृत्यु हो गयी।  बाद में उनके  शिष्य भावानी पाठक ने बार — बार धन — दौलत और हथियार लूटे। 1788 में  वह भी एक बजरे में अपने साथ बहादुरों के साथ पकडे गए और मौत के घाट उतार दिए गये।  सन्यासी विद्रोह की सूत्रधार देवी चौधरानी इसी विद्रोह टोली की  मुखिया थी।  ईस्ट इंडिया कम्पनी की सेना के तत्कालीन लेफ्टिनेन्ट ब्रेनन की एक रिपोर्ट से पता चलता है कि भावानी पाठक की विद्रोही गतिविधियों के पीछे देवी चौधरानी का प्रमुख हाथ था।  उनके अधीन अनेक वेतन भोगी बरकन्दाज थे,  इनके रख रखाव के लिए देवी चौधरानी भवानी पाठक से लूटपाट के धन का हिस्सा  लेती थी। अंत तक वह अंग्रेजों के हाथ नहीं आई। प्राप्त रिकार्डो में,  आधुनिक इतिहासकारों के लिए,  गिरफ्तार करने के लिए अधिकारियों द्वारा उपर से आदेश लेने के उल्लेख के अलावा देवी चौधरानी के बारे में अन्य विवरण नहीं  मिलता है।  बकिमचन्द्र  के सुप्रसिद्ध उपन्यास  “आनन्द मठ” में इसी  सन्यासी विद्रोह की गतिविधियों का अच्छा दिग्द्ददर्शन इतिहास खोजी के लिए  विस्तृत विवरण सहित उपलब्ध है।  उपलब्ध विवरण में लेफ्टिनेन्ट ब्रेनन की उस समय की रिपोर्ट में उन्हें भवानी पाठक दल की  “क्रूर”  नेता मानने और  उनकी गिरफ्तारी के लिए उपर से आदेश होने का भी उल्लेख है ।

एक बड़े सन्यासी योद्धा दल,  जो अपने नाविक बेड़े में राज रानियों की तरह रहती थी।  उनके पास बहादुर लड़ाकुओं की एक बड़ी सेना थी।  कई सन्यासी योद्धा  उसकी वीरता का लोहा मानते थे।
पकड़ी जाती तो उन्हें गिरफ्तार करने या मार डालने का शेखी भरा उल्लेख अंग्रेजो के छोड़े रिकार्ड में कहीं तो मिलता।  मजनू शाह फकीर,  भवानी पाठक,  आदि सन्यासी योद्धाओं को फला — फला मुटभेड में मारे जाने का उल्लेख मिलते है,  तो देवी चौधरानी के बारे में क्यों नही ? लगता है,  वह कभी अंग्रेजो के हाथ नहीं आई और दमन चक्र के समय रहस्मय ढंग से गायब हो गई।
लगभग बीस वर्षो तक चलते रहे आजादी के इस प्राथमिक संघर्ष में सन्यासी विद्रोह की एक मात्र सशक्त महिला नेता के रूप में उनका नाम अमर है।  आने वाली हर पीढ़ी के लिए वह एक प्रेरणा है।  यह भी संभव है कि इतिहास के नए शोधकर्ता उनकी अभी तक उपलब्ध अधूरी कहानी को नए सिरे से मूल्याकन कर पाए और इतिहास के मौन तो तोड़ सके।
सन्यासी विद्रोह से भारत  वासियों के मन में आजादी की जो ललक जगी थी,  उसे परवान चढाने के लिए संतो, फकीरों,  सन्यासियों को एक बार मैदान में उतरना पड़ा ।  सन 1857 के आसपास  सशश्त्र सेनानियों और फकीरों के विद्रोह का दूसरा चरण आरम्भ हुआ।  पहले चरण की भाँति इस दूसरे चरण का नेतृत्व करने वाली महारानी तपस्वनी झांसी की रानी  लक्ष्मी बाई की भतीजी थी और उनके एक सरदार पेशवा,  नारायण राव की पुत्री थी। क्रान्ति में उन्होंने बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई,  विशेष रूप से  जनक्रांति के लिए पूर्व,  उत्तर भारत के सन्यासियों ने गाँव — गाँव शहर — शहर घूमकर  “लालकमल”  की पहचान छावनियो में सैनिकों  तक पहुंचाकर उन्हें भावी क्रान्ति के लिए प्रेरित किया।  इन सबके पीछे महारानी तपस्वनी की  प्रेरणा थी।  महारानी का वास्तविक नाम सुनन्दा था।  वह बाल विधवा थी।  उस समय की हिन्दू विधवाओं की तरह सुनन्दा किशोर अवस्था से ही तप — संयम का  जीवन व्यतीत कर रही थी।  शक्ति की उपासिका होने से वह योगासन के साथ शस्त्र — चालन और घुड़सवारी का परिक्षण लेती थी।  उनकी रूचि देख पिता ने भी उनके लिए यह सब व्यवस्था कर दी थी कि बाल विधवा बेटी उदास न हो और उसका मन लगा रहे।  किन्तु उनके मन की बात शायद पूरी तरह पिता भी नहीं जान पाए थे।
वह क्षत्रिय पुत्री थी।  देशप्रेम और पेशवा खानदान का प्रभाव उन्हें विरासत में मिला था।  अंग्रेजों को भारत भूमि से खदेड़ने की इच्छा उन्हें — दिन प्रतिदिन शस्त्र विद्या में निपुण बनाती गयी।  पिता की मृत्यु के बाद जागीर की देखभाल का काम भी उनके कंधो पर आ गया।  उन्होंने किले की मरम्मत कराने,  सिपाहियों की नई भर्ती करने के लिए तैयारिया शुरू कर दी।  अंग्रेजों को  उनकी इन गतिविधियों की गंध मिल गयी।  उन्होंने रानी को पकड़कर त्रिचनापल्ली के किले में नजरबंद कर दिया।  वहां से छूटते ही रानी सीतापुर के पास  निमिषारण्य में रहने चली गयी और संत गौरीशंकर की शिष्य बन गई।  अंग्रेजों ने समझ लिया कि रानी ने वैराग्य धारण कर लिया है,  अब उससे कोई खतरा नहीं।  पर रानी ने ऐसा जान– बुझकर किया था।  आस — पास  के गाँवों से लोग बड़ी  श्रद्धा के साथ उनके दर्शनों के लिए आते थे।  उन्हें रानी तपस्वनी के नाम  से जाना जाने लगा।  उसे बदलकर कुछ समय बाद उन्हें माता तपस्वनी कहा जाने लगा।  दर्शनों के लिए आने वाले भक्तों को वह आध्यात्मिक ज्ञान देने के साथ  देश — भक्ति का उपदेश भी दिया करती थी कि भारत माँ की आजादी के लिए वे  तैयार हो सके।  इसी तरह उन्होंने विद्रोह का प्रतीक  “लाल कमल”  लेकर जगह — जगह घूमकर लोगों को क्रान्ति का सन्देश सुनाया और लोग भी क्रान्ति के  समय देश — भक्तों का साथ देने के लिए शपथ लेते।  माता तपस्वनी स्वंय भी  क्रान्ति आरम्भ होते ही गाँव — गाँव घूमकर अपने भक्तों को इस ओर प्रेरित  करने लगी।  धनी लोग व जागीरदार उन्हें जो धन भेट करते थे,  उससे गाँव — गाँव में हथियार बाटे जाने लगे।  उनके भक्त व सामान्य लोग भी अपने तन — मन  की आहूति डालने की शपथ लेते।  छावनियों तक उनके साधू दूत कैसे पहुंचते थे ? यह रहस्य अभी भी पूरी तरह खुल नहीं पाया है।  यह सच है कि माता तपस्वनी के  भक्त ये साधू व फकीर जन — क्रान्ति का सन्देश इधर से उधर पहुँचाने की बहुत  महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे थे,  अन्यथा संचार — साधनों के अभाव के उस  युग में उत्तर तथा मध्य भारत में जो क्रान्ति संगठन बन पाया,  वह संभव न  होता।  क्रान्ति आरम्भ होने पर सन्देश भिजवाने की माता तपस्वनी की बड़ी  सुनियोजित व्यवस्था थी,  जैसे “लालकमल”  केवल सैनिकों में वितरित किया  जाता और जनसाधारण में सन्देश की प्रतीक चपाती एक दूसरे के हाथ में घूमती  रहती थी।

युद्ध के समय माता तपस्वनी स्वंय भी घोड़े पर सवार,  हो मुठभेड़ों से जूझते हुए सारी व्यवस्था का निरिक्षण करती थीं।
अपने छापामार दस्तो के साथ अंग्रेजो के फौजी — ठिकानों पर हमला भी करती थीं।  उनके दल में केवल  भजन — पूजन कर आत्मबल जुटाने वाले साधू न थे,  बल्कि वे  पूरी तरह अस्त्र — शस्त्र से लैस हो,  प्राण हथेली पर लिए घुमने वाले  देशभक्त साधू के रूप में सैनिक थे।  लेकिन अंग्रेजों की सुसंगठित शक्ति के आगे इन छापामार साधुओं का विद्रोह असफल रहा।  विद्रोही पकड — पकड़कर पेड़ों  से लटकाए तथा तोपों से उडाये जाने लगे।  माता तपस्वनी के पीछे अंग्रेजों ने जासूस लगा दिए,  लेकिन वह गाँव वालों की श्रद्धा के कारण बच पा रही थी।  लोग उन्हें समय पर छिपाकर बचा लेते थे।  विद्रोह असफल हो जाने के बाद वह  नाना साहेब के साथ नेपाल चली गयी थी।
नेपाल पहुंचकर वह शांत नहीं रहीं।  नेपाल में उन्होंने कई स्थानों पर देवालय बनवाये, जो धीरे — धीरे धरम — चर्चा के साथ क्रान्ति सन्देश के अड्डे बन गये।  उन्होंने नेपालियों में भी  अंग्रेजों के खिलाफ राष्ट्रीयता भरना शुरू कर दिया था।  लेकिन वह अधिक समय  तक वहा  न रह स्की और छिपते — छिपाते दरभंगा होते हुए कलकत्ता पहुँच गयी।
कलकत्ता में उन्होंने जाहिरा तौर पर महाकाली पाठशाला खोल रही थी।  पुराने संपर्को  का लाभ उठाकर वह फिर से स्वतंत्रता — यज्ञ आरम्भ करने के लिए सक्रिय हो गई थी।  1901 में वह बाल गंगाधर तिलक से मिली और उन्होंने नेपाल में शस्त्र — कारखाना खोल वही से क्रान्ति का शंख फूकने की अपनी गुप्त योजना उनके सामने रखी।  स्वामी विवेकानन्द को भी उन्होंने नेपाल — राणा को अपना शिष्य बनाने और उनकी सहायता से भारत को आजाद करने की प्रेरणा दी।  इनके इस ओर  ध्यान न देने पर भी वह निराश नहीं हुई।  उन्होंने तिलक से फिर सम्पर्क साधा  और उनकी ओर से भेजे गये एक मराठी युवक खाडिलकर  को इसके लिए तैयार कर  नेपाल भेजा। खाडिलकर ने नेपाल के सेनापति चन्द्र शमशेर जंग से मिलकर एक  जर्मन फर्म कुप्स की सहायता से एक कारखाना लगाया,  जहां टाइल  की आड़ में हथियार बनाने का काम होता था।  वे बंदूकें नेपाल सीमा पर लाकर बंगाल के क्रान्तिकारियों में वितरित की जाती थीं।  खाडिलकर वहां  कृष्णराव के गुप्त  नाम से रहते थे।  अपनी सूझबूझ से उन्होंने नेपाली उच्चधिकारियों से अच्छे  सम्बन्ध बना रखे थे किन्तु एक दिन उनके एक सहयोगी ने धन की लालच में  अंग्रेजों को इसकी सूचना दे दी।  नेपाली सेना ने टाइल कारखाना घेर लिया।  हथियार बरामद हो गये।  खाडिलकर को अंग्रेजों को सौप दिया गया।  बहुत यातनायें  मिलने पर भी उसने माता तपस्वनी का हाथ होने का संकेत नहीं दिया।  अत: कलकत्ता में रहने वाली पाठशाला संचालिका माता तपस्वनी पर उनका ध्यान नहीं  गया।  इस तरह माता तपस्वनी ने पहले महाराष्ट्र और बंगाल के बीच सम्पर्क — सूत्र जोड़ा था फिर बंगाल और नेपाल के बीच।  माता तपस्वनी बहुत वृद्ध हो चली थीं।  उनकी अंतिम क्रान्ति — योजना के असफल हो जाने से अब वह बहुत टूट  चुकी थीं।  यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि 1905 के बंग — भंग आन्दोलन के समय  विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार आन्दोलन में माता तपस्वनी की प्रेरणा से साधू  सन्यासियों  ने एक बार फिर भाग लिया।  यह सन्यासी — विद्रोह का तीसरा दौर था।  इसी तरह अपने अंतिम समय तक क्रान्ति का सन्देश फैलाते हुए सन 1907 में कलकत्ता में ही उनका निधन हो गया।  पर उनका अधूरा सपना खोया नहीं,  वह बंगाल के क्रान्तिकारियों की अगली गतिविधियों में जगता रहा, जो बाद में  देशव्यापी हुआ और 1947 में देश की आजादी के रूप में हम सबके सामने आया।  इन बलिदानियों के चलते हम आज इस देश में आजादी की साँसे तो ले रहे है पर आज  फिर अपना भारत उस मोड़ पर आ चुका है कि हमे  देवी चौधरानी और म्हारिणी तपस्वनी जैसी वीर नारी की इस सड़े — गले समाज को जरूरत है जो फिर से इस देश में पौरुष जगा दे एक नई क्रान्ति के लिए ………

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सदियों से इंसान बेहतरी की तलाश में आगे बढ़ता जा रहा है, तमाम तंत्रों का निर्माण इस बेहतरी के लिए किया गया है। लेकिन कभी-कभी इंसान के हाथों में केंद्रित तंत्र या तो साध्य बन जाता है या व्यक्तिगत मनोइच्छा की पूर्ति का साधन। आकाशीय लोक और इसके इर्द गिर्द बुनी गई अवधाराणाओं का क्रमश: विकास का उदेश्य इंसान के कारवां को आगे बढ़ाना है। हम ज्ञान और विज्ञान की सभी शाखाओं का इस्तेमाल करते हुये उन कांटों को देखने और चुनने का प्रयास करने जा रहे हैं, जो किसी न किसी रूप में इंसानियत के पग में चुभती रही है...यकीनन कुछ कांटे तो हम निकाल ही लेंगे।

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