बिहार में कड़वा हो चुका है चीनी उद्योग

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वेतन के अभाव में मरने वाले कर्मचारियों की सर्वाधिक संख्या 1532 चीनी निगम की ही है

गन्ना किसानों की जिंदगी से मिठास गायब

बिहार के चीनी उद्योग का कभी देशभर में नाम था। यहां के फलते फूलते चीनी उद्योग से गन्ना किसानों की जिंदगी में भी मिठास थी। लेकिन देखते-देखते यहां के चीनी उद्योग पर ग्रहण लगने लगा और किसानों की खुशहाली बदहाली में तब्दील होने लगी। बिहार के विभाजन के बावजूद यहां के नीति-निर्धारकों का ध्यान चीनी उद्योग की तरफ नहीं गया।

पूरे देश में चीनी उत्पादन के मामले में बिहार कभी दूसरे स्थान पर था। चीनी के कुल राष्ट्रीय उत्पादन में बिहार की भागीदारी तकरीबन एक तिहाई थी। सूबे में समृद्ध चीनी उद्योग की वजह से यहां के किसान भी समृद्ध थे। नकदी फसल के नाम पर बिहार में गन्ना उत्पादन नंबर एक पर था। यहां के किसान बड़ी संख्या में गन्ना उत्पादन में लगे हुये थे। व्यापक पैमाने पर गन्ने के उत्पादन और यहां की चीनी मिलों में इनकी खपत की वजह से गन्ना उत्पादन करने वाले किसानों की जिंदगी खुशहाल थी। आजादी के बाद जब बिहार के औद्योगिक विकास की योजनाएं बनाई जा रही थी तब यहां का चीनी उद्योग शीर्ष पर था। यह कहने में कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी कि चीनी उद्योग की मिठास सूबे के किसानों की जिंदगी में घुली हुई थी।

संख्या के लिहाज से भी बिहार में चीनी उद्योग की स्थिति अच्छी थी, लेकिन समय के साथ इनकी संख्या में गिरावट आती गई और इसका असर चीनी उत्पादन और चीनी उद्यग में लगे मजदूरों और कर्मचारियों पर तो पड़ा ही, यहां के किसान भी इससे अछूते नहीं रहे। 20वीं सदी के पूर्वाद्ध में सूबे में 33 चीनी मिलें थी। अभी मात्र 28 चीनी मिलें हैं, जिनमें 18 सार्वजनिक क्षेत्र की है। इनमें 15 मिलें बिहार राज्य चीनी निगम द्वारा संचालित हैं तो 3 मिलें केंद्रीय सार्वजनिक क्षेत्र की हैं। सार्वजनिक क्षेत्र की सभी 18 मिलें अभी बंद हैं। इसी तरह निजी क्षेत्र की 10 मिलों में बगहा और मोतिहारी स्थित चीनी मिलें बंद हैं। इन बंद मिलों का खामियाजा बिहार के चीनी उद्योग को भुगतना पड़ रहा है।

बिहार विभाजन का व्यापक असर यहां के यहां के खनिज पदार्थों से संबंधित उद्योगों पर पड़ा। लगभग सभी भारी उद्योग बिहार से अलग हुये झारखंड राज्य के हिस्से में चले गये। चीनी उद्योग के मामले में कुछ खास अंतर नहीं पड़ा।   ऐसे में अर्थशास्त्रियों, विशेषज्ञों से लेकर सरकार भी यही मानती है कि बिहार विभाजन के बाद बिहार के लिए चीनी उद्योग सबसे बेहतर विकल्प बचा है। राज्य सरकार का मानना है कि राज्य विभाजन के बाद यह एक मात्र ऐसा उद्योग है, जिसे विकसित कर ग्रामीण अर्थ व्यवस्था का सुदृढ़ीकरण, ग्रामीण समृद्धि, विकास एवं ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार का सृजन किया जा सकता है।

बिहार को एक विकसित राज्य की स्थिति में लाने की कवायद में चीनी उद्योग की महत्वपूर्ण भूमिका पर पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम ने भी जोर दिया था। बिहार विधानसभा के संयुक्त अधिवेशन एवं ग्लोबल मीट के दौरान पूर्व राष्ट्रपति कलाम ने 2015 तक बिहार को विकसित राज्यों की श्रेणी में लाने हेतु राज्य के लिए निर्धारित 10 मिशनों में चीनी उद्योग को दर्शाते हुये गन्ना आधारित उद्योग की स्थापना एंव विकास के लिए कार्यक्रमों को शामिल करने की प्रेरणा दी थी। भले ही सैद्धांतिक रूप से सूबे में चीनी उद्योग को यहां की अर्थव्यवस्था के आधार स्तंभ के रूप में तो देखा जा रहा है, लेकिन व्यवहारिक स्तर पर इस उद्योग की पूरी तरह उपेक्षा ही हो रही है।

सूबे में चीनी उद्योग को संपन्न बनाने के लिए गठित बिहार राज्य चीनी निगम भी रोगग्रस्त होता चला गया। निगम के अधिकारी मिलों के पुराने मशीनों की मरम्मत पर पानी की तरह पैसा बहाते रहे। नये मशीनों को स्थापित करने की दिशा में कोई कदम नहीं उठाया गया। इसके साथ ही कमीशनखोरी की बीमारी भी चीनी निगम को चाटती रही।

बिहार में संपन्न चीनी उद्योग के बावजूद चीनी निगम की बदहाली के लिए राज्य सरकार ही जिम्मेदार रही है। 1974 में चीनी निगम की स्थापना राज्य में चीनी उद्योग एवं उससे संबंधित अन्य उद्योगों को रुग्न होने से बचाना और रुग्न हुये मिलों का प्रबंधन अपने हाथ में लेकर उन्हें आर्थिक एवं औद्योगिक दृष्टि से आत्मनिर्भर बनाना था। मजे की बात है कि रुग्न उद्योगों के बचाने के लिए गठित चीनी निगम  खुद रुग्न हो गया और किसी ने चीनी निगम की सुध लेने की कोशिश भी नहीं की।

कंपनी एक्ट के तहत गठित चीनी निगम लगातार घाटे में रहा। बीमार चीनी मिलों का अधिग्रहण तो किया गया लेकिन पुराने हो चुके मिलों को आधुनिक तकनीक से लैस करने की पहल नहीं की गई। निगम द्वारा अधिग्रहित 15 चीनी मिलों में 14 मिलें 50 से 70 वर्ष पुरानी थी, सिर्फ एक मिल ही 19 वर्ष पुरानी थी। बीमार मिलों की उत्पादन क्षमता घटती गई। पुराने व जर्जर हो चुके उपकरणों की मरम्मति के नाम पर भारी राशि खर्च होते रहे। उत्पादन कम होने से उत्पादन लागत बढ़ता गया। मिल की पेराई क्षमता का उपयोग कभी भी पूरी तरह से नहीं हुआ। साथ ही केंद्र सरकार से चीनी विकास निधि से ऋण लिया जाता रहा, लेकिन कभी तरीके से पुरान और बीमार मिलों के आधुनिकीकरण की तरफ ध्यान  नहीं दिया गया। एक तरह से चीनी निगम भी नेताओं और अधिकारियों के चारागाह में तब्दील हो गया। लूट –खसोट की परंपरा यहां भी जड़ पकड़ती गई।

लालू–राबड़ी का शासनकाल सूबे में अन्य उद्योगों की तरह चीनी उद्योग के लिए भी घातक साबित हुआ। 1990 में जब लालू प्रसाद के नेतृत्व में गैर-कांग्रेसी सरकार बनी तब 15 सरकारी चीनी मिलें चालू थी। यह अलग बात है कि पिछली सरकार की लापरवाही एवं उपेक्षा के कारण चीनी निगम लगातार घाटे में थी। घाटे के कारणों को तलाश कर उन्हें दूर करने की तरफ बिल्कुल ध्यान नहीं दिया गया। नतीजतन धीरे-धीरे सारी मिलें बंद हो गई। लालू-राबड़ी कार्यकाल में चीनी निगम की स्थिति ऐसी हो गई कि वर्ष 2002 में राबड़ी सरकार ने इसे बंद करने का निर्णय ले लिया। लेकिन पटना हाईकोर्ट के पहले निगम कर्मचारियों बकाये भुगतान करने के आदेश से मामला लटक गया। राबड़ी सरकार द्वारा चीनी निगम पर ताला लगाने की कोशिश तो नाकामयाब रही, लेकिन चीनी उद्योग की हालत में सुधार नहीं हुआ।

चीनी निगम की बदहाली का सबसे बुरा असर निगम के कर्मचारियों पर पड़ा। चीनी निगम के मिलों के कर्मचारियों को 1992 से और मुख्यालय के कर्मचारियों को 1992 से ही वेतन के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है। कर्मचारी दाने –दाने को मोहताज हो गये। सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप से इन कर्मचारियों के कुल बकाये का एक हिस्सा तो मिला लेकिन जनवरी 2011 तक के हिसाब से अभी भी 2.84 अरब रुपया बकाया है। वेतन बकाये का मामला अन्य बोर्ड निगमों के कर्मचारियों का भी चल रहा है लेकिन वेतन के अभाव में मरने वाले कर्मचारियों की सर्वाधिक संख्या 1532 चीनी निगम की ही है। ऐसे में कहा जा सकता है कि सूबे में मिठास भरने वाले कर्मचारियों की जिंदगी में खटास भरा हुआ है।

निजीकरण के सहारे नीतीश सरकार सूबे में चीनी उद्योग को खड़ा करने की कोशिश तो कर रही है, लेकिन इसमें भी कई पेंच फंसे दिख रहे हैं। चीनी निगम को बचाने के लिए नीतीश सरकार आगे तो आई लेकिन अधिक जोर इस सरकार ने निजीकरण पर दिया। तमाम कोशिशों के बावजूद सूबे में चीनी उत्पादन के घोषित लक्ष्य को प्राप्त नहीं किया जा सका।

पहली बार सत्ता संभालने के बाद नीतीश सरकार  चीनी उद्योग को लेकर थोड़ी गंभीर दिखी। वर्ष 2005 में नीतीश कुमार के नेतृत्व में एनडीए सरकार के गठन के बाद ही चीनी उद्योग को पुर्नस्थापित करने की पहल हुई। इसी क्रम में सबसे पहले चीनी निगम को बंद करने संबंधित हाईकोर्ट में दिये गये आवेदन को 2007 में वापस लिया गया। इसके बाद चीनी मिलों के निजीकरण की कार्रवाई शुरु की गई। चीनी निगम को बंद न करने के फैसले से जहां निगम के कर्मचारियों ने राहत की सांस ली वहीं चीनी मिलों के निजीकरण की प्रक्रिया से थोड़ा संशय की स्थिति भी बनने लगी। वैसे नीतीश सरकार के इन कदमों को सूबे के विकास के साथ जोड़ा गया।

सूबे में चीनी उद्योग के विकास और मिलों के निजीकरण की प्रक्रिया को गति देने के लिए हर संभव कोशिशें की जाने लगी। मिलों की परिसंपत्तियों के मूल्यांकन और निदानमूलक अध्ययन के बाद प्रस्ताव आमंत्रित किये गये। इतना ही नहीं निवेशकों को आकर्षित करने के लिए राज्य निवेशक प्रोत्साहन बोर्ड की स्थापना की गई। साथ ही चीनी उद्योग के प्रोत्साहन, इसकी स्थापना,कार्यरत उद्योगों के क्षमता विस्तार और तकनीकी अध्ययन के लिए गन्ना उद्योग प्रोत्साहन पैकेज 2006 की घोषणा की गई। इस पैकेज को लेकर अधिकारी भी काफी उत्साहित दिखे।

चीनी उद्योग को पटरी पर लाने के लिए अधिक से अधिक गन्ना उत्पादन हेतु भी किसानों को प्रोत्साहित करने की ओर भी नीतीश सरकार ने खासा ध्यान दिया। बिहार ईख अधिनियम 1981 के प्रावधानों को अधिक कारगर एवं उपयोगी बनाने के उद्देश्य से बिहार ईख, आपूर्ति एवं खरीद का संशोधित विनिमय विधेयक 2007 को स्वीकृति हेतु केंद्र के पास भेजा गया। इसके अलावा गन्ना उत्पादकों को ईख उत्पादन विधि एवं समस्याओं के निदान के लिए मासिक न्यूज लेटर मिठास का प्रकाशन दिसंबर 2007 से आरंभ किया गया। किसानों को प्रशिक्षित करने के लिए वर्ष 2006-07 से वर्ष 2009-10 तक कुल 538 स्थानों पर कृषक प्रशिक्षण सह –सेमिनार का आयोजन किया गया। इसी समय अवधि में कुल 17,000,000 क्विंटल ईख बीज का क्रय एवं परिवहन अनुदान का वितरण किया गया। इसके अतिरिक्त ईख किसानों को आधुनिक तकनिक का जानकारी के लिए ईख अनुसंधान केंद्र, पूसा के माध्यम से टाल फ्री नंबर के सूचना केंद्र का संचालन शुरु किया गया।

नीतीश सरकार के तमाम प्रयासों के बावजूद सूबे में ईख उत्पादन और चीनी उत्पादन में गिरावट जारी रहा। वर्ष 2006-07 में सूबे में कुल 4.51 लाख टन चीनी का उत्पान हआ, लेकिन वर्ष 2007-08 में यह घटकर 3.90 लाख टन पर पहुंच गया। चीनी उत्पादन में ह्रास निरंतर जारी रहा और 2008-09 में यह घटकर 2.20 लाख टन हो गया। इसी तरह ईख के तहत क्षेत्रफल, ईख उत्पादन, ईख की उत्पादकता, पेराई हेतु ईख की उपलब्धता आदि में कमी आती गई।

नीतीश सरकार की नीतियों से प्रभावित होकर निवेशक सामने तो आये लेकिन उनकी रूचि चीनी उत्पादन के बजाय इथेलान और डिस्टीलरी उत्पादन में ज्यादा दिखी। इसके साथ ही औने पौने दामों में चीनी मिलों की परिसंपतियों को बेचना का सिलसिला भी शुरु हो गया। गन्ना किसानों के बकाय रकम को लेकर भी नीतीश सरकार खामोश है।

नीतीश सरकार के कार्यकाल में निवेश के लिए सर्वाधिक प्रस्ताव फूड प्रोसेसिंग और चीनी उद्योग के लिए आये। चीनी उद्योग के जितने प्रस्ताव आये उनमें निवेशकों  की रूचि चीनी उत्पादन से अधिक इथेनाल और डिस्टीलरी उत्पादन में थी। दावा किया जा रहा है कि नीतीश सरकार द्वारा चीनी उद्योगों के लिए चलाये जा रहे प्रोत्साहन कार्यक्रम से प्रेरित होकर राज्य में कार्यरत 9 चीनी मिलों द्वारा अपने चीनी मिलों एवं डिस्टीलरियों की क्षमता को विस्तारित किया गया है। मिलों के साथ नई डिस्टलरी एवं सह-विद्युत इकाई जोड़े गये हैं।  762.72 करोड़ रुपये की परियोजनाओं पर कार्य प्रारंभ हुआ जिसके अंतगर्त जुलाई 2011 तक कुल 583.34 करोड़ रुपये के निवेश हुये हैं।

उद्योग विभाग के मुताबिक वर्तमान सरकार के गठन के पूर्व राज्य में कार्यरत चीनी मिलों की पेराई क्षमता मात्र 37200 टीसीडी थी। बिहार राज्य चीनी निगम की 15 बंद चीनी मिलों एवं 2 डिस्टीलरियों को पुर्नजीवित करने या उन स्थलों पर अन्य उद्योगों की स्थापना सुनिश्चित करने के उद्देश्य से जुलाई 2011 तीन निविदा प्रक्रियाएं संपन्न हुई हैं। इसके माध्यम से लौरिया में डिस्टीलरी सहित , सुगौल, मोतीपुर एवं रैयाम में चीनी मिल स्थापित करने तथा बिहटा एवं सकटी में अन्य उद्योगों की स्थापना का मार्ग प्रशस्त हुआ है। एक नजर डालते हैं इन इकाईयों पर-

योजना                        प्रस्तावित निवेश

लौरिया/डिस्टीलरी सहित-      306.00 करोड़ रुपये

सुगौली               –  308.00 करोड़ रुपये

मोतीपुर              -220.00 करोड़ रुपये

रैयाम              -313.40 करोड़ रुपये

बिहटा            -55.00 करोड़ रुपये

सकटी————

निगम की शेष बची नौ इकाईयों,  हथुआ, वारिसलीगंज, गुरारु, गोरौल, सिवान, न्यू सावन, समस्तीपुर, लोहट एवं बनमनखी को पुर्नजीवित करने या उनके स्थलों पर अन्य उद्योगों की स्थापना सुनिश्चित करने के उद्देश्य से चौथी निविदा शीघ्र ही आमंत्रित की जाएगी।

जिस तरह से चीनी मिलों का निजीकरण किया जा रहा है उसे लेकर भी सवाल उठ रहे हैं। विपक्षी नेताओं का तो यहां तक कहना है कि चीनी मिलों की संपत्ति व जमीन को कूड़े के भाव बेचा गया है। उन चीनी मिलों में निवेशकों की रुचि कम है जिस मिल के पास जमीन कम है। यही वजह है कि हथुआ, वारिसलीगंज, गुराटन, गोरौल, सिवान, न्यू सावन, समस्तीपुर, लोहट एवं  बनमनखी के लिए राज्य सरकार को निविदा की प्रक्रिया चौथी बार करनी पड़ रही है। सूबे में निजीकरण का यह दौर चीनी उद्योग को कहां ले जाएगा यह तो वक्त ही बताएगा, फिलहाल चीनी मिलों की जमीन को लेकर विपक्ष द्वारा नीतीश सरकार को कठघरे में खड़ा करने की कवायद जारी है।

नीतीश सरकार की पहल पर भले ही सरकारी मिलों का निजीकरण हो रहा हो, चीनी मिलों को पुर्नस्थापित करने की कोशिश हो रही हो, निवेशकों को आकर्षित करने के साथ-साथ राज्य में मिलों के बंद होने और रुग्नता की स्थिति में गन्ना का बकाया राशि डूबने की दोहरी मार झेल चुके किसानों लुभाने के प्रयास हो रहे हो, लेकिन एक सवाल का जवाब गन्ना किसानों को नहीं मिल रहा है कि बंद होने तक जिन सरकारी मिलों के पास किसानों का बकाया रह गया, उसका भुगतान होगा या नहीं। यदि होगा तो कौन करेगा, मिल के नये निवेशक या गन्ना विकास विभाग और यदि भुगतान होगा तो 15 से 20 वर्ष पुरानी रकम पर ब्याज की क्या व्यवस्था होगी। क्या निवेशकों के एकरारनामे में गन्ना किसानों के भुगतान की कोई चर्चा भी है। इस सवाल का जवाब दिये बिना गन्ना किसानों का उत्साह नहीं बढ़ाया जा सकता। हालांकि गन्ना किसान मंत्री अवधेश प्रसाद कुशवाहा राज्यभर में घूम-धूम कर हर राजनीतिक और गैर राजनीतिक मंच से यह आश्वसन देने में लगे हैं कि गन्ना के विकास में राशि की कमी नहीं होने दी जाएगी।

सूबे में चौतरफा विकास के दावे तो जोर-शोर से किये जा रहे हैं, लेकिन यहां के चीनी उद्योग की हालत आज भी दुरुस्त नहीं है। चीनी मिलों को निजी हाथों में सौंपन मात्र से चीनी उद्योग का भला होता नहीं दिख रहा है, क्योंकि बड़ी संख्या में गन्ना किसान अपने पूर्ववर्ती अनुभवों की वजह से आज भी गन्ना उत्पादन करने से बिदक रहे हैं। वैसे चीनी निगम के कर्मचारियों के लिए यह राहत की बात है कि नीतीश सरकार ने निगम को बंद करने का फैसला वापस ले लिया है। फिलहाल जरूरत है सूबे में चीनी उद्योग को पटरी पर लाने के लिए एक ठोस नीति की। साथ में अधिकारियों को भी बाबूगिरी की मानसिकता से आगे बढ़कर चीनी उद्योग को लेकर गंभीर होने की जरूरत है, ताकि बिहार चीनी उत्पादन के मामले में अपना पुराना रुपबा हासिल कर सके।

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