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इतिहास के झरोखे में वैशाली

तेवरआनलाईन डेस्क

वैशाली का नामकरण महाभारत काल के इक्ष्वाकु वंशीय राजा विशाल के नाम पर हुआ है। इसी विशाल ने इस विशाल नगरी का निर्माण कराया था, जिसकी राजधानी वैशाली बनी। पौराणिक कथाओं में तो इस वैशाली की अपरंपार चर्चा बार-बार मिलती है। एतरेय ब्राह्मण के अनुसार इसी वैशाली के प्रतापी राजा नाभानेदिष्ट ने सुप्रसिद्ध आंगिरस पुरोहितों को यज्ञ के गूढ़तम रहस्यों की जानकारी दी थी। राजर्षि भलनंदन के पुरोहित महर्षि बाभ्रव्य ने ऋगवेद संहिता के प्रथम क्रम का निरुपण यहीं किया था। इसी वैशाली की पावन धरती पर बैठकर कभी राजर्षि नाभाग, भलनंदन और वत्सप्रि ने ऋग्वैदिक मंत्रों की रचना की थी। कई वैदिक ऋषियों यथा महर्षि पुलस्त, वृहस्पति, सम्वर्त, दीर्घात्मा, उत्तात्य और मंकन का आश्रम इसी भूमि पर था। वृहस्पति के पुत्र भारद्वाज की जन्मस्थली भी यही वैशाली थी।

पद्मपुराण को आधार माने तो महर्षि सनक, सनंदन, सनत कुमार और नारद जैसे तत्वज्ञानियों ने सत्संग के लिए इसी धरा का चयन किया था। वैशाली के ही एक प्रतापी राजा मरुत ने अश्वमेध यज्ञ कराया था, जिसकी प्रशंसा भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं की है। वाल्मीकि रामायण के अनुसार सिद्धाश्रम से जनकपुर की यात्रा के क्रम में धनुष यज्ञ में शामिल होने के लिए भगवान राम के साथ लक्ष्मण और महर्षि विश्वामित्र ने भी वैशाली की धरा को अपने चरणरज से सुशोभित किया था। रामायण वैशाली को स्वर्ग के समान सुंदर और दिव्य बताया गया है, जबकि स्कंदपुराण में वैशाली का देवपुरी के रुप में भव्य वर्णन आया है।

पद्मपुराण, वराहपुराण,नारदपुराण, भविष्यत पुराण, शिवपुराण और महाभारत जैसे ग्रंथों में तो वैशाली नगर को एक महान तीर्थ के रूप में उदघोषित किया गया है। इसी वैशाली में कभी देव दानवों ने मिलकर समुद्र मंथन की मंत्रणा की थी। यहीं इंद्र ने निवास किया था तथा दिति ने इंद्रहंता पुत्र की प्राप्ति के लिए इसी वैशाली की पावन धरती को अपनी तपोस्थली के रूप में चुना था। 

यह वैशाली की वह पावन धरती है, जहां शासन और राजनीति के क्षेत्र में एक नवीन प्रयोग प्रथम बार हुआ। लिच्छवियों ने गणतंत्र की स्थापना की जो वर्तमान लोकतांत्रिक, लोक कल्याणकारी राज्य का प्रारंभिक रूप था। राजतंत्रीय व्यवस्था का सूत्रपात भी मनु के वंशजों ने वैशाली में ही किया था। धार्मिक समन्वयता का बेहतरीन उदाहरण भी इसी वैशाली में मिलता है, जहां हिन्दू, जैन, बौद्ध और इस्लाम की गतिविधियां एक साथ देखने को मिलती है।

भगवान बुद्ध की कर्मस्थली रही है यह वैशाली। सन्यास ग्रहण करने के बाद गौतम बुद्ध ज्ञान की प्राप्ति के गुरु की तलाश में वैशाली आये थे, जहां बुद्ध ने अलारा और उदारक जैसे योगी के आश्रम में समाधि विद्या ग्रहण की थी। ज्ञानप्राप्ति के बाद भी भगवान बुद्ध के चरण वैशाली में कई बार पड़े। बुद्ध ने तो अपने महापरिनिर्वाण की घोषणा भी वैशाली में ही की थी और कुशीनारा जाने के क्रम में अपना भिक्षापात्र वैशाली में हो छोड़ दिया था। कालांतर में भी वैशाली बौद्ध क्रिया-कलापों का केंद्र बना रहा। द्वितीय बौद्ध संगीति के आयोजन का गवाह यही वैशाली बना। बौद्ध धर्म में दीक्षित होने के बाद सम्राट अशोक ने भी इस नगर का भ्रमण किया था।

इसी वैशाली की नगरवधू के रूप में अपनी अप्रतिम सौंदर्य और शरीर सौष्ठव के लिए चर्चित आम्रपाली का उल्लेख मिलता है। बुद्ध के ज्ञान और आदर्शों की परिकाष्ठा को जानकर उसने बुद्ध के दर्शन का दृढ़ निश्चय किया और अंतत: वे उनके प्रसादपर्यंत बौद्ध संघ में शामिल हो गई।

“अहिंसा परमो धर्म: ” का शंखनाद का करने वाले वैशाली पुत्र वर्द्धमान महावीर की जन्मस्थली यही वैशाली है। ज्ञानप्राप्ति के क्रम में तथा जिनेश्वर बनने के बाद भी महावीर कई बार वैशाली पधारे थे। वैशाली के वासोकुंड में भगवान महावीर की जन्मस्थली पर वर्तमान में महावीर स्मारक का निर्माण जारी है।

वैशाली गढ़ के पूर्वोत्तर में लगभग एक किलोमीटर की दूरी पर काले पत्थर से निर्मित विशाल चतुर्मुखी शिवलिंग अवस्थित है। इस शिवलिंग के बारे में एक अनोखी मान्यता यह है कि हजारों वर्ष पूर्व निर्मित यह शिवलिंग लगभग दस फीट जमीन के नीचे दबा था जो पिछले कुछ वर्षों में चमत्कारी रूप से प्रकट हुआ है। इस शिवलिंग के चार मुख बने हुये हैं, जो क्रमश: ब्रह्मा, विष्णु, शिव और सूर्य के हैं। इस शिवलिंग के चारों ओर काले पत्थर का विशाल तीन अरघा बना हुआ है, जिस पर कुछ लेख उत्कीर्ण तो हैं किन्तु वे अपठनीय हैं। माना जाता है कि पूरे विश्व में इस प्रकार का शिवलिंग अन्यत्र नहीं है। तभी तो इस धरोहर को अक्षुण्ण बनाये रखने के लिए इस स्थल पर भव्य मंदिर का निर्माण कार्य पूरी तन्मयता से जारी है। बौद्ध, जैन एवं हिंदू धर्म से संबंधित तमाम ऐतिहासिक धरोहर आज भी वैशाली में विद्यमान हैं जो वैशाली की ऐतिहासिकता में चार चांद लगता हैं.

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सदियों से इंसान बेहतरी की तलाश में आगे बढ़ता जा रहा है, तमाम तंत्रों का निर्माण इस बेहतरी के लिए किया गया है। लेकिन कभी-कभी इंसान के हाथों में केंद्रित तंत्र या तो साध्य बन जाता है या व्यक्तिगत मनोइच्छा की पूर्ति का साधन। आकाशीय लोक और इसके इर्द गिर्द बुनी गई अवधाराणाओं का क्रमश: विकास का उदेश्य इंसान के कारवां को आगे बढ़ाना है। हम ज्ञान और विज्ञान की सभी शाखाओं का इस्तेमाल करते हुये उन कांटों को देखने और चुनने का प्रयास करने जा रहे हैं, जो किसी न किसी रूप में इंसानियत के पग में चुभती रही है...यकीनन कुछ कांटे तो हम निकाल ही लेंगे।

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