अंग्रेजी में कमजोर ‘देहाती’ बच्चे और बिहार के नियोजित शिक्षकों की तड़प

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मिलर हाई स्कूल में मौजूद नियोजित शिक्षक
मिलर हाई स्कूल में मौजूद नियोजित शिक्षक

आलोक नंदन

गोल्डेन’ कश लगाते ही बूंदाबांदी शुरू हो गई। मेरे शरीर पर मोटे-मोटे टपके पड़ रहे थे, नजर आसमान की तरफ उठी। आसमान में दूर-दूर तक काले बादलों का कब्जा था। तेज बारिश का आभास होते ही मैं सुरक्षित ठिकाने की तरफ बढ़ चला। सामने मिलर हाई स्कूल था। चंद डग भरने के बाद मैं स्कूल में दाखिल हो गया। स्कूल में चारो तरफ शोर-शराबा का माहौल था। कुछ लोग अलग-अलग झुंड बनाकर आपस में बाते कर रहे थे। बाहर बारिश रफ्तार पकड़ कर रही थी। आसमान में काले बादलों के डेरा और बारिश की बढ़ती रफ्तार को देखकर साफ लग रहा था कि यह दो-चार घंटे रूकने वाली नहीं है। इत्मीनान से बैठने की गरज से मैं एक क्लास में दाखिल हो गया। कुछ शिक्षक कॉपी जांच रहे थे।

‘शहरी लइकवन के अंग्रेजी में अच्छा नंबर मिल रहा है, देहतियन सब गड़बड़ा गया है’, स्कूली डेस्क पर कॉपी का मूल्यांकन करता हुआ एक शख्स बोला। अंग्रेजी का नाम सुनते ही मेरी उत्सुकता बढ़ गई। मेरी जुबान से निकला, ‘तो क्या माना जाये कि बिहार के देहाती बच्चे अंग्रेजी में शहरी बच्चों की तुलना में कमजोर है..?’

इसके पहले कि मैं और कुछ बोलता वह शख्स बीच में टपक पड़ा, ‘ऐसा तो होना ही है,’ मेरी तरफ एक कॉपी को आगे बढ़ाते उसने अपनी बात जारी रखी, ‘ये देखिये शहरी छात्र की राइटिंग कितनी अच्छी है, सारे सवालों का सही जवाब दिया है इसने, और यह एक देहाती बच्चे की कॉपी देखिये, इसकी तो राइटिंग ही बिगड़ी हुई है।’

‘लेकिन ऐसा है क्यों ? क्या शिक्षक देहाती छात्रों को ठीक से पढ़ाते नहीं है?’

‘बात वो नहीं है, देहाती छात्रों की अंग्रेजी तो गड़बड़ होगी ही,’ देहाती छात्रों पर उसने जोर देते हुये। बिहार के छात्रों की अंग्रेजी और अंग्रेजी के बहाने यहां के शिक्षकों को टटोलने का लोभ मुझ पर हावी हो गया।

‘तो फिर क्या बात है। इस क्लासरूम में कॉपी चेकिंग के दौरान जो फैक्ट्स आपने अभी-अभी दिये है कि शहरी छात्रों की अंग्रेजी देहाती छात्रों से अच्छी है, इसका मतलब तो यही हुआ न कि देहाती छात्रों को ठीक से पढ़ाया नहीं जा रहा है ?’ मेरी बात को सुनकर दो-चार शिक्षक और आ गया और फिर मुझसे मेरा परिचय पूछने लगे। जब मैंने उन्हें बताया कि मैं तेवरआनलाईन के मैटर की तलाश में हूं तो वे सहजता से बातचीत के लिए तैयार हो गये। एक शिक्षक ने अपने नेता को भी बुला लिया। उन्होंने आते ही शिक्षकों की समस्या उड़ेलनी शुरु कर दी, ‘आपको पता है यहां शिक्षकों की क्या स्थिति है। किस परिस्थिति में हमलोगों को पढ़ना पड़ता है।’

‘भला मुझे कैसे पता होगा, मैं कोई शिक्षक थोड़े ही हूं। आप जो बताएंगे वहीं मैं जानूंगा और वही मैं लिखूंगा। बेहतर होगा इस मामले में आप मुझे एजुकेट करें,’ उस नेता शिक्षक की तरफ मुखातिब होते हुये मैंने कहा।

‘हमलोग नियोजित शिक्षक है। साल में मात्र दो बार हमें वेतन मिलता है। हम भूखे है हमारा परिवार भूखा है। इसके बावजूद हम बच्चों को पढ़ा रहे हैं। अब हमारी स्थिति धोबी के कुत्ते वाली हो गई है, न घर के न घाट के। पुराने शिक्षकों को 40-50 हजार वेतन मिल रहा है और हमारे लिए सरकारी खजाना हमेशा खाली रहता है। इतना ही नहीं हमें गैर शैक्षणिक कार्यों में भी लगाया जाता है। ऐसे में हमसे क्या उम्मीद की जा सकती है ?’

‘ये तो आपको उस वक्त सोचना चाहिए था जिस वक्त आपको नियोजित किया जा रहा था। सरकार की ओर से कोई जबरदस्ती तो थी नहीं ?’, मैंने सवाल किया।

‘हमारे पास कोई विकल्प नहीं था, रोजगार की तलाश थी। जो विकल्प दिखा उसमें आ गये,’ मेरे बगल में बैठे हुये एक शिक्षक ने कहा।

‘पुराने जमाने में लोग सामंतों के दास होते थे, उनके यहां बेगारी करते थे। अब हम शिक्षक लोग सरकार के दास हैं। बिहार में लोक कल्याणकारी सरकार लोगों को दास बनाने का काम कर रही है। हमारी संख्या चाहे जितनी भी हो, हम इस सरकार को देखना नहीं चाहते हैं। अब इस सरकार को भी समझ आ जाएगी। इस आक्रोश का असर दिख रहा है। बिहार में लोकसभा चुनाव में शिक्षकों की वजह से ही नीतीश कुमार को झटका लगा है।’

‘एक तो बिहार में देहाती बच्चों की अंग्रेजी बिगड़ी हुई है, ऊपर से आप लोग सरकार को पानी पीपीकर कोस रहे हैं, शिक्षक के तौर पर आपकी कोई जिम्मेदारी नहीं बनती है ? ’, मैंने पूछा।

‘हम अपनी जिम्मेदारी से नहीं भाग रहे हैं, हम तो बस इतना ही चाहते हैं कि हमारे साथ कोई भेदभाव नहीं हो। हम मेहनत से पढ़ाते हैं, उसके ऐवज में हमें सही वेतन तो मिलनी ही चाहिए,’ सामने बैठे शिक्षक नेता ने कहा।

‘तो फिर देहाती छात्रों की अंग्रेजी कमजोर क्यों है ?’

‘देखिये यदि आप चाहते हैं कि सभी की अंग्रेजी अच्छी हो तो, अंग्रेजी को अनिवार्य विषय बनाना जरूरी है। अभी अंग्रेजी अनिवार्य विषय है। देहाती छात्र इस विषय को गंभीरता से नहीं लेते हैं। एक बार अंग्रेजी अनिवार्य हो जाएगा तो खुद-ब-खुद छात्र अंग्रेजी पर ध्यान देने लगेंगे।’

‘तो आप चाहते हैं कि यहां के बच्चों को जबरदस्ती अंग्रेजी पढ़ाया जाये।’

‘बेशक, जबरदस्ती तो करनी ही पड़ेगी। वैसे बिहार में शिक्षा को लेकर एक साथ कई लेवर पर कार्य करने की जरूरत है।’

‘पंचायती शिक्षा व्यवस्था से भी यहां की शिक्षा को भारी नुकसान पहुंच रहा है’,  दूर बैठे एक शिक्षक ने अपनी बात रखी।

‘वो कैसे’, मैंने उसकी तरफ देखते हुये पूछा।

‘पंचायत स्तर पर प्राइमरी शिक्षकों की नियुक्ति का अधिकार पंचायत प्रतिनिधि को मिला हुआ है। पंचायत प्रतिनिधि पैसे लेकर शिक्षकों की बहली कर रहे हैं। शिक्षकों में गुणवत्ता का ध्यान नहीं दिया जा रहा है। ज्यादतर पंचायत प्रतिनिधि अपने सगे-संबंधियों को ही रख रहे हैं। ’

एक ओर बाहर बारिश की रफ्तार लगातार बढ़ती जा रही थी, तो दूसरी ओर क्लास में बैठी हुई शिक्षकों की टोली बिहार के शिक्षा का पोस्ट मार्टम करने में लगी हुई थी। बाचतीच का दायरा विस्तार ले चुका था। और उनकी बातचीत से साफ लग रहा था कि अपनी वर्तमान स्थिति से वो बुरी तरह से नाखुश हैं, वे इस अहसास के साथ जी रहे हैं कि बिहार में शिक्षक बनकर उन्होंने सबसे बड़ी गलती है, बिहार सरकार उनके साथ ज्यादती कर रही है। खुद को असहाय बताते हुये वे सरकार पर फुफकार रहे थे। उनकी बातों को सुनकर एक साथ कई प्रश्न मेरे दिमाग में घूमने लगे, क्या अंदर से टूटे हुये ये शिक्षक वाकई में बिहार की शिक्षा को संभालने की स्थिति में है? नियोजित शिक्षकों एक अलग वर्ग खड़ा करके क्या बिहार सरकार ने शिक्षा के क्षेत्र में एक बड़ी विभेदकारी गलती नहीं की है ? क्या क्वालिटी शिक्षा सरकार की पकड़ से छिटक रही है ?  क्या यदि अभी हम इन सवालों को पीठ दिखाते हैं तो आने वाले दौर के लोग इस काबिल होंगे कि वे मजबूती से अपने व्यक्तित्व को समाज में स्थापित कर सके ? बाहर बारिश तेज हो रही थी, और लंबी बातचीत के बाद सिगरेट की तलब मुझ पर हावी चली थी। उनसे फुरसत पाकर जैसे ही मैं क्लास से निकल बरामदे में आया, युवा शिक्षक नेता मेरे पास आकर खड़ा हो गया और गुस्से में बोला, ‘सैद्धांतिक तौर पर हम चाहे कुछ भी कह ले, बिहार में चुनाव जातीय आधार पर लड़ी जाती है। महागठबंधन जातीय गुटबंदी के आधार पर ही आगे बढ़ेगा। बिहार की यही हकीकत है। यहां के नेता इस बात को अच्छी तरह से जानते हैं कि यहां के जातीय समीकरण को दुरुस्त रखना जरूरी है।’

‘इलेक्शन के समय दिमाग ही फिर जाता है, पता नहीं कौन सी हवा बहने लगती है’, उसके साथ आने वाले एक शिक्षक ने कहा।

बरामदे में भीड़ थी। लोग बाते कर रहे थे। उनकी अनदेखी करते हुये मैं  मुख्य कार्यालय में दाखिल हुआ। एक आलमीरा पर एक कॉपी मिली, जिसके पन्नों पर जिसमें संगीत और सुर के बारे में लिखा हुआ था, मसलन, तबले के ठेक जहां से शुरु होती है उसे सम कहते हैं। स्वरों का वह छोटा समुदाय जिसे गाने से किसी राग का पता चलता है उसे पकड़ कहते हैं। बरामदे में बैठकर बारिश का मजा लेते हुये मैं कॉपी लिखे गये शब्दों को पढ़ता रहा।

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