उत्तर आधुनिक शिक्षा में मटुकवाद

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हरिशंकर राढ़ी

(यह व्यंग्य समकालीन अभिव्यक्ति के जनवरी -मार्च 2010 अंक में प्रकाशित हुआ था ।)

वाद किसी भी सभ्य एवं विकसित समाज की पहचान होता है, प्रथम अनिवार्यता है। वाद से ही विवाद होता है और विवाद से ऊर्जा मिलती है। विवाद काल में मनुष्य की सुसुप्त शक्तियां एवं ओज जागृत हो जाते हैं। विवाद से सामाजिक चेतना उत्पन्न होती है। लोग चर्चा में आते हैं। जो जितना बड़ा विवादक होता है, वह उतना ही सफल होता है।

आदमी जितना ही बौद्धिक होगा, उतना ही वाद होगा। जिस समाज में जितने ही वाद होंगे, वह उतना ही विकसित एवं सुशिक्षित माना जाएगा। वस्तुतः वाद का क्षेत्र अनन्त है, स्थाई है किन्तु साथ-साथ परिवर्तनशील भी है। इसका व्याप्ति क्षेत्र एवं कार्यक्षेत्र दोनों ही असीमित है। अब तो यह पूर्णतया भौमण्डलिक भी होने लगा है। इस पर तो एक सम्पूर्ण शोध की आवश्यकता है। कमी है तो बस केवल शुरुआत की। एक बार शुरुआत हो जाए तो देखा-देखी शोध ही शोध ! बुद्धि के क्षेत्र में अपने देश का शानी वैसे भी सदियों से कोई नहीं रहा है। अब जहां इतनी बुद्धि है वहाँ वाद तो होंगे ही। सच तो यह है कि यह देश ही वाद की वजह से जीवित है। जैसे-जैसे देश की आबादी बढ़ी, वाद का परिवार भी बढ़ता गया और वाद-विवाद, प्रतिवाद, संवाद एवं परिवाद भी संतान रूप में इसके परिवार में सम्मिलित होते गए।
मुझे लगता है कि वादों की श्रृंखला मनुवाद से हुई होगी और जाकर मक्खनवाद पर समाप्त मान ली गई होगी। मनु की व्यवस्था के गतिशील होने का बाद तमाम तरह के वाद आते गए। द्वैतवाद-अद्वैतवाद, शैववाद -अशैव वाद के नाम पर सिरफुटौव्वल पहले के मनीषियों का मनपसन्द टाइमपास था। मध्यकाल तक आते-आते कर्मवाद और भाग्यवाद जोर पकड़ने लगे। भाग्यवाद ने जोर मारा तो विदेशियों का आक्रमण एवं शासन हुआ। हमें शासन करने से भी छुटकारा मिला।होइ कोई नृप हमहिं का हानी! जैसे तैसे उनके शासन के बाद आजाद हुए तो पुनः भाग्यवाद का ही सम्बल मिला और आज भी उसी के सहारे अपना देश चल रहा है।
हम एक तरह के स्वाद के आदती नहीं हैं, अतः हमारा इससे भी ऊबना स्वाभाविक था। विकर्षण हो गया इससे। भाग्यवाद में एकता और समरसता होती है, अत्याचार सहने की क्षमता होती है। प्रतिक्रिया का कोई स्कोप ही नहीं होता। अतः देश के नेतृत्व को बेचैनी हुई। सोई जनता को जगाना परम आवश्यक हो गया। इतना बड़ा भाग्यवाद भी क्या कि आप मतदान के लिए न निकलें! चूँकि वाद के बिना समाज का कोई अस्तित्व ही नहीं होता इसलिए पहले भाग्यवाद का स्थानापन्न लाना जरूरी था। काफी सोचविचार के बाद सम्प्रदायवाद,जातिवाद, क्षेत्रवाद एवं भाषावाद के चार विकल्प उपलब्ध कराए गए। परिणाम सामने है- आज लोकतंत्र अपने चरम उत्कर्ष पर है।

अपने यहां की वाद की विविधता का कोई जवाब तो है ही नहीं! कौन सा वाद है जो अपने यहाँ न हो! समाज के हर वर्ग के लिए यहाँ वाद की व्यवस्था की गई है क्योंकि वाद के बगैर मनुष्य मनुष्य की श्रेणी में आता ही नहीं। विविधता को एकता की कड़ी में पिरोया गया है। एक मनीषी द्वैतवाद-अद्वैतवाद के विकास में लगे तो दूसरे संभोगवाद में। पुरानी हर चीज क्लॉसिकल होती है, आप इस तथ्य को नकार नहीं सकते। अपना देश तो हर मामले में क्लॉसिकल रहा ही है, अगर आप जरा सा भी देशभक्त होंगे तो इस बात का विराध करेंगे ही नहीं।पाश्चात्य देश अब जाकर इक्कीसवीं शताब्दी में भोगवाद का नारा दे पा रहे हैं। आज वे ब्ल्यू फिल्मों एवं पोर्न साइटों के सहारे आदमी को थोड़ा सा शारीरिक सुख प्रदान करने का दावा कर रहे हैं। स्त्री शरीर के कुछ उल्टे-पुल्टे तरीके दिखाकर आप एडवांस बन रहे हैं। इन्हें कौन समझाए कि भोगवाद में हमारे जैसा क्लॉसिकल होना आपके बूते का नहीं ! फिल्मों की बात छोड़िए, जब आपको अ अनार भी नहीं आता था तो हमारे यहां आचार्य जी ने चौरासी आसनों का शास्त्रीय अविष्कार कर दिया था। ऐसे-ऐसे आसन कि भोग करो तो योग अपने आप ही हो जाए! कुछ में तो सर्कस की सी स्थिति बन जाए या फिर हड्डियां चटक जाएं। फिर भी आप हमें पिछड़ा समझते हैं? लानत है आप पर!

वाद परम्परा मनुवाद से शुरू होकर मक्खनवाद पर ठहर सी गई थी। निराशावादियों को लगा कि देश सो गया है, देश की नाक की किसी को चिन्ता ही नहीं। शिक्षा का पतन हो गया होगा और शोध बन्द हो गए होंगे। अध्ययन के नए तरीके और अध्ययन में नए वाद कि लिए बुद्धिजीवी आगे आ ही नहीं रहा होगा। इससे पहले कि लोग अन्तिम रूप से निराश हों, देश की शिक्षा पद्धति में एक अभूतपूर्व वाद पैदा ही हो गया और वह था मटुकवाद।
परम्परा यह है कि किसी भी वाद का नामकरण उसके प्रवर्तक के नाम पर ही आधारित होता है जैसे कि मार्क्सवाद, माओवाद, नक्सलवाद या फिर मनुवाद। इस हिसाब से नव आविष्कृत वाद का नाम भी इसके आविष्कारक प्रो० मटुकनाथ के नाम पर न होना उस महात्मा के साथ घोर अन्याय होगा।

इन प्रोफेसर साहब का आविर्भाव देश की एक अनन्य उपजाऊ धरती पर हुआ। वह हिस्सा ज्ञान के क्षेत्र में तबसे अग्रगण्य था जब शताब्दियाँ भी शुरू नहीं हुई थीं । जब दुनिया का नक्शा भी नहीं बना था तो वहां विश्व विद्यालय था। कई यात्री तो ज्ञान की लालच में उत्तर से पैदल-पैदल ही पहाड़ पार करके आ गए थे और हैरत की बात यह कि बिना लुटे-पिटे ही वापस भी चले गए थे। अब, जब शिक्षा बिलकुल नीरस और उद्देश्यहीन हो गई तो एक बार फिर वही धरती आगे आई और एक रोचक एवं अत्यन्त उपयोगी वाद का प्रादुर्भाव हुआ।
मटुकवाद शिक्षा के क्षेत्र में एक अभूतपूर्व क्रान्ति है। पहली बार ऐसा कुछ हुआ कि किसी प्राध्यापक ने अपने बलबूते कुछ कर दिखाया और एक अत्यन्त व्यावहारिक ज्ञान को पाठ्‌यक्रम की विषय वस्तु बनाया । हकीकत तो यह है कि इसके पहले महाविद्यालय और विश्वविद्यालय स्तर तक अनुपयोगी और अव्यावहारिक सिद्धान्त पढ़ाये जाते रहे हैं। अरस्तु -आइंस्टाइन से लेकर लेनिन- लोहिया के सिद्धान्तों का इन्ट्रावेनस इंजेक्शन ही ठोंका जाता रहा है अब तक जवानी से पीड़ित बेचारे छात्र-छात्राओं को! किसी ने इनकी प्राकृतिक आवश्यकताओं को समझने की कोशिश ही नहीं की, जैसे कि खाने-पीने और पढ़ने-लिखने के अलावा इनकी और कोई काम ही नहीं हो!

इससे पहले कि मटुकवाद की महत्ता पर कुछ प्रकाश डाला जाए, इसकी परिभाषा समझ लेना जरूरी है। जब कोई अध्यापक या प्राध्यापक किशोरावस्था पार करती अपनी ही किसी लावण्यमयी शिष्या को प्यार का ऐसा पाठ पढ़ा दे कि वह उस अध्यापक या प्राध्यापक पर ही मर मिटे या विवाह बंधन में बंधने को अड़ जाए तो इसे मटुकवाद कहते हैं। स्मरण रहे कि यहां छात्रा एवं प्राध्यापक की उम्र में कम से कम बीस वर्ष का अन्तर होना आवश्यक है। यदि किसी छात्रा का आकर्षण- समर्पण किसी युवा या अविवाहित प्राध्यापक के प्रति है तो इसे मटुकवाद नहीं माना जाएगा। इसे चिरातनकाल से ही स्वाभाविकवाद माना जाता रहा है।पूर्ण मटुकवाद तभी होता है जब प्राध्यापक विवाहित हो और उसके अपनी संतान छात्रा के समवयस्क हों।

इस परिभाषा पर विद्वान एकमत नहीं होंगे, यह मैं समझता हूँ । जो एकमत हो जाए वह विद्वान हो ही नहीं सकता। इस परिभाषा में बहुत सारी खोट ढूंढी जांएगी और अपवादों का हवाला दिया जाएगा। इसीलिए यहाँ परिभाषा को उद्धरण चिह्‌न के अन्दर नहीं रखा गया है। केवल लक्षण ही बताया गया है। ऐसा नहीं है कि मटुकवाद सर्वथा नई धारणा या घटना है। ऐसा भी नहीं है कि प्राध्यापकगण इससे पूर्व अपनी शिष्या के नागपाश में नहीं बंधे या शारीरिक संवाद से अनभिज्ञ रहे,परन्तु वे वाद का पेटेन्ट अपने नाम से नहीं करा सके।ठीक उसी प्रकार जैसे कि हल्दी,चंदन एवं नीम का ओषधीय प्रयोग अपने देश में सदियों से होता रहा किन्तु पेटेन्ट तो अमेरिका ने ले लिया!
माना कि प्रो० मटुकनाथ से पूर्व और उनकी उम्र से काफी अधिक या यूँ कहें कि श्मशानोंमुख असंखय प्राध्यापकों ने ऐसा या इससे भी ज्यादा पहले किया था, किन्तु वे इसे आदर्श रूप में प्रस्तुत नहीं कर पाए थे।उनके अन्दर न तो इतना साहस था और न ही क्रान्ति की कोई इच्छा। जो भी किया, चुपके से किया। छात्राओं के सौन्दर्य एवं कमनीयता का साङ्‌गोपांग अध्ययन किया, गहन शोध किया और अपनी गुरुता प्रदान कर दी । प्रत्युपकार भी किया, पर चुपके-चुपके। आज न जाने कितनी पीएचडियाँ घूम रही हैं और न जाने कितने महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में ज्ञान बांटकर पैसे और इज्जत बटोर रही हैं, देश की बौद्धिक सम्पदा की प्रतीक बनी बैठी हैं। ये बात अलग है कि गुरुजी ने कितना बड़ा समझौता शिक्षा जगत से किया, कितना बड़ा पत्थर सीने पर रखा, ये वही जानते हैं। पर मन का क्या करें? अब वे भी उदार भाव से पीएचडी बाँट रही हैं। प्रोफेसर साहब की असली शिष्या जो ठहरीं!
पर दाद देनी होगी अपने प्रोफेसर मटुकनाथ जी को जिन्होंने इस तरह के गुमशुदा एवं निजी संबन्धों को मान्यता प्रदान की और मटुकवाद स्थापित किया। उनको एक उच्च दार्शनिक की श्रेणी में रखना चाहिए। इस तरह का साहसिक निर्णय कोई दार्शनिक ही कर सकता है। ये बात अलग है कि ऐसे लोगों को दुनिया पागल मान लेती है। हालांकि प्रेमी, पागल और दार्शनिक में कोई मूल अन्तर नहीं होता। सुकरात को जहर दे दिया और अरस्तू की छीछालेदर में कोई कसर नहीं छोड़ी । इतने दिनों बाद ही हम उनकी बात जैसे-तैसे समझ पाए हैं। मार्क्सवाद ,लेनिनवाद को ले लीजिए, कितने दिनों बाद जाकर इसे प्रतिष्ठा मिली! अपने मटुकनाथ ने भी कोई कम प्रताडना नहीं झेली। लोगों ने चेहरे पर कालिख पोती, चरण पादुकाओं का हार भी पहनाया पर इस महात्मा के चेहरे पर शिकन नहीं आई। प्रेम पियाला पीने वाला इस दुनिया की परवाह करता ही कब है ? मीरा ने तो जहर का प्याला पी लिया था।

सर्वमान्य तथ्य तो यह है कि मनुष्य अधेड़ावस्था के बाद ही स्त्रीदेह के सौन्दर्य को आत्मसात कर पाता है, ठीक वैसे ही जैसे वास्तविक शिक्षा विद्यार्थी जीवन के बाद ही प्राप्त होती है।विद्यार्थी जीवन में तो मनुष्य परीक्षा पास करने के चक्कर में रट्टा मारता ही रह जाता है, अर्थ समझ में ही नहीं आता! अधेड़ अवस्था से पूर्व तो वह एक्सपेरिमेन्ट के दौर से ही गुजरता रह जाता है। गंभीरता नाम की कोई चीज होती ही नहीं, बस भागने की जल्दी पड़ी होती है।ऐसी स्थिति में एक नवयुवक किसी नवयौवना को क्या खाक समझेगा ? कमनीयता की उसे कोई समझ ही नहीं होती! जब तक वह समझदार होता है, सहधर्मिणी में खोने लायक कुछ बचा ही नहीं होता। अतः पचास पार की उम्र में ही वह एहसास कर पाता है कि किशोरावस्था पार करती छात्रा वास्तव में होती क्या है ? मटुकवाद की गहराई में जाएं तो अर्थ यह निकलता है कि ऐसी छात्रा एकदम नई मुद्रित पुस्तक का मूलपाठ होती है- बिना किसी टीका-टिप्पणी एवं अंडरलाइन की! अब उसका अर्थबोध, भावबोध एवं सौन्दर्यबोध तो कोई अनुभवी प्राध्यापक ही कर सकता है, एक समवयस्क छात्र नहीं जिसका उद्देश्य गाइडों एवं श्योर शाट गेस्सपेपर से शार्टकट रट्टा मारकर परीक्षा पास करना मात्र है।
गुरूजी इतना कुछ करके दिखा रहे हैं।लर्निंग बाइ डूइंग का कान्सेप्ट लेकर चल रहे हैं। प्रेम करने की कला छात्र उनसे निःशुल्क प्राप्त कर सकते हैं।परन्तु वे अनुशासनहीन होते जा रहे हैं। प्रोफेसर साहब के खिलाफ ही हंगामा खड़ा कर दिया। मजे की बात यह कि बिना शिकायत के ही पंचायत करने आ गए। छात्राजी की शिकायत बिना ही संज्ञान ले लिया। अपने यहाँ तो पुलिस और प्रशासन भी बिना शिकायत कार्यवाही नहीं करते। हकीकत तो यह है कि शिकायत के बाद भी कार्यवाही नहीं करते और एक ये हैं कि बिना शिकायत ही दौड़े चले आ रहे! शायद यह सोचा होगा कि उनके हिस्से की चीज गुरूजी ने मार ली, वह भी इस आउटडेटेड बुड्‌ढे ने!

अब इन मूर्ख शिक्षार्थियों को कौन समझाए कि आखिर वो बेचारी मिस कूली अकेली क्या करती । सारी की सारी शिक्षर्थिनियाँ तो गर्लफ्रेण्ड बन चुकी थीं, वही बेचारी अकेली बची थी। तुम्हें तो फ्लर्ट करने से ही फुरसत नहीं! वैसे भी समलैंगिकता को मान्यता मिलने के बाद तुम्हें लड़कियों मे कोई इन्टरेस्ट नहीं रह गया है। तुम्हारे भरोसे तो वह कुँआरी रह जाती ! लेस्बियनपने का लक्षण न दिखने से वैसे ही पुराने एवं संकीर्ण विचारों की लगती है। ऐसी दशा में उसे पुरानी चीजें ही तो पसन्द आतीं और उम्र में तिगुने गुरूजी पसन्द आ गये तो हैरानी किस बात की।

असमानता तो बस उम्र की ही है। इतिहास भी असमानता की स्थिति में ही बनता है।प्रो० साहब उम्र और ज्ञान में बिलकुल ही भिन्न हैं तो इतिहास बना कि नहीं? शिक्षार्थी गण , अगर आप में से कोई मिस कूली को हथिया लेता तो क्या आज शिक्षा के क्षेत्र में मटुकवाद का आविर्भाव होता ?
मानिए न मानिए, मिस कूली बहुत ही उदार, ईमानदार एवं गुरुभक्त है। समर्पण हो तो ऐसा ही हो! कहाँ एक तरफ गुरू का कत्ल करने वाले आज के शिष्य गण और कहाँ गुरु को इतना प्यार करने वाली शिष्या! गुरुऋण से मुक्ति पा लिया।अब अगर गुरु ही ऋण में पड़ जाए तो पड़े । बिना दहेज ही सेटेल्ड पति पा लिया, वर्तमान पगार से लेकर निकट भविष्य में मिलने वाली पेंशन का अधिकार भी सहज ही मिल गया, इस जमाने में ऐसा भाग्य सबका कहाँ ? ज्ञानियों ने कहा है कि शादी उससे मत करो जिसे तुम प्यार करते हो बल्कि उससे करो जो तुम्हें प्यार करता हो। तुम्हारा क्या, तुम तो किसी से प्यार कर सकते हो! वह तो अपने हाथ में है।

युगों से शिक्षा जगत नीरसता का रोना रो रहा है। शिक्षाविदों के हिसाब से शिक्षा व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास करती है। यहां शिक्षा केवल सूचनाओं का संकलन मात्र बनकर रह गई है। करने के नाम पर कुछ रह ही नहीं गया है। सृजन का कोई स्कोप ही नहीं रहा। बड़े-बड़े शिक्षाविद भी भारतीय शिक्षा को रोचक नहीं बना पाए। शैक्षिक अनुसंधान परिषद् सिर पटकते रह गए परन्तु लर्निंग ज्वॉयफुल बन ही नहीं पाई।कम्प्यूटर, खेल, संगीत एवं कार्य शालाएं सफेद हाथी ही सिद्ध हुए। पोथी पढि़ -पढि़ जग मुआ। पर , अपने मटुकनाथ मिस कूली से मिलकर एक ही झटके में शिक्षा को रोचक एवं उद्देश्य पूर्ण बना दिया।ज्ञानयोग एवं प्रेमयोग का अनूठा संयोग शिक्षा को मृगमरीचिका से बाहर लाया। बुजुर्ग एवं युवा पीढ़ी का मिलन हो गया। जेनरेशन गैप की अवधारणा निर्मूल सिद्ध होने लगी। शिक्षक एवं शिक्षर्थिनियाँ एक दूसरे के हो गए। पुरानी वर्जनाएँ टूट गई। शिक्षा में यह एक नए युग का सूत्रपात है। माना कि कुछ लोग विरोध में भी हैं, पर विरोध किस वाद का नहीं हुआ है ? पोंगापंथी कब नहीं रहे ? पर हाँ, यदि हमें एक सम्पूर्ण विकसित देश बनना है और पाश्चात्य जगत को टक्कर देनी है तो मटुकवाद को समर्थन देना ही होगा।

 (साभार इयता ब्लाग)

2 COMMENTS

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