चाहती हूँ औरो की तरह जीना : बिंदिया किन्नर
मानवीय नहीं ईश्वरीय भूल का परिणाम मानते हैं आम लोग किन्नर के जन्म को। प्रकृति की एक चूक और समाज की मुख्यधारा से विमुख व्यक्तित्व। शारीरिक विकृति उन्हें आमजन से भले अलग कर दे पर उनके सीने में धड़कने वाला दिल आम इन्सानों का ही है। उनकी भावनाएं उनकी जुबान से जब निकलती है तो अनायास आंखे भर आती हैं । जानीपुर पटना के बिंदिया किन्नर से जब बातचीत की गयी तब ऐसी ही कुछ दर्द भरी कहानी निकल कर सामने आयी । पेश है उस बातचीत के अंश।
गोरा रंग, चकलेटी चेहरा खूबसूरत शरीर और अत्यंत मधुर भाषा बिदिया किन्नर को औरो से अलग चिन्हित कर रहा था। पूरे ग्रुप में बिंदिया किन्नर को मैंने बातचीत के लिए चुना तथा जब सारी बातें खुल कर आई तो किन्नरों का दर्द दिल को छू गया।
दो भाई और छोटी बहन के रुप में बिंदिया का पालन पोषण माता पिता ने बड़े प्यार से शुरु किया। भाई सामान्य थे पर बिंदिया असामान्य। तीनों बच्चों के लिए माता-पिता का प्रेम बराबार था। दोनों बड़े भाइयों की दुलारी थी बिंदिया । बिहार की एक संपन्न जाति (अवध्या कुर्मी) में जन्मी बिंदिया का दर्द तब शुरु हुआ जब उसके माता-पिता की मृत्यु हो गई, जीविकोपार्जन के लिए उसे अपने भाइयों के साथ देश की राजधानी दिल्ली जाना पड़ा। महज 20-22 साल की बिंदिया को दिल्ली में काम तो मिल गया पर उसकी बाडी लैंग्वेज ने लोगों को यह अहसास करा दिया कि वह औरों की तरह नहीं है। फिर क्या था जिस फैक्टरी में वह काम करती थी वहां किन्नरों का दल उसे अपने साथ लेने पहुंच गया। भाइयों ने किसी तरह से उन्हें मान मन्नौवल कर फिर आने की बात कही और बिंदिया को इस भय से कहीं दिल्ली की भीड़ में बिंदिया गुम न हो जाये, पटना ले आये। दोनों भाई अच्छी नौकरी करते थे और बिंदिया जो उनकी लाड़ली बहन थी को अपने से दूर न करने के लिए उसे घर में रहने की सलाह दी। पर यहां भी वह किन्नरों के दल की नजर में आ गई और उन लोगों ने उसे अपने साथ कर लिया। किन्नरों का तर्क होता है कि जहां कहीं किन्नर जन्म लेतें हैं उसे ईश्वर उनके लिए धरती पर भेजता है। तर्क कितना तर्कसंगत होता है उसे किसी किन्नर की तकलीफ ही बयान कर सकती है।
आंखों में आँसू भरकर अपनी कहानी बयां करते करते बिंदिया ने मुझे अपने माता-पिता का दर्जा दे दिया । मैंने अपने माता पिता को खो दिया है तथा आज अपने भाईयों से भी दूर हो गयी हूँ पर आप में मुझे सब की छवि दिख रही है । सब कुछ होते हुये ईश्वर ने एक कमी दे दी अन्यथा हमारा भी घर होता परिवार होता और हम भी औरों की तरह जीवन जीते। काफी दिनों से दिल्ली में काम करती रही आज इस तरह ग्रुप में नाच गा कर पैसे मांगना मुझे बिल्कुल अच्छा नहीं लगता । मैं तो अपने दम पर कमाकर खाना चाहती हूँ। किसी तरह की सरकारी सहायता के बाबत पूछने पर जवाब था ,अच्छे परिवार से हूँ अत: भाई आज भी हमेशा मदद करते रहते हैं पर अब नाच-गान में आकर खराब हो गयी हूँ इसलिये घर वापसी संभव नहीं। एक भाई की शादी हो गयी है तथा दूसरे की शादी होने वाली है । तकलीफ होती है कि अब अपने ही भाई की शादी में नाचने गाने के लिये जाकर शामिल होना होगा । अब तो इसे ही अपना नसीब मान लिया है ।मतदाता पहचान पत्र बन जाये और सामुहिक रूप से किन्नर समुदाय की सुविधा के लिये नीतीश सरकार से जरूर इच्छुक दिखीं। दिल की एक हसरत जरूर बाकी है कि कहीं काम मिल जाये तो काम करके कमाये नाच गा कर नहीं।
Nice Information provided by you.
Thanks
कुछ और डिटेल की डिमांड करता है यह रिपोर्ट .दरअसल यह विषय ही ऐसा है कि इस पर अधिक से अधिक जानना चाहते हैं लोग. उम्मीद है कि इस पर और भी काम दिखेगा तेवर में.
Hi Anita I’ve observed that u try to bring out the issues which exist in the society and which really need people’s concern.This is appreciable.I congratulate u for your nice attempt . keep it up………
dil & dimag ko chhu gaya.
samvedanaon ki marmik abhivyakti.
adbhut.
birendra
09304170154
aakhir kinnar samudaay aise bachcho ko kyon le jana chahta hai.yadi aisa na ho to shayad ma baap apne bachcho ko saralata se paal sakte hai.ummeed hai stithi jaroor sudharne vali hai/
Bitter truth
अहम सवाल है कि जब एक आम आदमी लोन लेकर पान-चाय की दुकान खोल सकता है तो किन्नर क्यों नहीं। किन्नरों को हमने समुदाय से काट रखा है। हमने मान लिया है कि वे कुछ नहीं कर सकते। यही कारण है कि बैंक वाले भी उन्हें लोन नहीं देते हैं, जबकि आरबीआई ने ऐसा कोई गाइड लाइन जारी नहीं किया है। हमें इनके लिए खुद आगे आना होगा। विकलांगों की तरह इन्हें भी रोजगार-सुविधाएं मिले इसके लिए लड़ना होगा। सरकार पर दबाव बनाना होगा।
एम. अखलाक
गांव जवार (लोक कलाकारों का जनसंगठन)
संपर्क – 9234581118
मुझे इन पर हमेशा सहानुभूति रही है क्यूँ की इन पर दोहरी मार पड़ी है एक तो प्रकृति की और दूसरी उन लोगो की जो हँसते है उन लोगो पर ………..हम ये क्यूँ भूलते हैं की ये भी उसी ईश्वर के बनाये हुए है जैसे की हम ……….
सचमुच किन्नरों के भी दिल ही होते हैं…अनिताजी, आपने ऐसे आलेख से सामाजिक रूप से बहिष्कृत माने जाने वाले एक समुदाय की पीड़ा को सामने रखा… किन्नरों का जीवन काफी संघर्ष भरा होता है…. दिखने में तो एकदम आम आदमी की ही तरह ही होते हैं, लेकिन लैंगिक रूप से आम पुरुषो , या स्त्रिओ से एकदम अलग…हमारा समाज ऐसे लोगो से कुछ इस तरह बर्ताव करता है, मानो ये कोई परग्रही हो…इनका मजाक बनाया जाता है, जिसके कारण किन्नर समाज की मुख्या धारा से एकदम अलग थलग पड़ जाते हैं… कहने को तो ये विभिन्न रस्म रिवाजो तथा समारोहों में नाच गाना गाना करते हैं, लेकिन असल में ये देह व्यापार से जुड़े होते हैं….अधिकांश किन्नर समलैंगिक होते हैं.. ट्रेनों में ये हमें अक्सर मिल जाते हैं – जबरन पैसे वसूलते हुए, यात्रिओं के साथ अभद्र व्यवहार करते हुए.. या, ट्रेन के किसी शौचालय में किसी पुरुष के साथ … इनके ऐसा हो जाने में हमलोग कई मायनो में दोषी हैं… हमारा कुंठित समाज आम लोगो की तरह कोई पेशा करने, या व्यवसाय करने पर किन्नरों का उपहास उडाता है… किन्नरों के झुण्ड में ये कितने सहज हैं ,ये पता नहीं, पर ये असुरक्षा और सामाजिक उपहास के डर से ही ऐसा करते हैं…