अदृश्य तलवार की तरह लटकता रहता है तीन तलाक !

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मंसूर आलम

तीन तलाक़ का मसला अगर औरतों की नज़र से देखा जाए तो बहुत ही भयावह है। एक औरत को जब तलाक़ किसी चिट्ठी पर लिख कर भेज दिया जाता है, जब whatsapp पर लिख कर भेज दिया जाता है, शराब के नशे में , भूख और प्यास की हालत में, गुस्से की हालत में कह दिया जाता है, तो इसका एहसास सिर्फ या तो उस औरत को हो सकता है या उसके पिता, भाई और बहन को हो सकता है।

मेरे पास कई उदाहरण हैं जब मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के सदस्यों ने अपने मामलों में तीन तलाक़ को नहीं माना और उनहोंने अपनी बेटी और बहन का घर उजड़ने से बचाने के लिए अहले हदीस का दरवाज़ा खटखटाया।

तीन तलाक़ किसी भी सूरत में जाएज़ नहीं है और हर मुसलमान जिसके यहाँ बेटी और बहन है अपने सर पर एक अदृश्य तलवार हमेशा लटका हुआ पाते हैं। इल्म की रौशनी में देखा जाए तो एक बात पक्की है कि मौजूदा तलाक़ की जो शक्ल है वह कुरान में नहीं है। वह किसी खलीफा की तरफ से एक सीमित समय में उठाया गया क़दम है और वह उस वक़्त पनप रही एक बुराई को रोकने के लिए था। वह बुराई अल्लाह का शुक्र है अब नहीं है।

मैंने देखा है कि जहाँ गरीबी और जाहिलियत है वहां किस तरह से तीन तलाक़ और हलाला का ग़लत इस्तमाल मौलवियों ने किया। हलाला पूरी तरह से अमानवीय है और कुरान में इसका कहीं भी ज़िक्र नहीं है। सवाल यह उठता है कि यह उम्मत कहाँ ऐसे मामलों में फंस गयी जहां कुरान को दरकिनार करके एक अस्थायी प्रावधान को दीन का हिस्सा बनाया जा रहा है।

अल्लाह के रसूल (स.अ.व.) का कौल है कि मैं अपने बाद कुरान और सुन्नत छोड़े जा रहा हूँ तुम इसको कस के थामे रहना कभी गुमराह नहीं होगे। फिर हम गुमराह क्यों हो गए?

तीन तलाक़ का मामला संगीन है और यह औरतों के हुकूक (अधिकारों) की पामाली (हनन) है इसे अतिशीघ्र खत्म होना चाहिए। अब सवाल यह उठता है कि इसका बदल क्या होगा?

तीन तलाक़ खत्म होना चाहिए या नहीं यह बहस का विषय ही ग़लत है। बहस इस पर होना चाहिए कि तीन तलाक़ को समाप्त करके कौन सा विकल्प लाया जाए। क्या भारतीय कानून में जो तलाक़ का प्रावधान है वह सही है? सर्वे इस पर होना चाहिए! पूरे भारत का एक सर्वे कराया जाए तो अंदाज़ा होगा कि तलाक का मौजूदा सिस्टम भारतीय कानून में जो है वह अधिक अमानवीय है। तलाक़ लेने के मामले में सालों लग जाते हैं और पूरा घर बर्बाद हो जाता है। आज मौजूदा कानून सिस्टम का तो यह हाल है कि किसी एक केस का फैसला तीसरी पीढ़ी को मिलता है। इस पहलु पर अगर गौर करें तो मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड अपने आप में अजूबा है जहाँ क़ाज़ी कौम के दिए हुए चंदे से अपना गुज़ारा करते हैं और जोड़े को मुफ्त में फैसला मिलता है। क्या इंडियन जुडिशल सिस्टम को बिना लागत वाला सिस्टम बनाया जा सकता है? क्या इंडियन जुडिशल सिस्टम को समाज सेवी संस्था का दर्जा दिया जा सकता है? आज काले कोर्ट वाले लोग बड़े बड़े आशियाने में रहते हैं। बीएमडब्ल्यू में घुमते हैं। क्या इस सिस्टम को हटाकर इस्लामी मॉडल क़ायम किया जा सकता है? इस पर गौर करने की ज़रूरत है।

क्या बहुविवाह को रोकने के लिए इस बात की मर्द से जमानत ली जा सकती है कि वह दूसरी शादी के लिए पहली बीवी को तलाक़ नहीं देगा? आज ज़्यादातर तलाक़ की वजह प्रेम प्रसंग ही होते हैं? क्या इस प्रथा को रोका जा सकता है?

मानवता की भलाई का ढोंग रच कर अगर मुस्लिम पर्सनल बोर्ड को समाप्त किया जाना है तो इससे बुरा कुछ नहीं होगा। आप भारतीय अदालतों को दुरुस्त कीजिए, उसे कम खर्चीला बनाइए, उसे सभी लोगों के लिए पहुँच के अंदर बनाइए और फिर आप लोगों के सामने विकल्प पेश कीजिए। लोग खुद बखुद आएँगे!

मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड को भी चाहिए कि वह तीन तलाक़ को अविलंब समाप्त करें और कुरान के अनुसार पूरा तलाक़ का सिस्टम लाएं!

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सदियों से इंसान बेहतरी की तलाश में आगे बढ़ता जा रहा है, तमाम तंत्रों का निर्माण इस बेहतरी के लिए किया गया है। लेकिन कभी-कभी इंसान के हाथों में केंद्रित तंत्र या तो साध्य बन जाता है या व्यक्तिगत मनोइच्छा की पूर्ति का साधन। आकाशीय लोक और इसके इर्द गिर्द बुनी गई अवधाराणाओं का क्रमश: विकास का उदेश्य इंसान के कारवां को आगे बढ़ाना है। हम ज्ञान और विज्ञान की सभी शाखाओं का इस्तेमाल करते हुये उन कांटों को देखने और चुनने का प्रयास करने जा रहे हैं, जो किसी न किसी रूप में इंसानियत के पग में चुभती रही है...यकीनन कुछ कांटे तो हम निकाल ही लेंगे।

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