लिटरेचर लव

दारू की तलब

आलोक नंदन

रात के बारह बज रहे थे। बोतल खाली हो चुकी थी, लेकिन प्यास अभी पूरी तरह से बुझी नहीं थी। खाली बोतल को हाथ में लेकर वरिष्ठ टीवी पत्रकार ने एक आंख से उसके अंदर झांकते हुये अंदर का जायजा लेते हुये लड़खड़ाती जुबान में बोला, ‘दो-चार बूंद बाकी है…साला पूरा खंभा गटक गया, लेकिन मामला अभी बना नहीं है…दो बूंद और चाहिए.’ फिर बोतल को अपने मुंह के ऊपर ले गया और अपनी लंबी सी जुबान निकाल कर बोतल में बची बूंदों को उस पर टपकाने लगा। दो-चा बूंद टपकने के बाद बोतल पूरी तरह से खाली हो गई। जुबान पर शराब के स्वाद को जब्त करते हुये उसने बोतल को गुस्से में घूर कर देखा और फिर झटका देते हुये उसके मुंह को जुबान पर पटकने लगा, लेकिन अब बोतल से कुछ नहीं निकला। छककर पीने के बावजूद शराब की तलब उसके ऊपर हावी हो रही थी।

‘एक अध्धा और चाहिए…’, लाल-लाल आंखों से बोतल को घूरते हुये उसने कहा।

‘अब इस वक्त दारू कहां मिलेगा, सारी दुकानें तो बंद चुकी हैं। कार्यक्रम खत्म करो और घर निकलो सब,’ नेता ने कहा। नेता अपने राजनीतिक कैरियर को ट्रैक पर ला चुका था। कुछ दिन पहले ही उसने पार्टी में एक अहम ओहदा संभाली थी और अपने पोलिटिकल फ्यूचर को दुरुस्त करने के लिए कड़ी मशक्कत कर रहा था। बत्ती वाली गाड़ी का सपना उसे दिन रात दिखाई देता था, इसलिए अपनी छवि को लेकर खासा सतर्क रहता था। दुकान बंद होने वाली बात टीवी पत्रकार को अच्छी नहीं लगी। उनके अंदर यह मानसिकता हावी थी कि यदि पत्रकार को आधी रात को भी दारू पीने की इच्छा हो और उसे दारू न मिले तो वह बेकार का पत्रकार है।

‘इस वक्त शहर में दारू नहीं मिलेगा तो जीना बेकार है…’ टीवी पत्रकार ने खाली हो चुके बोतल को जमीन पर लुढ़काते हुये कहा। उसके सामने बैठे एक प्रिंट वाले पत्रकार की तलब भी अभी पुरी तरह से नहीं बुझी थी। थोड़ी की दरकार उसे भी महसूस हो रही थी। जमीन पर लुढ़के हुये बोतल की तरफ देखते उसने कहा, ‘अभी और पीएंगे…बाहर चलते है अड्डे पर। दारू क्यों नहीं मिलेगी…? ’

थोड़ी देर में लड़खड़ाते हुये एक के एक बाद तीनों लोग बाहर निकले। सामाजिक चेतना का भाव नेता के मन में अभी भी हावी था, जबकि बाकी के दोनों पत्रकारों को दारू के सिवाये और कुछ नहीं सूझ रहा था। तीनों गाड़ी में सवार होकर अड्डे पर पहुंचे।

‘यार बार बंद है, अब रहने दो…आज के लिए इतना काफी है’, नेता ने कहा।

दोनों पत्रकारों ने नेता को इस तरह से घूरा मानो उनके मुंह में किसी ने कुनैन की गोली ठूस दी हो। दोनों की नजरें बाहर किसी को तलाश रही थी। तभी बार के सामने बेंच पर लेटे हुये एक आदमी पर उनकी नजर पड़ी।

‘वो देखो…साला सो रहा है….यही माल का प्रबंध करेगा..आओ..’, कार का दरवाजा खोलते हुये टीवी पत्रकार ने कहा और बिना पीछे देखे नीचे उतर कर सामने सोये हुये शख्स की तरफ लड़खड़ाते हुये बढ़ने लगा। टीवी पत्रकार भी उसके पीछे हो लिया, जबकि नेता अपनी ड्राइविंग सीट पर ही डटा रहा।

‘ अबे तू सो रहा है…अभी सोने का टाइम है…अभी तो पीने का टाइम है…चल उठ और एक अध्धा निकाल…’, बेंच पर एक जोर का लात मारते हुये टीवी पत्रकार ने कहा। आदमी गहरी नींद में था। लात पड़ते ही बेंच जोर से हिला और आदमी धड़ाम से जमीन पर गिर पड़ा।

‘कौन है….चैन से सोने भी नहीं देता…’, अपने सामने नशे में झूमते हुये टीवी पत्रकार पर जैसे ही उसकी नजर पड़ी उसका स्वर बदल गया, ‘आप भी हद करते हैं…ये कोई समय है …’

‘ज्यादा थीसीस मत छाड़…और दारू निकाल…’ टीवी पत्रकार ने उसकी बातों को अनसुनी करते हुये कहा। अपना संतुलन बनाये रखने के लिए उसे काफी मशक्कत करनी पड़ रही थी।

‘बार बंद हो चुका है, और अब कुछ भी मिलने वाला नहीं है…’

‘तेरी इतनी औकात कि तू दारू देने से मना करे….साले सूबे के मुख्यमंत्री ने कह रखा है दारू को दवा की तरह पीने के लिए…अभी मुझे इस दवा की जरूरत है और तू कह रहा है दारू नहीं मिलेगा…अभी तेरे होश ठिकाने लगाता हूं…यदि दारू नहीं मिला तो आज रात को ही तेरे मैनेजर और मालिक की भी ऐसी तैसी कर दूंगा…’, टीवी पत्रकार ने थोड़ी ऊंची आवाज में कहा।

‘आप पीछे हटिये मैं देखता हूं….’ टीवी पत्रकार को पीछे करते हुये प्रिंट पत्रकार दो कदम आगे बढ़ा, ‘बात तेरी समझ में नहीं आ रही है…बिना दारू लिये हमलोग वापस जाने वाले नहीं है…दुकान में आग लगा देंगे…लाइसेंस कैंसिल करवा देंगे…जल्दी से दारू निकला…’

‘मैं दारू नहीं दे सकता…आर्डर नहीं है…यदि पुलिस वालों ने देख लिया तो परेशान करेंगे…’

‘पुलिस की ऐसी की तैसी…मुझे देखते ही सब भाग जाएंगे…तुझसे जितना कहा जा रहा है कर…बेकार का बवाल मुझे नहीं चाहिए…’, टीवी पत्रकार ने कहा।

‘आप हद कर रहे हैं…ये कोई तरीका है….’

‘तू मुझे तरीका सीखाएगा…क्यों अपनी हुलिया बिगड़वाना चाहता है…तुमसे बहस करके मेरा नशा ऐसे ही काफूर हो रहा है…चल जल्दी कर…’ टीवी पत्रकार की लाल-लाल आंखे उसे को घूर रही थी। उस व्यक्ति को भी यकीन हो चला था कि अब रजिया बुरी तरह से गुंडों के बीच फंस चुकी है।

‘मुझे मैनेजर से बात करनी होगी…रात बहुत हो चुकी है…वो सो गये होंगे…’

‘तू क्या करेगा क्या नहीं मुझे नहीं पता…मुझे तो बस दारू चाहिये…’

वह व्यक्ति फोन पर नंबर मिलाने लगा। दूसरी तरफ से हेलो की आवाज आते ही उसने कहा, ‘भइया ये पत्रकार लोग आये हुये…दारू मांग रहे हैं…’

‘जो मांग रहे दे दो…यह रोज-रोज का तमाशा है..’ दूसरी तरफ से आवाज आई। फोन कट करके उसने टीवी पत्रकार की तरफ देखा, ‘आप रुकिये मैं पीछे से लेकर आता हूं…’

‘ठीक है …अब तू जा ही रहा है तो खंभा लेकर आना…तुम्हारी कीच-कीच ने मूड ऑफ कर दिया….सीधी उंगली से घी नहीं निकलती…’

दोनों तबतक सड़क खड़े होकर झूमते रहे जब तक वह आदमी बोतल लेकर आ नहीं गया। बोतल को देखते ही उनकी आंखों में एक अजीब सी चमक तैरने लगी। बोतल को अपने कब्जे में लेकर दोनों कार की ओर लौटे जहां नेता बैठकर दूर से उनको देख रहा था। उनके होठों पर विजय मुस्कान दौड़ रही थी।

‘ये लो…अब कोटा पूरा जाएगा…’

दोनों गाड़ी में सवार हो गये। गाड़ी को गेयर में डालकर नेता ने एक्सिलेटर पर अपना पैर दबा दिया।

‘दारू पीने के बाद अंतिंम के दो बूंद प्यास और भड़का देती है….मैं बार-बार कहता हूं दारू पीने बैठे तो पहले से ही भरपूर माल रख लो…’, कार में बोतल का सील तोड़कर एक गिलास दारू उड़ेलते हुये टीवी पत्रकार ने कहा। ….दो बूंद की तलब का पुख्ता इंतजाम हो चुका था।

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