लिटरेचर लव

वरदान का फेर (नाट्य रुपांतरण, भाग -1)

चंदन कुमार मिश्र

यह एक छोटी सी नाटिका है। यह शायद 1978-80 के आस=पास के बिहार में दसवें वर्ग के हिन्दी की किताब में पहले अध्याय के रूप में पढाई जाती थी लेकिन शायद कहानी के रूप में। जब मैं 15-16 साल का था तब (यानि 2004-2005) में मैंने इसे मंच पर खेलने लायक बनाने के लिए इसे थोड़े से परिवर्तन के साथ नाटिका में बदल दिया था। इसमें संस्कृत के कुछ श्लोक भी जोड़े गये थे। इन श्लोकों की रचना भी मैंने की थी। मैंने श्लोकों का अर्थ नाटिका में तो नहीं दिया था पर यहां दे रहा हूँ। तो पढ़िये और इसका लुत्फ उठाइये। PQR की जगह उस जिले का नाम और XYZ की जगह उस अनुमण्डल का नाम दे देना चाहिए जहां यह नाटिका खेली जा रही हो। आगे कपिलवस्तु नामक जगह आयी है। यह जगह कोई गांव है ऐसा मान लीजिए।

 वरदान का फेर

 मूल लेखक राधाकृष्ण

रूपांतरण चंदन कुमार मिश्र

 

पात्र

1. महात्मा बुद्धूदेव

2. ब्रह्माजी

3. बनिया + सेठ

4. इंद्र + साईस + भक्त

5. वाचक

( बनिये और सेठ का अभिनय एक ही आदमी कर सकता है। उसी तरह इंद्र, साईस या भक्त का अभिनय एक ही आदमी कर सकता है। एक ही आदमी को अभिनय करने के लिए अपने लुक में थोड़ा बदलाव कर लेना चाहिए ताकि दर्शकों को पहचान में ना आए। – चंदन कुमार मिश्र )

 प्रथम दृश्य

(मंच पर एक तरफ़ मेज-कुर्सी लगी है। कुर्सी पर वाचक बैठा है। सामने कुछ पुस्तकें पड़ी हुई हैं।)

वाचक: महात्मा बुद्धदेव का नाम तो अपने सुना ही होगा। उनके जन्म के पूर्व ही भारत के एक महान् संत महात्मा बुद्धूदेव का जन्म हुआ था। गर्व की बात है कि हमारे ही जिले PQR के XYZ अनुमण्डल में ही होली के दिन महात्मा बुद्धूदेव का जन्म हुआ। महात्मा बुद्धदेव का पहला नाम सिद्धार्थ तो बुद्धूदेव का गिद्धार्थ। बुद्धदेव का जन्म कपिलवस्तु नहीं कपालवस्तु में हुआ। ये भी बुद्धदेव की भांति राजपरिवार में पैदा हुए लेकिन इनके बाप राज नहीं चाहते थे, राजमिस्त्री का काम किया करते थे। दुनिया में सबके माता-पिता मर जाते हैं, इसलिए एक दिन इनके बाप भी मर गए और इनकी मां भी उन्हीं के साथ जलकर सती हो गई। तो आइए हम देखें कि मां-बाप के मरने के बाद महात्माजी क्या करते हैं? (मंच पर महात्मा जी आकर कुछ खोजते हैं तो पिता की करनी मिलती है। माँ के कमरे से एक खाली हांडी मिलती है। वे एक फटी धोती पहने हुए हैं। एक फटा हुआ लाल गमछा ओढ़े हुए हैं तथा दाढ़ी बढ़ी हुई है।

वाचक: ये जहाँ भी जाते, साधु समझकर लोग इनके चरणों पर लोटते थे। भूख लगने पर किसी से मांगते न थे। मिला तो मिला नहीं तो खाली पेट भी सो जाते। ये किसी से बोलते भी नहीं थे। इसलिए लोगों ने समझा कि ये कोई पहुँचे हुए महात्मा हैं। इसी से कुछ लोग इन्हें महात्मा बुद्धूदेव कहने लगे। बाद में इनका नाम ही यही पड़ गया। (मंच पर एक बनिया बैठा हुआ है। महात्मा जी उसके दरवाजे पर जाते हैं।

बनिया: महात्मा जी……..

बुद्धूदेव: (तड़क कर) ख़बरदार मुझे महात्मा कहोगे तो मैं सिर तोड़ दूंगा। मैं बहुत मामूली आदमी हूँ। (बनिया बहुत मोटा था)

वाचक: जो आदमी साधुओं की सेवा करते हैं, वो अपने मतलब से किया करते हैं। अगर कोई मतलब न हो तो सब साधु-संत भूखों मर जायें। किसी का मतलब रहता है कि मुझे बिना परिश्रम बैकुंठ मिल जाय, कोई धन चाहता है, कोई लड़का चाहता है, कोई नीरोग होना चाहता है। वह बनिया भी अपने मतलब से ही बुद्धूदेव की ख़ातिर कर रहा था। अपनी दुकान पर बैठे-बैठे बेफ़िक़्री के मारे ऐसा हो गया था कि वह भूसे का ढेर हो। यही फिक्र थी कि किसी तरह दुबला हो जाऊं। तो जब उसने देखा कि बुद्धूदेव जी का मिजाज गरम है तो बोला)

बनिया: देखिए महाराज, बिगड़ने का काम नहीं। पहले क्रोध को थूक दीजिए, तब मेरी बात सुनिए।

महात्माजी: (शांत होकर): अच्छा मैं सुनता हूँ। बोलो क्या कहते हो?

बनिया: अगर दुनिया में केवल मैं अकेला आपको महात्माजी कहता तो आप बिगड़ सकते थे बल्कि बिगड़कर मार भी सकते थे, लेकिन आप देखिए दुनिया में हर कोई आपको महात्माजी कहता है। फिर सब कोई आपको महात्माजी कहते ही हैं, तब केवल आपके अकेले विरोध करने से क्या होगा? आप जरुर महात्माजी हैं। भला आपके महात्मा होने में क्या संदेह है? ( तब बुद्धूदेव ने सोचा। मंच पर एक तरफ़ धीरे से कहते हैं) महात्मा: जब लोग मुझे महात्मा जी कहते हैं, तब मैं जरुर महात्मा ही हूँ। लेकिन तारीफ़ तो देखिए, मुझे आज तक इसका पता भी न था कि मैं सचमुच कोई महात्मा हूँ। (महात्माजी ने बनिये से पूछा) खैर, तुम कहते ही हो, तो मैं महात्मा ही मालूम होता हूँ। लेकिन जरा मुझे यह बता कि अब मैं क्या करूं? (बनिया पैरों पर गिर जाता है)

बनिया: (हाथ जोड़कर) महाराज आप मुझे यही वरदान दें कि मैं कुछ दुबला हो जाऊं।

वाचक: इसमें कोई संदेह  नहीं कि बुद्धूदेव जी महात्मा होने के बहुत पहले ही दुबला होने की दवा जानते थे। (वाचक सदा मंच पर एक तरफ़ बैठा रहता है)

महात्मा: तुम मन मसोस कर सिर्फ़ 15 दिनों तक उपवास कर जाओ। भगवान् चाहेगा तो तुम इतने में ही ऐसे दुबले हो जाओगे कि चलना-फिरना भी कठिन हो जाएगा। (बनिये ने वरदान पाकर पुन: प्रणाम किया)

वाचक: इधर बुद्दूदेव भी खूब प्रसन्न थे। पहली ख़ुशी तो यह थी अनजाने में ही महात्मा हो गये। दूसरी ख़ुशी थी कि अब वे वरदान दे सकते थे। तीसरी और बड़ी खुशी यह थी कि आज खूब छक कर खाना मिलेगा। (मंच पर बुद्धूदेव सोचते हैं)

बुद्धूदेव: अब तो महात्मा हो ही गया। इसमें इसमें कोई शक-सुबहा नहीं है। ख़ैर कहो कि मुझे पहले ही यह ख़बर लग गई कि मैं महात्मा हो गया हूँ। भगवान् बेचारे बनिये राम को युग-युग जिलावें। हाँ तो मुझे अब क्या करना चाहिए?

वाचक: इसी उधेड़-बुन में 3-4 महीन बीत गए। आख़्रिरकार उन्होंने निर्णय ले लिया।

महात्मा: महात्माओं को बिल्कुल निराला भोजन करना चाहिए। ऐसा भोजन करूं कि जो देखे दंग हो जाय। हाँ साबूदाना खाना शुरु करता हूँ।

जारी……

editor

सदियों से इंसान बेहतरी की तलाश में आगे बढ़ता जा रहा है, तमाम तंत्रों का निर्माण इस बेहतरी के लिए किया गया है। लेकिन कभी-कभी इंसान के हाथों में केंद्रित तंत्र या तो साध्य बन जाता है या व्यक्तिगत मनोइच्छा की पूर्ति का साधन। आकाशीय लोक और इसके इर्द गिर्द बुनी गई अवधाराणाओं का क्रमश: विकास का उदेश्य इंसान के कारवां को आगे बढ़ाना है। हम ज्ञान और विज्ञान की सभी शाखाओं का इस्तेमाल करते हुये उन कांटों को देखने और चुनने का प्रयास करने जा रहे हैं, जो किसी न किसी रूप में इंसानियत के पग में चुभती रही है...यकीनन कुछ कांटे तो हम निकाल ही लेंगे।

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