विषय: लोकतंत्र के चौथे खंभे (पत्रकारिता) को सूचना के अधिकार के दायरे में लाने के संदर्भ में

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मीडिया के संदर्भों से जूझते हुये  अफ़रोज़ आलम साहिल का यह पत्र मिला है, जिसे हू-ब-हू पोस्ट कर रहे हैं। अपने विचार देने के लिए आप स्वतंत्र है।

संपादक

महोदय/महोदया,
                मैं अफ़रोज़ आलम साहिल पत्रकार के साथ-साथ एक आर.टी.आई. एक्टिविस्ट हूं। मेरी मांग है कि लोकतंत्र के चौथे खंभे यानी मीडिया को सूचना के अधिकार अधिनियम-2005 के दायरे में लाया जाए। लोकतंत्र के पहले तीनों खंभे सूचना के अधिकार अधिनियम-2005 के दायरे में आते हैं। यह कानून कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका तीनों पर लागू होता है। इसका मक़सद साफ है कि लोकतंत्र को मज़बूत किया जा सके। इसी मक़सद की मज़बूती की खातिर मेरी ये मांग है कि लोकतंत्र के चौथे खंभे यानी मीडिया को भी सूचना के अधिकार अधिनियम-2005 के दायरे में लाया जाए, ताकि लोकतंत्र में जवाबदेही और पारदर्शिता को हर स्तर पर लागू किया जा सके।

दरअसल, पिछले कुछ दिनों में कई ऐसे वाक़्यात हुए हैं, जिन्होंने मीडिया में पारदर्शिता को लेकर सवाल खड़े किए हैं। ऐसे कई मीडिया समूह हैं, जिनकी आमदनी और निवेश संदेह के दायरे में है। ऐसे कई पत्रकार भी हैं जिनकी संपत्ति उनकी आय के ज्ञात स्त्रोतों से कई गुना ज़्यादा है और ये सब उसी मीडिया के हिस्सा हैं, जो समाज के तमाम तबकों से लोकतंत्र में पारदर्शिता और जवाबदेही की मांग करता है। ये उसी मीडिया के लोग हैं, जो राजनेताओं से लेकर अधिकारियों और न्यायपालिका के प्रतिनिधियों की आय के स्त्रोतों की छानबीन में खासी दिलचस्पी दिखाता है और उस पर तमाम तरह के सवाल खड़े करता है। मीडिया इस बात की वकालत करता है कि समाज और लोकतंत्र के ये तमाम तबके अपनी आय का ब्यौरा सार्वजनिक करें। सार्वजनिक तौर पर अपनी ईमानदारी और पारदर्शिता का सबूत दें। फिर सवाल ये उठता है कि आखिर ये मानक खुद मीडिया पर लागू क्यों न हो। समाज और लोकतंत्र के दूसरे तबकों की खातिर जवाबदेही और पारदर्शिता की वकालत करने वाला मीडिया अपनी जवाबदेही और अपनी पारदर्शिता के सवाल से क्यों बचना चाहता है। आख़िर मीडिया इस बात की मांग क्यों नहीं करता कि ख़ुद उसे भी सूचना के अधिकार अधिनियम-2005 के दायरे में लाया जाए।

 यहां हाल की कुछ घटनाओं के जरिये मैं कुछ सवाल आपके सामने रख रहा हूँ-
1.   अगर NDTV 24X7 की ग्रुप एडिटर बरखा दत्त और हिन्दुस्तान टाईम्स ग्रुप के एडिटर वीर सांघवी का नाम टेलीकॉम घोटाले के मामले में सीबीआई के दस्तावेज़ों में बतौर दलाल दर्ज है, तो इन लोगों की आय का ब्यौरा सार्वजनिक क्यों नहीं किया जाना चाहिए या इस घटना (या दुर्घटना) के सामने आने के बाद सभी पत्रकारों और माडिया हाउस को स्वेच्छा से अपनी संपत्ति का ब्यौरा सार्वजनिक क्यों नहीं कर देना चाहिए?

2.   अगर संसद नोटकांड मामले में CNN-IBN के एडिटर-इन-चीफ और मालिक राजदीप सरदेसाई का नाम बतौर सीडी मैनेजर सामने आता है तो उनकी संपत्ति की छानबीन क्यों नहीं की जानी चाहिए? एक पत्रकार के मालिक बनने की राह में लिए गए तमाम फायदों की कलई सूचना के अधिकार अधिनियम-2005 के ज़रिए क्यों नहीं खुलनी चाहिए? क्या पत्रकारों को पत्रकार होने के नाते सूचना के अधिकार का इस्तेमाल सिर्फ दूसरों के खिलाफ करने का कोई विशेषाधिकार हासिल है?
3.   अगर इंडिया टुडे के ग्रुप एडिटर रहे प्रभु चावला अमर सिंह की चर्चित सीडी में डिलींग करते हुए सुनाई दे रहे हैं और उनके बेटे अंकुर चावला का नाम सीबीआई के दस्तावेजों में बतौर वित्तीय घालमेल के दलाल के तौर पर दर्ज है तो क्यों नहीं प्रभु चावला की वित्तीय और ज़मीनी संपत्तियों का ब्यौरा सामने लाया जाए?

ये तीन सवाल तो सिर्फ उदहारण भर हैं। ऐसे न जाने कितने मीडिया हाउस और पत्रकार हैं, जिन्होंने लोकतंत्र के चौथे खंभे की आड़ में भ्रष्टाचार की गंगोत्री बहा रखी है। इन तमाम तथ्यों और लोकतंत्र की प्रतिबद्धता के नाम पर मेरी आपसे ये मांग है कि कृपया मीडिया को भी सूचना के अधिकार अधिनियम-2005 के दायरे में लाने की पहल की जाए। ये लोकतंत्र की आत्मा के हक़ में होगा।
 
                                                                                                                    आपके सकारात्मक जवाब का आकांक्षी
 
                                                                                                                     अफ़रोज़ आलम साहिल

1 COMMENT

  1. Media ko bhi RTI ke dayre me rakhna chahiye.chuki bharast patrakar media ka chabuk dikhakar karorpati & lakhpati bante ja rahe hai.Honest patrakar khakpati hi rah gaye hai.iss ka sujhaw dene wale Afroj Alam Sahil ko Assalam wale kum.

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