200 मजदूरों की बलि ले चुका है राष्ट्रमंडल खेल, कोई मुआवजा नहीं
दिल्ली 2010 : शोषण का खेल चालू है
शिरीष खरे
राष्ट्रमंडल खेल दिल्ली को दुनिया के बेहतरीन खेल शहरों में शामिल कर जाएंगे। यह अभी तक के सबसे मंहगे राष्ट्रमंडल खेल होंगे। यह अभी तक के सबसे सुरक्षित राष्ट्रमंडल खेल भी होंगे। राष्ट्रमंडल खेलों के सफल आयोजन के साथ ही भारत को एक आर्थिक महाशक्ति के रुप में पेश कर सकेंगे।
रूकिए-रुकिए, बड़े-बड़े दावों के बीच कहीं यह उपलब्धि भी छूट न जाए कि मजदूरों के नाम पर उपकर के जरिए सरकार ने केवल राष्ट्रमंडल खेलों से जुड़ी परियोजनाओं से करीब 500 करोड़ रूपये उगाया है। और यह भी कि बदले में मजदूरों के कल्याण के लिए एक भी योजना को लागू नहीं किया है। और हां, यह जानकारी भी कि राष्ट्रमंडल खेल निर्माण स्थलों पर काम के दौरान अब तक सौ और श्रम संगठनों के मुताबिक दो सौ से ज्यादा मजदूर मारे जा चुके हैं और उनमें से एक को भी मुआवजे के रूप में एक रूपया भी नहीं मिला है। ऐसे और इससे भी भयावह कई तथ्य, आंकड़े और झूठ के खेल मजदूरों की छाती पर पसरे हुये हैं। आश्चर्य नहीं कि इन कारणों से यह राष्ट्रमंडल खेल अभी तक के सर्वाधिक शोषण वाले खेलों में भी शामिल हो जाये।
3 अगस्त, 2006 को दिल्ली राष्ट्रमंडल खेलों में बुनियादी ढ़ांचे के विकास पर अलग-अलग एजेंसियों द्वारा व्यय की गई राशि का जिक्र करते हुए दिल्ली के वित्त एवं लोक निर्माण विभाग मंत्री एके वालिया ने कुल 26,808 करोड़ रूपये के खर्च का ब्यौरा दिया था। तब से अब तक दिल्ली को सुसभ्य राजधानी बनाने के चलते बजट में तो बेहताशा इजाफा होता रहा है, मगर मजदूरों को उनकी पूरी मजदूरी के लिए लगातार तरसना पड़ा है।
गुलाब बानो अपने शौहर मंजूर मोहम्मद के साथ दिल्ली विश्वविद्यालय परिसर स्थित राष्ट्रमंडल खेल निर्माण स्थल में काम करती हैं। यहां आठ साल का बेटा चांद मोहम्मद भी उनके साथ है, और वहां पश्चिम बंगाल के चंचुल गांव में चांद से बड़े भाई-बहन हैं। गुलाब बानो कहती हैं, ‘‘यह इतना छोटा है कि खुद से खा-पी भी नहीं सकता है। कई जान-पहचान वालों ने हमें बताया था कि दिल्ली में काम मिल जाता है, सो चांद के अलावा बाकी सब कुछ वहीं छोड-छाड़ के हम चले आए हैं।’’
यहां ईंटों के ढ़ेर से गुलाब बानो एक बार में 10-12 ईंटें सिर पर उठाती हैं, फिर उन्हें स्टेडियम की ऊंची सीढ़ियों तक ले जाते हुए राजमिस्त्री के सामने उतारने के बाद लौटने का क्रम सैकड़ों बार दोहराती हैं। जहां गुलाब बानो को 125 रूपए प्रतिदिन मिलते हैं, वहीं उनके शौहर को उनसे थोड़ा ज्यादा 150 रूपये प्रतिदिन। मगर गुलाब बानो कहती है ‘‘ठेकेदार के आदमी ने तो हमसे कहा था कि औरतों को 250 रूपये रोजाना और मर्दों को 300 रूपये रोजाना दिया जाएगा।’’ यानी ठेकेदार के जिस एजेंट ने इस जोड़े से जितनी मजदूरी यानी 550 रुपये देने का वादा किया था, उसका आधा 275 रूपये प्रतिदिन भी इन्हें नहीं दिया जा रहा है।
25 साल के बिरजू का डेरा राष्ट्रमंडल खेल गांव से लगे अक्षरधाम मंदिर के पास है। बीरजू कहते हैं ‘‘जब तुम लोग साइट पर आए थे तो काम से निकाल दिए जाने के डर के मारे मैं बात नहीं कर सका था। वैसे बाहरी आदमियों को वहां कम ही भटकने दिया जाता है।’’
15 महीने पहले जब बिरजू मध्यप्रदेश के कटनी स्टेशन से ट्रेन के सामान्य डिब्बे में सवार होकर दिल्ली आये तो उन्होंने राष्ट्रमंडल खेलों के बारे में सुना भी नहीं था। वह बताते हैं “अगर कोई आदमी साइट पर आकर सुपरवाईजर से पूछे तो वह दिखावा करता है। कहता है कि हर मजदूर को 200 और राजमिस्त्री को 400 रूपये रोजाना दिया जाता है, जबकि हमारा आधा पैसा तो बीच वालों की जेबों में जाता है।’’
बिरजू के साथ के बाकी मजदूरों से भी पता चला कि मजदूरी के भुगतान में देरी होना एक आम बात है। अगर ठेकेदार के आदमियों से पूछो तो वह कहेंगे कि पूरा पैसा तो अधर में ही अटका पड़ा है, फिर भी घर लौटने से पहले-पहले सभी का पूरा हिसाब-किताब जरूर कर दिया जाएगा। खुद बिरजू का बीते दो महीने से 4000 रूपये से भी ज्यादा का हिसाब-किताब बकाया है। इसमें से पूरा मिलेगा या कितना, उसे कुछ पता नहीं है।
फरवरी, 2010 को हाईकोर्ट ने दिल्ली राष्ट्रमंडल खेलों के निर्माण स्थलों पर मजदूरों की स्थिति का आकलन करने के लिए संयुक्त राष्ट्र के पूर्व राजदूत अरूधंती घोष सहित कई सम्मानीय सदस्यों को लेकर एक समिति गठित की थी।
इस समिति ने कानूनों की खुलेआम अवहेलना करने वाले ठेकेदारों के तौर पर कुल 21 ठेकेदारों की पहचान की थी। तब समिति ने मजदूरों का भुगतान न करने वाले ठेकेदारों के खिलाफ कठोर दंड के प्रावधानों की सिफारिश की थी। इसी के साथ समिति ने कई श्रम कानूनों को प्रभावशाली ढंग से लागू करने की भी मांग की थी। समिति के रिपोर्ट के आधार पर दिल्ली हाइकोर्ट ने निर्देश भी जारी किए थे। इसके बावजूद यहां कानूनों के खुलेआम अवमानना का सिलसिला है जो रुकने का नाम नहीं ले रहा।
25 मई, 2010 को दिल्ली हाईकोर्ट ने केन्द्र और राज्य सरकारों से कहा कि वह राजधानी की अलग-अलग निर्माण स्थलों में ‘दिल्ली भवन एवं अन्य निर्माण श्रमिक कल्याण बोर्ड’ के तहत पंजीकृत किये गए मजदूरों के अधिकारों को सुनिश्चित करें। तब दिल्ली हाईकोर्ट का यह नोटिस नई दिल्ली नगर निगम, दिल्ली विकास प्राधिकरण और भारतीय खेल प्राधिकरण को भेजा गया था।
इसी से ताल्लुक रखने वाला दूसरा तथ्य यह है कि दिल्ली हाइकोर्ट में दायर एक जनहित याचिका के अनुसार, राष्ट्रमंडल खेलों से जुड़े कुल 11 आयोजन स्थलों पर 4,15,000 दिहाड़ी मजदूर काम कर रहे हैं। जबकि ‘दिल्ली भवन एवं अन्य निर्माण श्रमिक कल्याण बोर्ड’ के साथ पंजीकृत मजदूरों की संख्या 20,000 के आसपास दर्ज है। जाहिर है, लाखों की संख्या में मजदूरों को पंजीकृत नहीं किया गया है। यानी दिल्ली राष्ट्रमंडल खेलों में लाखों की संख्या में मजदूरों के अधिकारों को सुनिश्चित किये जाने की जबावदारी से सीधे-सीधे बचा गया है।
बिरजू ने बताया कि उनका परिवार भी उनके साथ यही ठहरा हुआ है। जब देखा तो पाया कि उनका पूरा परिवार तो प्लास्टिक के मामूली से तम्बू में तंगहाल है, जिसमें एक भी दरवाजा और खिड़की होने का सवाल ही नहीं उठता है। पूरे परिवार को शौच से लेकर नहाने तक के रोजमर्रा के काम खुले में ही करने हैं। यह तंबू सुरक्षा के लिहाज से भी ठीक नहीं है. यह न बारिश से बचाव कर सकता है और न धूप से. बिरजू का परिवार ठेकेदार के जिस एजेंट के जोर पर यहां तक पहुंचा है, वह इन दिनों रहने के बंदोबस्त सहित बहुत सारे वायदों को लेकर ना-नुकर कर रहा है।
बिरजू की पत्नी कलाबाई के पैरों का दाहीना तलुवा पट्टियों से बंधा हुआ है। पूछने पर वह बताती हैं ‘‘यह चोट तो काम करते समय लगी है। दवाई की बात सुनते ही ठेकेदार ने भगा दिया था। वहां साइट पर तो कोई न कोई घायल होता ही रहता है। मगर किसी तरह के मदद की कोई उम्मीद नहीं है।’’
ऐसे निर्माण स्थलों पर कई खतरनाक कामों को अंजाम देने वाले मजदूरों को सुरक्षा संबंधी बुनियादी चीजें जैसे दास्ताने या जूतों के बगैर काम करते हुए देखा जा सकता है। यहां मजदूरों की जिंदगी को दांव पर रखे जाने को भी क्या राष्ट्र सम्मान से जुड़ा मसला मान लिया जाए ?
दिल्ली राष्ट्रमंडल खेलों का समय जैसे-जैसे नजदीक आ रहा है, वैसे-वैसे सभी तैयारियों को समय पर पूरा करने का सबसे ज्यादा दबाव मजदूरों पर पड़ रहा है। इसी क्रम में मजदूरों के काम के तयशुदा घंटे और सुरक्षा मानकों जैसे जरूरी पैमानों को नजरअंदाज बनाया जा रहा है और असुरक्षित तरीके से रात-दिन मजदूरों से काम कराया जा रहा है। इस बीच खेल मंत्री एमएस गिल द्वारा राज्यसभा में दिये गए कथन के मुताबिक “जल्द ही प्रधानमंत्री कुछ आयोजन स्थलों का दौरा कर सकते हैं।”
तैयारियों में हो रही देरी और अनियमितताओं की खबरों के बीच वह यहां से देख सकते हैं कि कैसे अक्टूबर के पहले सप्ताह से शुरू होने वाले इस आयोजन के लिए मेजर ध्यानचंद्र नेशनल स्टेडियम, आरके खन्ना स्टेडियम, जवाहरलाल नेहरू स्टेडियम और तालकटोरा इंडोर स्टेडियम सहित जगह-जगह फ्लाई ओवर, सब-बे, फुट ब्रिज, ओवर ब्रिज, जल निकासी लाईन, मेट्रो लाईन, रोड लाईन, पार्किंग लाईन, पावर प्लांट, सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट, वॉटर ट्रीटमेंट प्लांट तैयार करने के साथ-साथ मजदूरों के शोषण का कार्य भी युद्धस्तर पर चालू है।
राष्ट्रमंडल खेलों के निर्माण स्थलों पर बने अस्थायी शिविरों में रहने वाले मजदूर परिवारों को कई बुनियादी अधिकारों जैसे आवास, स्वच्छता, सुरक्षित वातावरण, गुणवत्तापूर्ण भोजन, स्वच्छ पानी, स्वास्थ्य और स्कूली शिक्षा से बेदखल रखा गया हैं। गरीबी के चलते बड़ी संख्या में बच्चों को अपनी-अपनी जगहों से पलायन करके यहां आना पड़ा है, नतीजन उसी अनुपात में यह बच्चे स्कूलों से ड्राप आउट भी हुए हैं। देखा जाए तो मामला चाहे मजदूरों को न्यूनतम मजदूरी से भी कम मजदूरी मिलने का हो, या अस्थायी शिविरों के घटिया हालातों का हो, कुल मिलाकर यहां मजदूरों के बच्चों को भारी खामियाजा उठाना पड़ रहा है।
बच्चों के अधिकारों के लिए काम करने वाली संस्था ‘क्राई’ की डायरेक्टर योगिता वर्मा कहती हैं- ‘‘बच्चों को लेकर हमारे कई संवैधानिक दायित्व हैं, राष्ट्रमंडल खेलों को विश्वस्तरीय बनाने की कोशिश में इन संवैधानिक दायित्वों को अनदेखा नहीं किया जा सकता है।’’
क्राई ने सिरीफोर्ट साईट से ली गई अपनी सेम्पल स्टडी में पाया है कि
• इस साइट के बच्चे स्कूल नहीं जाते हैं।
• यहां या आसपास में चाईल्डकेयर यानी बच्चे की देखभाल जैसे आंगनबाड़ी वगैरह की भी कोई सुविधा नहीं है।
• यहां रहने के स्थानों की हालत दयनीय है, खासतौर से बच्चों के लिए न खाने के इंतजाम हैं, न सोने के।
• यहां प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा उपलब्ध नहीं है।
• शौचालय की सेवा भी लगभग न के बराबर हैं।
• यहां तकरीबन सभी मजदूर परिवार गरीबी रेखा से नीचे हैं।
• यहां 84% मजदूरों को न्यूनतम मजदूरी से भी कम मजदूरी दी जा रही है।
बारह साल का रौशन भी अपने परिवार के साथ बिहार के औरंगाबाद से दिल्ली चला आया है। उसके पिता एक राजमिस्त्री हैं, जो कि अक्षरधाम मंदिर स्थित निर्माण स्थल पर काम करते हैं। रौशन, अपने भाई-बहन और माता-पिता के साथ 8X8 फीट वाली टीन की चादरों के घेरे में रहता है। हैरत की बात है कि यहां हरेक परिवार चाहे वह कितना भी छोटा या बड़ा हो, के हिस्से में यह टीन के चादरों वाला एक ही आकार-प्रकार का एक ही सकरा घेरा आता है।
हालांकि इसमें एकमात्र दरवाजा भी है, जिसे बंद तो किया जा सकता है, मगर जिसके बंद करते ही सभी को सुरक्षा की कीमत भी चुकानी पड़ती है। टीन की चादरों वाली उस झोपड़ी में एक भी खिड़की जो नहीं है। भीतर बिजली भी नहीं है। इसलिए कोई बच्चा पढ़ना भी चाहे तो भी नहीं पढ़ सकता है। टीन के इन कथित आश्रयों के भीतर मजदूर महिलाएं अगर आग जलाकर रोटी सेंकना भी चाहें तो टीन के चलते वह भी नहीं सेंक सकती हैं।
जबकि पानी के बंदोबस्त के नाम पर यहां हर रोज इनके सामने गैरजिम्मेदाराना तरीके से टैंकर का पाइप खोल दिया जाता है। इसी तरह पचासों लोगों के सामने एक शौचालय होता है। कुलमिलाकर यहां रूके मजूदरों को ऐसे हालातों के बीच रहना पड़ रहा है, जिसमें बीमार पड़ने की आशंकाएं सबसे प्रबल रहती हैं।
रौशन की मां जब काम पर जाती है तो अपने साथ 6 महीने की बच्ची को भी ले जाती है। इस बच्ची को साइट पर जहां उसके लायक खाना मुमकिन नहीं है, वहीं यह धूल, गर्मी, शोर और अन्य तरह के जोखिमों के बीच रहने को मजबूर है। स्वभाविक तौर से घातक कारकों का ऐसा संयोजन बहुत सारे बच्चों को कुपोषण, उच्च रूग्णता और मृत्यु-दर की तरफ ले जाता है, और जिसका ठीक-ठीक आंकड़ा मिलना भी मुश्किल होता है।
यहां गौर करने लायक बात यह है कि तकरीबन 450 किलोमीटर लंबे मार्ग में रौशनी का बंदोबश्त करने के बावजूद 80% दिल्ली निवासी रौशनी सहित पानी, सड़क, सीवर, स्कूल और अस्पताल जैसी बुनियादी सहूलियतों से महरूम ही रहेंगे। और यहां गौर करने लायक बात यह भी है कि राष्ट्रमंडल खेलों के निर्माण स्थलों पर काम करने वाले ज्यादातर मजदूर परिवार उन गांवों से आए हुए हैं, जहां कई सालों से सूखा या सैलाब आ रहा है। सूखा और सैलाब से निपटने के हिसाब से जहां सरकार के पास पैसा न होने का रोना है, वहीं 12 दिनों के आयोजन के लिए सरकार यहां पानी की तरह पैसा बहा रही है। गौरतलब है अमेरिका की कुल आबादी से कहीं अधिक तो यहां भूख और कुपोषण से घिरे पीड़ितों की आबादी का आकड़ा है। यहां से सवाल उठता है कि सरकार द्वारा अपने दामन पर लगे ऐसे बहुत सारे दागों को अगर किसी चमकदार आयोजन या राष्ट्रीय स्मारकों को बनाने के मार्फत छिपाया भी जाएगा तो किस तरह से और कितनी देर तलक ?
जबकि भारत दुनिया के भूख सूचकांक में 66वें नम्बर है, जहां 77% लोग एक दिन में 20 रूपये भी नहीं कमा पाते हैं, जहां 83.7 करोड़ लोग अत्यंत गरीब और मलिन हैं, जहां 12 सालों में 2 लाख से ज्यादा किसानों ने आत्महत्याएं की हैं, जहां 5 साल से कम उम्र के 48% बच्चे सामान्य से कमजोर जीवन जीते हैं, वहां झूठे गौरव का जयकारा लगाने मात्र के लिए पूरे देश भर का पैसा दिल्ली के कुछ इलाकों में न्यौछावर किया जाना कहीं से न्यायोचित नहीं लगता है।
यहां से यह सवाल भी उठता है कि खाद्य सुरक्षा अधिनियम के लिए जब सरकार के पास पर्याप्त पैसा नहीं है तो भारतीयों में खेलों के प्रति जागरूकता और खेल संस्कृति पैदा करने के नाम पर उसके पास इतना पैसा कहां से आया है ?
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