खेत-खलिहान को पूंजीपतियों के हाथ गिरवी रखने साजिश कर रही भाजपा-जदयू : कांग्रेस

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पटना। कृषि कानूनों के खिलाफ कांग्रेस खुलकर लड़ाई के मूड में है। चुंकि बिहार में चुनाव है इसलिए बिहार में इस लड़ाई को पूरे दमखम के साथ लड़ने की तैयारी में है। यही वजह है कि केंद्रीय नेतृत्व भी बिहार की सरजमीन पर कृषि कानूनों के खिलाफ लोगों को लामबंद करने के लिए एक खास रणनीति के तहत आगे बढ़ रही है।

इसी क्रम में कांग्रेस के महासचिव रणदीप सिंह सुरजेवाला, सांसद व बिहार प्रभारी शक्ति सिंह गोहिल, टी.एस. सिंह, बिहार कांग्रेस के अध्यक्ष मदन मोहन झा एवं विधायक दल के नेता  सदानंद सिंह ने संयुक्त रुप से पत्रकारों को संबोधित करते हुये तीनों कृषि कानूनों को काला कानून करार देते हुये केंद्र सरकार को इसको वापस लेने के लिए आगाह किया है।

पटना के सदाकत आश्रम में पत्रकारों को संबोधित करते हुये उन्होंने कहा कि मोदी सरकार ने तीन काले कानूनों के माध्यम से किसान, खेत-मज़दूर, छोटे दुकानदार, मंडी मज़दूर, व कर्मचारियों की आजीविका पर एक क्रूर हमला बोला है। किसान व खेत मजदूर के भविष्य को रौंदकर मोदी-नीतीश ने उनके भाग्य में बदहाली और बर्बादी लिख दी है। यह किसान खेत और खलिहान के खिलाफ एक घिनौना षडयंत्र है।

उन्होंने कहा कि आज देश भर में 62 करोड़ किसान, मजदूर व 250 से अधिक किसान संगठन इन काले कानूनों के खिलाफ आवाज उठा रहे हैं, पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी व भाजपा-जनता दल (यूनाईटेड) सरकारें सब ऐतराज दरकिनार कर देश को बरगला रही हैं। अन्नदाता किसान की बात सुनना तो दूर, संसद में उनके नुमाईंदो की आवाज को दबाया जा रहा है और सड़कों पर किसान मजदूरों को लाठियों से पिटवाया जा रहा है।

उन्होंने कहा कि संसद में संविधान का गला घोंटा जा रहा है और खेत खलिहान में किसानों-मजदूरों की आजीविका का। देश में कोरोना, सीमा पर चीन और खेती पर मोदी सरकार हमलावर है। किसान विरोधी यह तजुर्बा नीतीश के नेतृत्व में साल 2006 में बिहार में शुरू किया गया था और अब घुन की तरह पूरे देश की खेती और किसानी को तीन कृषि विरोधी काले कानूनों की शक्ल में निगल गया। किसान,खेत मजदूर की बुलंद आवाज को बहुमत की गुंडागर्दी से नहीं दबाया जा सकता।

जब अनाजमंडी-सब्जीमंडी व्यवस्था पूरी तरह से खत्म हो जाएगी तो कृषि उपज खरीद प्रणाली भी पूरी तरह नष्ट हो जाएगी। ऐसे में किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य कैसे मिलेगा, कहां मिलेगा और कौन देगा ?

क्या साढ़े पंद्रह करोड़ किसानों के खेत से एमएसपी पर उनकी फसल की खरीद कर सकती है। बड़ी-बड़ी कंपनियों द्वारा किसान की फसल को एमएसपी पर खरीदने की गारंटी कौन देगा। एमएसपी पर फसल न खरीदने की क्या सजा होगी, मोदी इनमें से किसी बात का जवाब नहीं देते।

इसका जीता जागता उदाहरण भाजपा-जनता दल शासित बिहार है। साल 2006 में अनाज मंडियों को खत्म कर दिया गया। आज बिहार के किसान की हालत बद से बदतर है। आज जब मोदी और नीतीश एमएसपी का ढिंढोरा पीट रहे हैं तो बिहार का किसान एमएसपी न मिलने के कारण रोज पिट रहा है।

उन्होंने कहा कि तीनों कानूनों में न्यूनतम समर्थन मूल्य की चर्चा तक नहीं है। अगर मोदी सरकार व भाजपा-जनता दल यूनाईटेड सरकारों के मन में बेईमानी नहीं तो वह इन कानूनों में एमएसपी की गारंटी क्यों नहीं देते। कानून में ऐसा क्यों नहीं लिखते कि किसान को एमएसपी देना अनिवार्य है तथा उससे कम खरीद करने पर सरकार नुकसान की भरपाई करेगी और दोषी को सजा देगी।

कारण साफ है। खेत और खलिहान को मुट्ठीभर पूंजीपतियों की ड्योढ़ी की दासी बनाना है तथा उन्हें मुनाफा कमवाना है। यह तभी संभव है जब किसान की फसल को एमएसपी से भी कम रेट पर खरीदा जाएगा।

उन्होंने कहा कि मोदी सरकार का दावा कि अब किसान अपनी फसल देश में कहीं भी बेच सकता है पूरी तरह से सफेद झूठ है। आज भी किसान अपनी फसल किसी भी प्रांत में ले जाकर बेच सकता है। परंतु वास्तविक सत्य क्या है। कृषि सेंसस 2015-16 के मुताबिक देश का 86 प्रतिशत किसान 5 एकड़ से कम भूमि का मालिक है। जमीन की औसत मल्कियत 2 एकड़ या उससे कम है। ऐसे में 86 प्रतिशत किसान अपनी उपज नजदीक अनाज मंडी-सब्जी मंडी के अलावा कहीं और ट्रांसपोर्ट कर नहीं ले जा सकता या नहीं बेच सकता।

मंडियां खत्म होते ही अनाज-सब्जी मंडी में काम करने वाले लाखों-करोड़ों मजदूरों, आढ़तियों, मुनीम, ढुलाईदारों, ट्रांसपोर्टरों, शेलर आदि की रोजी-रोटी और आजीविका अपने आप खत्म हो जाएगी। बिहार इसका एक उदाहरण है। कृषि विशेषज्ञों का कहना है कि अध्यादेश की आड़ में मोदी सरकार असल में शांता कुमार कमेटी की रिपोर्ट लागू करना चाहती है ताकि एफसीआई के माध्यम से न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीद ही न करनी पड़े और सालाना 80.000 से 1 लाख करोड़ की बचत हो। इसका सीधा प्रतिकूल प्रभाव खेत खलिहान पर पड़ेगा।

अध्यादेश के माध्यम से किसान को ठेका प्रथा में फंसाकर उसे अपनी ही जमीन में मजदूर बना दिया जाएगा। क्या दो से पाँच एकड़ भूमि का मालिक गरीब किसान बड़ी-बड़ी कंपनियों के साथ फसल की खरीद फरोख्त का कॉन्ट्रैक्ट बनाने, समझने व साईन करने में सक्षम है। साफ तौर से जवाब नहीं में है।

उन्होंने कहा कि कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग अध्यादेश की सबसे बड़ी खामी तो यही है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य यानि एमएसपी देना अनिवार्य नहीं। जब मंडी व्यवस्था खत्म होगी तो किसान केवल कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग पर निर्भर हो जाएगा और बड़ी कंपनियां किसान के खेत में उसकी फसल की मनमर्जी की कीमत निर्धारित करेंगी। यह नई जमींदारी प्रथा नहीं तो क्या है। यही नहीं कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग के माध्यम से विवाद के समय गरीब किसान को बड़ी कंपनियों के साथ अदालत व अफसरशाही के रहमोकरम पर छोड़ दिया गया है।ऐसे में ताकतवर बड़ी कंपनियां स्वाभाविक तौर से अफसरशाही पर असर इस्तेमाल कर तथा कानूनी पेचीदगियों में किसान को उलझाकर उसकी रोजी-रोटी पर आक्रमण करेंगी तथा मुनाफा कमाएंगी।

कृषि उत्पाद, खाने की चीजों व फल-फूल.सब्जियों की स्टॉक लिमिट को पूरी तरह से हटाकर आखिरकार न किसान को फायदा होगा और न ही उपभोक्ता को। बस चीजों की जमाखोरी और कालाबाजारी करने वाले मुट्ठीभर लोगों को फायदा होगा। शायद यह पहली सरकार है जिसने एसेंशियल कमोडिटीज़ कानून यानि आवश्यक वस्तु कानून में संशोधन कर यह लिख दिया कि जब तक कीमतों में 100 प्रतिशत बढ़ोत्तरी न हो जाय यानि 100 रु प्रतिकिलो की चीज़ 200 रु प्रतिकिलो न हो जाय तब तक सरकार दखलंदाजी नहीं कर सकती। इसका सीधा नुकसान गरीब आदमी और आम जनमानस को होगा।

कृषि विरोधी काले कानूनों में न तो खेत मजदूरों के अधिकारों के संरक्षण का कोई प्रावधान है और न ही जमीन जोतने वाले बंटाईदारों या मुजारों के अधिकारों के संरक्षण का। ऐसा लगता है कि उन्हें पूरी तरह से खत्म कर अपने हाल पर छोड़ दिया गया है। अगर सरकारी खरीद और न्यूनतम समर्थन मूल्य दोनों खत्म हो गए तो राशन की दुकान पर मिलने वाला गरीब के लिए अनाज अपने आप खत्म हो जाएगा। असल में भाजपा किसान की उपज की खरीद व गरीब तक राशन पहुंचाने की व्यवस्था को ही खत्म करना चाहती है।

ये तीनों अध्यादेश संघीय ढांचे पर सीधे-सीधे हमला हैं। खेती व मंडियां संविधान के सातवें शेड्यूल में प्रांतीय अधिकारों के क्षेत्र में आते हैं। परंतु मोदी सरकार ने प्रांतों से राय करना तक उचित नहीं समझा। खेती का संरक्षण और प्रोत्साहन स्वाभाविक तौर से प्रांतों का विषय है परंतु उनकी कोई राय नहीं ली गई। उल्टा खेत खलिहान व गांव की तरक्की के लिए लगाई गई मार्केट फीस व ग्रामीण विकास फंड को एकतरफा तरीके से खत्म कर दिया गया। यह अपने आप में संविधान की परिपाटी के विरुद्ध है। महामारी की आड़ में किसानों की आपदा को मुट्ठीभर पूंजीपतियों के अवसर में बदलने की मोदी सरकार की साजिश को देश का अन्नदाता किसान व मजदूर कभी नहीं भूलेगा। मोदी सरकार व उसके मददगार हर राजनैतिक दल की सात पुश्तों को इस किसान विरोधी दुष्कृत्य के परिणाम भुगतने पड़ेंगे। कांग्रेस देश के किसान व खेत मजदूर के साथ कंधे से कंधा मिलाकर तब तक निर्णायक लड़ाई लड़ेगी जब तक इन काले कानूनों को खत्म नहीं कर देंगे।

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सदियों से इंसान बेहतरी की तलाश में आगे बढ़ता जा रहा है, तमाम तंत्रों का निर्माण इस बेहतरी के लिए किया गया है। लेकिन कभी-कभी इंसान के हाथों में केंद्रित तंत्र या तो साध्य बन जाता है या व्यक्तिगत मनोइच्छा की पूर्ति का साधन। आकाशीय लोक और इसके इर्द गिर्द बुनी गई अवधाराणाओं का क्रमश: विकास का उदेश्य इंसान के कारवां को आगे बढ़ाना है। हम ज्ञान और विज्ञान की सभी शाखाओं का इस्तेमाल करते हुये उन कांटों को देखने और चुनने का प्रयास करने जा रहे हैं, जो किसी न किसी रूप में इंसानियत के पग में चुभती रही है...यकीनन कुछ कांटे तो हम निकाल ही लेंगे।

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