टीवी पर पनपता लंगटापन

पहले बुद्धू बक्से के नाम से सुशोभित और आज लफड़ा बक्सा का पर्याय बन चुका हमारा टेलीविजन इस कदर पगला गया है कि अब वो किसी भी हद को पार करने मे संकोच नहीं करता । कभी ज्ञान का एक सशक्त माध्यम रहा टेलीविजन अब एक हंगामेदार वेश्यालय का स्वरूप लगने लगा है । ज्ञान का अंतिम लक्ष्य चरित्र निर्माण है और पर जो मनोरंजन के नाम पर आये दिन विभिन्न चैनलों पर परोसा जा रहा वो कहीं से भी ज्ञानवर्धक और चरित्र निर्माण करता लगे ऐसा तो सोचना भी पाप है, लेकिन जो एक खास बात इन सबसे भी ज्यादा है महत्वपूर्ण है वो ये कि इनसे चारित्रिक पतन और सामाजिक कुरीतियों के कई बड़े लक्षण उभर कर सामने आ जाते है ।

कहते है कि जिस दिन, जिस क्षण किसी के अंदर बुरा विचार आये अथवा कोई दुष्कर्म करने की प्रवृत्ति उपजे, मानना चाहिए कि वह दिन-वह क्षण मनुष्य के लिए अशुभ है। अब जो प्रतिदिन बुरे से बुरा देखने को मिल रहा है उसके बाद सामान्य रूप से अगर कोई बुरी प्रवृत्ति उपजा ले तो किया क्या जाये ? इंसान और इंसान की फितरत कब किस रूप मे बदलने को उतारू हो जाये इसका कोई अंदाजा तो रहता नहीं । अब ऐसे में आये दिन इन चैनलों को देखने वाले अगर कभी अपनी परिस्थिति से लड़ने की बजाय कोई दुष्प्रवृत्ति पाल ले तो ? शत्रु की घात विफल हो सकती है, किन्तु आस्तीन के साँप बने मित्र की घात विफल नहीं होती और नि:संदेह ये अलग-अलग चैनल आज के समय में किसी आस्तीन के सांप से कम नजर नही आ रहे हैं ।

पिछ्ले तीन महीने बिग-बास मे रीयलिटी (सच्चाई, असलियत) के नाम पर जो लंगटापन दिखाया गया..उसे क्या हमारी भारतीय संस्कृति का आईना माना जाए या फिर हमारे समाज का आधुनिकीकरण ? टेलीविजन अपने प्रारंभ से ही एक सामाजिक संस्था जैसी भूमिका का निर्वाह करता है और कोई समाज उतना ही स्वस्थ होता है जितनी उसकी संस्थाएँ ; यदि संस्थाएँ विकास कर रही हैं तो समाज भी विकास करता है, यदि वे क्षीण हो रही हैं तो समाज भी क्षीण होता है । बिग-बास में जो खुलापन परोसा गया है उसकी कोई प्रासंगिकता नजर नहीं आती है…शायद उस खुलेपन के बिना भी लोग इसे पसंद करते । तो बिलकुल सामने से ही ऐसी टेलीविजन संस्थाएं समाज का बेड़ा गर्क करने में बढ़ा-चढ कर भाग ले रही हैं । टेलीविजन पर तो पहले से ही विवाह जैसी पवित्र संस्था का जमकर माखौल उड़ाया जा रहा है …जिस तरह की विवाह को टेलीविजन पर दिखाया जाता है और फिर उसमें जो बर्बाद कर देने वाली संस्कृति को परोसा जाता है, क्या एक आम भारतीय परिवार से उसे किसी भी दृष्टिकोण से जुडा हुआ माना जायेगा ? क्या हमारे(भारतीय संस्कृति) यहां विवाह ऐसी होती है ? क्या हमारे यहां (भारतीय संस्कृति) इस तरह से बेहूदा हरकते प्रस्तुत करते हुए एक विवाह संपन्न होता है ? आखिर ये इस तरह के विवाह होता कहां देखते है ? इस तरह के स्क्रिप्ट लिखने वाले लफंटरों की मंशा.. कहीं से भी, किसी भी तरीके से समाज को चौपट कर देने वाली कही जायेगी। और सबसे बड़ी बात कि कमोबेश हर चैनल की कहानी दूसरे चैनल से मिलती हुई नजर आती है ।

अभी हाल में ही एक चैनल ने मां को भी बदलने की शुरूआत की है । सोनी चैनल वालो के पहले एपिसोड में पूजा बेदी और अनुराधा निगम को एक दूसरे का घर संभालने तथा उनके बच्चों और परिवार के साथ समय बिताने का कार्य मिला । बेडा-गर्क हो इन नामुरादों का जो अब मां पर भी अपनी कुदृष्टि जमाने की कोशिश कर रहे । इस कार्यक्रम में एक हफ्ते एक दूसरे के घर पर बिताने के बाद जब दोनों मां आमने-सामने हुई तो नजारा बड़ा ही दुर्भाग्यपूर्ण सा दिखा । एक-दूसरे के परिवार को नीचा दिखाने और अपने आप को श्रेष्ठ दिखाने की होड़ सी लगी हुई थी दोनों में । अब ऐसे में मां जैसा रिश्ता कितने समय तक अपनी मर्यादा की रक्षा कर पाएगा ..ये देखने वाली बात होगी । आने वाले दिनो में मां जैसे रिश्ते के ऊपर इस तरह के उटपटांग कार्यक्रम और ज्यादा दिखने लगे तो चौंकियेगा नहीं क्योंकि मानवी चेतना का परावलंबन और अन्तःस्फुरणा का मूर्छाग्रस्त होना , आज की सबसे बड़ी समस्या है ।

लोग स्वतन्त्र चिन्तन करके परमार्थ का प्रकाशन नहीं करते बल्कि दूसरों का उटपटांग अनुकरण करके ही रुक जाते हैं । कुछ ही दिनों में सभी एक दूसरे की नकल करते नजर आने वाले है । आज अगर ये स्पर्धा करने की जगह कुछ नया सृजन करने पर ध्यान दें तो नि:संदेह कुछ अच्छा कर भी ले । पर शायद इन चैनल वालो को सब कुछ शार्टकट करने की आदत इतनी गहरी पड़ चुकी है कि इनसे अब ये उम्मीद बेमानी ही कही जायेगी । आज से कुछ साल पहले कभी किसी ने ये नही सोचा था कि एक समय ऐसा भी आएगा जब लोग सिनेमाघरों से दूर होते चले जाएंगे । लेकिन ऐसा दौर भी आया और आज जो हालात सिनेमाघरों की है वो किसी से छुपी नही है ।

इंटरनेट की दुनिया भी अब बड़ी तेजी से आम लोगों तक अपनी पहुंच बना रही है …अगर यही रवैया चैनल वालों का आने वाले समय में रहा तो यकीन जाने इस लफड़े वाले लफंटर बाक्स से भी आम जन की वही दूरी बन जाएगी जो आज के समय में सिनेमाघरों से हो चुकी है । मनुष्य के भावों में प्रबल रचना शक्ति है, वे अपनी दुनिया आप बसा लेते हैं और इसके लिए उन्हे किसी टेलीविजन की कोई आवश्यकता नहीं । अत: ..हे बुद्दू बक्से समय रहते सुधर जा और बुद्धिमान, दूरदर्शी, विवेकशील एवं सुरुचि सम्पन्न बन वर्ना तेरी अर्थी को कांधा देने वाला भी कोई नहीं बचेगा ।

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