परिवर्तन रैली: नेतृत्व परिवर्तन या लालू प्रसाद का हृदय परिवर्तन

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यूं तो बिहार पटना का ऐतिहासिक गांधी मैदान सबसे ज्यादा रैलियों का गवाह रहा है, पर अगर इसकी समीक्षा की जाये तो जो बात निकल कर सामने आती है उसके अनुसार इनमें से ज्यादातर रैली राजद सुप्रीमों लालू प्रसाद के ही नाम है। देखा जाये तो उनकी रैलियों के अलग अलग नाम भले दियें गएं हों, पर सफलता के साथ आयोजित करने वाले शख्सियत का नाम है लालू प्रसाद। गरीब रैला, लाठी रैली, चेतावनी रैली या फिर परिवर्तन रैली नाम भले ही बदल गये हों पर उनका अंदाज नहीं बदला। अलबत्ता यह फर्क जरूर आया कि पहले की सभी रैलियां उन्होंने सत्ता में रहते हुए आयोजित की और भारी भीड़ के साथ यह साबित किया कि जनता उनके साथ है।
जबकि इस परिवर्तन रैली के आयोजन के समय वे सत्ता में नहीं हैं, फिर इसकी तुलना भीड़ के जमा होने से नहीं की जा सकती। बात चाहे विपक्ष के इस आरोप की हो कि राजद की यह रैली पूरी तरह से असफल रही, पर शासन सत्ता से पिछले कई सालों से दूर रहकर भी इस रैली का जो नजारा दिखा वह कतई राजद सुप्रीमों को हाशिए पर नहीं बता रहा है। गब्बर का विकल्प गब्बरके तर्ज पर इससे पहले भी लालू प्रसाद ने ही अपनी रैलियों का रिकॉर्ड तोड़ा है , फिर इस बार पहले से भीड़ की तुलना भले की जा सकती पर उनकी शक्ति को कम कर के आंकना अपने को किसी धोखे में रखना ही है।

मई की दोपहरी और भीषण गर्मी में भी लोगों का आना और लालू प्रसाद को सुनने की बेचैनी को सिरे से नकारा नहीं जा सकता। हलांकि लालू प्रसाद के पुराने अंदाज ने लोगों को भयभीत ही किया। एक बार फिर से मीडिया पर अपनी झल्लाहट और व्यवस्था परिवर्तन के नाम पर अपने पुत्रों को आगे करने का उनका तरीका भर बन कर रह गया यह रैली। कभी भाई भतीजा वाद और परिवारवाद के घोर विरोधी के रूप में लालू प्रसाद जाने जाते थे। अपने इसी विरोध की वजह से इनकी पहचान बनी और बिहार की जनता ने उन्हें बिहार की कमान संभालने का मौका दिया था। अपने इस विरोध के साथ वे स-पत्नी बिहार पर पूरे 15 सालों तक छाये रहे। पर दुर्भाग्य से वे अपने इस तथ्य पर कायम नहीं रह सके और भाई भतीजा वाद से भी दो कदम आगे निकल कर अपने सालों को उन्हों ने सत्ता का भागीदार बनाया। हालंकि इसी साला वादने उन्हें बिहार की सत्ता से इतना दूर कर दिया कि आज वे परिवर्तन यात्रा और परिवर्तन रैली में भी अपनी उन गलतियों के लिए सार्वजिक मंच से माफी मांगते देखे गये। उनकी इस माफी के निराले अंदाज को कभी सूबे के मुखिया नीतीश कुमार ने उनके ही अंदाज में बिहार विधान सभा में जन प्रतिनिधियों को भी बताया था।
हालांकि अपने परिवर्तन रैली में राजद सुप्रीमों ने लागातार नीतीश कुमार पर ही अपना निशाना साधा। कभी सीधी चेतावनी के रूप में तो कभी उन्हें आर एस एस का तोताबता कर। अल्पसंख्यकों को भयभीत कर राजद का माई (मुस्लिम-यादव) का उनका पुराना फॉर्मूला उन्हें फिर से सत्ता के करीब लाने के लिए कारगर हथियार की तरह दिख रहा है। उत्तर प्रदेश में मुलायम – अखिलेश की सरकार की वापसी भी उन्हें इस पुराने समीकरण की याद दिला रही है।

जाहिर तौर पर अगर इसकी समीक्षा की जाये तो माननीय मुख्यमंत्री बिहार का भी लगभग वही हथियार है, लालू के पिछले शासन सत्ता का भय अगड़ों को दिखा कर अपने साथ कैसे बनाये रखा जाये। नीतीश राज में मुस्लिमों पर होने वाले जुल्म और मुस्लिम युवकों को आतंकवादी बताकर उनके साथ भेदभाव की बात कह कर राजद सुप्रीमों ने अपने आपको मुस्लिमों के सबसे बड़े रहनुमा दिखाने का प्रयास किया।
सवर्णों का अपने से दूर जाना भी लालू प्रसाद को यह समझा गया कि यह एक सबसे बड़ा तात्कालिक कारण बना था उनके सत्ता से बाहर होने का। अत: अपनी इस परिवर्तन रैली में उन्हों ने इस बात पर भी लोगों का ध्यान आकृष्ट करने का प्रयास किया। सीधे और साफ लहजे में राजद सुप्रीमों ने सवर्णों को यह बताया कि जिनके वोट से नीतीश कुमार दुबारा बिहार की सत्ता पर काबिज हुए, उन्हें ही ठगने का काम किया। उन्हों ने कहा कि सवर्ण आज अपने आपको ठगा हुआ महसूस कर रहे हैं।

अपराधियों और अफसरशाही की बदौलत चलने वाली नीतीश की सरकार को उखाड़ फेकने का उनका हुंकार मंच से लोगों को उनकी ही सत्ता की खामियों की याद दिला गया। कभी सामाजिक न्याय का नारा बुलंद करने वाले लालू प्रसाद आज इस परिवर्तन रैली के माध्यम से मुस्लिम और यादव समीकरण को ही तलाशते नजर आये। मीडिया कर्मियों से उनकी नाराजगी आज भी नजर आ रही थी। मंच से सभी को नीचे उतारना और एक एक बाइट के लिए खीझना उनका स्वाभाविक नहीं था, बल्कि उनके अंदर के गुब्बार को ही दर्शा रहा था। इन सारी बातों के बीच अपने बेटों के लिए राजनीति में रास्ता बनाना या यूं कहें कि एक खुले मंच पर उन्हें अपनी इस दलील के साथ लाने का प्रयास कि पहले भी बेटों ने देश की विरासत को आगे बढाया है, फिर उनके बेटे भी तो लालटेन ही थामेंगे, न कि कमल और तीर।

जिन कांग्रेस विरोध के दम पर पिछले डेढ़ दशक तक लालू निरंकुश होकर बिहार की राजनीति पर छाये रहे उनकी पत्नी और विपक्ष की नेता राबड़ी देवी ने भी कांग्रेस पार्टी का ही हवाला दिया, कि किस तरह वहां नेहरू-गांधी परिवार के लोग आज देश को सफलता पूर्वक चला रहे हैं, फिर उनके बेटे तेज प्रताप और तेजस्वी अगर बिहार की राजनीति में अपनी जगह तलाश रहे हैं तो इसमें बुराई क्या है। एक कर्मठ कार्यकर्ता की तरह वे पार्टी के लिए पिछले साल से ही अपनी सेवा दे रहे हैं और फिर जनता की पसंद का हवाला देते हुए राबड़ी देवी ने भी उनकी राजनीति में आने के मकसद और वजहों की भरपूर वकालत की। लालू और राबड़ी के बदले बोल को सभी ने सहजता से लिया पर नीतीश और उनकी सरकार की नजर में यह सब एक ढकोसला है और एन केन प्रकारेण फिर से बिहार की जनता को धोखें में डालने की तैयारी के अलावा कुछ नहीं है।

बहरहाल लालू प्रसाद की यह परिवर्तन रैली उनके बदले बोल और बिहार के लिए चिन्तित उनकी कार्यशैली की वजह से नेतृत्व परिवर्तन कम उनके हृदय परिवर्तन की ओर ज्यादा इशारा कर रही थी। पश्चाताप के आंसू कितने सच्चे हैं यह तो वक्त बतायेगा पर लालू प्रसाद का परिवार और पुत्र मोह आज भी उसी तरह कायम है। इतिहास गवाह है पुत्र मोह और परिजनों की चिन्ता से देश की राजनीति को सफलता पूर्वक नहीं चलाया जा सकता। पर विकल्पहीनता का दंश झेल रहा देश जब राजनीतिक अस्थिरता के दम पर कांग्रेस की सत्ता को बार बार अपनाता है। पिछले डेढ़ टर्म की अपनी सरकार की खामियों से उपजे जन आक्रोश की बजह से अगर नीतीश सरकार कोई सबक नहीं लेती और सुधार के उपाय नहीं करती तो फिर अगर बिहार में लालू प्रसाद की वापसी हो तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं होनी चाहिए। वैसे रैली की सफलता दर सफलता पर बहस के साथ यह रैली एक और सवाल लोगों के जेहन में छोड़ गया कि क्या बिहार के नेतृत्व परवर्तन के लिए आयोजित की गई थी.यह रैली, या राजद सुप्रीमों लालू प्रसाद का वाकई हुआ है हृदय परिवर्तन।

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