भारत में 12 सालों में 2 लाख किसानों ने आत्महत्याएं की

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शिरीष खरे, मुंबई

2021 तक भारत में महानगरों की संख्या दुनिया में सबसे ज्यादा होगी और हर महानगर में 1 करोड़ से ज्यादा लोग रह रहे होंगे। अमेरिकन इंडिया फाऊंडेशन ऐसा मानता है और वहीं भारत सरकार की जनगणना के मुताबिक भी बीते एक दशक में गांवों से तकरीबन 10 करोड़ ने पलायन किया है। जबकि निवास स्थान छोड़ने के आधार पर 30 करोड़ 90 हजार लोगों ने अपना निवास स्थान छोड़ा है। योजना आयोग के मुताबिक 1999-2000 में अप्रवासी मजदूरों की कुल संख्या 10 करोड़ 27 हजार थी, जबकि मौसमी पलायन करने वालों की संख्या 2 करोड़ से ज्यादा अनुमानित की गई। कई जानकारों की राय में असली संख्या सरकारी आंकड़े से 10 गुना ज्यादा भी हो सकती है।

2000 की राष्ट्रीय कृषि नीति में कहा गया था कि कृषि अपेक्षाकृत लाभ का पेशा नहीं रह गया है। योजना आयोग के मुताबिक 1990 के दशक के मध्यवर्ती सालों में कृषि और उससे जुड़े क्षेत्रों की बढ़ोत्तरी घटती चली गई है। सिंचाई के साधन वाले भूमि क्षेत्र और सिंचाई के लिए बारिश के पानी पर निर्भर भूमि क्षेत्र के बीच आर्थिक असमानता बढ़ती जा रही है। विश्व-बाजार में मूल्यों का तेज उतार-चढ़ाव से नकदी फसलों का उत्पादन करने वाले क्षेत्रों को घाटा उठाना पड़ रहा है। इसके चलते बड़ी संख्या में किसानों द्वारा खेती का काम छोड़कर शहरों की तरफ पलायन कर रहे हैं। बीते लंबे अरसे से कृषि में लाभ की स्थितियों के मुकाबले लागत और जोखिम लगातार बढ़ रहे हैं और सरकारी सहायता लगातार कम होती जा रही है। 1960 में प्रति किसान भूस्वामित्व की ईकाई का आकार 2.6 हेक्टेयर था जो 2000 में घटकर 1.4 हेक्टेयर रह गया। कुल मिलाकर बीते चार दशकों में भूस्वामित्व की ईकाई का आकार 60% घटा है। भारत के किसानों को मिलने वाली सब्सिडी(66 डॉलर) विकसित देशों जैसे अमेरिका के किसानों को मिलने वाली सब्सिडी(21 हजार डॉलर) के मुकाबले न के बराबर है। 1995 में कुल आबादी का 54.6% हिस्सा खेतिहर आबादी का था जो 2005 में घटकर 49.9% रह गया।

 योजना आयोग के मुताबिक 1983 से 1994 के बीच रोजगार में बढ़ोत्तरी की दर 2.03 % थी जो साल 1994 से 2005 के बीच घटकर 1.85% हो गई। 2005 में असंगठित क्षेत्र में खेतिहर मजदूरों की संख्या 98% थी। तकरीबन खेतिहर मजदूरों में 64% का अपना रोजगार है जबकि 36% दिहाड़ी मजदूर हैं। 1983 से 1994 के बीच रोजगार की दर 1.04% थी जो 1994 से 2005 के बीच घटकर 0.08% हो गई। 1994 से 2005 के बीच बेरोजगारी की दर में 1% की बढ़ोतरी हुई। इसी तरह, 1983 से 1994 के बीच रोजगार की बढ़ोतरी की दर 2.03% थी जो 1994 से 2005 के बीच घटकर 1.85% हो गई।

योजना आयोग के अनुसार एक किसान परिवार का औसत मासिक खर्च 2770 रुपये है, जबकि खेती के अलावा दिहाड़ी मजदूरी सहित अन्य स्रोतों से उसकी औसत मासिक आमदनी 2115 रुपये होती है। जाहिर है एक किसान परिवार का औसत मासिक खर्च उसकी मासिक आमदनी से तकरीबन 25% ज्यादा है। इसीलिये भारतीय किसानों को कर्ज लेने के लिए मजबूर होना पड़ता है।

बीते 12 सालों में 2 लाख किसानों ने आत्महत्याएं की हैं। इनमें से अधिकतर किसान कपास और सूरजमुखी जैसी नकदी फसल की खेती करने वाले रहे हैं। उत्पादन की लागत बढ़ने के चलते ऐसे किसानों को साहूकारों से ऊंचे ब्याज दर पर कर्ज लेना पड़ा है। कीटनाशक और उर्वरक बेचने वाली कंपनियों ने महाराष्ट्र और कर्नाटक में किसानों को कर्ज देना शुरु किया, जिससे किसानों के पर कर्ज का बोझ और बढ़ गया। एक तो गरीब किसानों की आमदनी बहुत कम है और कर्ज लेने के कारण (शादी ब्याह वगैरह) कहीं ज्यादा होने से वह भंवरजाल से निकल नहीं पा रहे हैं।

योजना आयोग द्वारा प्रस्तुत ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना के मुताबिक ग्रामीण गरीबों की कुल संख्या का 41% हिस्सा खेतिहर-मजदूर वर्ग से है। जबकि ग्रामीण गरीबों की कुल संख्या का 80% हिस्सा अनसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और पिछड़े वर्ग से हैं। खाद्य व कृषि संगठन द्वारा विश्व में आहार-असुरक्षा की स्थिति पर जारी रिपोर्ट के मुताबिक भारत में तकरीबन 23 करोड़ यानी 21% लोगों को रोजाना भर पेट भोजन नहीं मिलता है। 1983 में ग्रामीण भारत के हर आदमी को रोजाना औसतन 2309 किलो कैलोरी का आहार हासिल था, जो साल 1998 में घटकर 2011 किलो कैलोरी रह गया। 1990 के दशक में मजदूरों और किसानों की खरीददारी की क्षमता में काफी कमी आई। इससे जहां ग्रामीण भारत में खेतिहर संकट गहराया तो वहीं अनाज के सरकारी गोदामों में अनाज सड़ता रहा। न्यूट्रिशनल इंटेक इन इंडिया के मुताबिक 1993-94 में प्रतिव्यक्ति रोजाना औसत कैलोरी उपभोग की मात्रा 2153 किलो कैलोरी थी जो साल 2004-05 में घटकर 2047 किलो कैलोरी हो गई। इस तरह कुल 106 किलो कैलोरी की कमी आई। ग्रामीण इलाकों में तकरीबन 66% आबादी रोजाना 2700 किलो कैलोरी से कम का उपभोग करती है। विश्वबैंक के अनुसार औसत से कम वजन के सबसे ज्यादा बच्चे भारत में ही हैं। भारत में 5 राज्यों और 50% गांवों में कुल कुपोषितों की तादाद का 80% हिस्सा रहता है। 5 साल से कम उम्र के 75% बच्चों में आयरन की कमी है और 57% बच्चों में विटामिन ए की कमी से पैदा होने वाले रोग के लक्षण हैं। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के दौरान औसत से कम वजन के बच्चों की संख्या शहरों के(38%) मुकाबले गांवों में(50%) ज्यादा पाई गई, जबकि औसत से कम वजन के बच्चों की संख्या में लड़कों(45%) की तुलना में लड़कियों (53.2%) ज्यादा पाई गईं। अगर जातिगत आधार पर देखा जाए तो अनुसूचित जाति के बच्चों में 53% और अनुसूचित जनजाति के बच्चों में 56% बच्चे औसत से कम वजन के पाये गए। जबकि बाकी जातियों में उनकी संख्या 44% है। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के अनुसार ग्रामीण भारत में 18.7% परिवारों के पास सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत जारी किया जाने वाला कोई भी कार्ड नहीं है।

 एनुअल स्टेट्स ऑव एजुकेशन रिपोर्ट( असर) 2008 के मुताबिक ग्रामीण इलाकों के अनुसूचित जनजाति के तबके में साक्षरता दर सबसे कम(42%) पायी गई है। जबकि अनुसूचित जाति के तबके में साक्षरता दर(47%) है। सबसे कम भूमि पर अधिकार रखने वाले वर्ग में साक्षरता दर 52% है। जबकि सबसे बड़े आकार की ज्यादा भूमि पर अधिकार रखने वाले वर्ग में साक्षरता दर 64% है। शिक्षा के हर पैमाने पर पुरुषों की तुलना में स्त्रियों की मौजूदगी कम है। ग्रामीण इलाके की महिलाओं और पुरुषों के बीच साक्षरता दर क्रमशः 51.1% और 68.4%,पायी गई। 2009 में 5 साल की उम्र वाले 50% बच्चे ही स्कूलों में नामांकित पाये गए।

स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के मुताबिक तकरीबन 25% भारतीय सिर्फ अस्पताली खर्चे के कारण गरीबी रेखा से नीचे हैं। महज 10% भारतीयों के पास कोई न कोई स्वास्थ्य बीमा है और ये बीमा भी उनकी जरुरतों के मुताबिक नहीं है। वॉलेंटेरी हैल्थ एसोशिएशन ऑफ इंडिया के मुताबिक डॉक्टरों की संख्या कम होना भी एक बड़ी समस्या है। देश में एक हजार की आबादी पर महज 0.6 एमबीबीएस डॉक्टर ही हैं। इसी तरह दवाइयों के दामों में तेज गति से बढ़ोतरी हुई है। मरीज को उपचार के लिए अपने खर्च का औसतन 75% हिस्सा दवाइयों पर न्यौछावर करना पड़ता है। दवाइयां मंहगी होने की मुख्य वजहों में नये पेटेंट कानून, दवा निर्माताओं के ऊपर कानूनों का उचित तरीके से लागू न होना और स्वास्थ्य के लिए हानिकारक दवाओं का बाजार में प्रचलित होना है। यह भी दक्षिण के राज्यों या धनी राज्यों में ज्यादा हैं। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-3 के अनुसार गांवों में 43% महिलाओं को प्रसव से पहले कम से कम तीन बार अनिवार्य रूप से चिकित्सा की सुविधा मिल पाती है। शिशु-मृत्यु दर के मामले में प्रति हजार नवजात शिशुओं में से औसतन 60 काल के गाल में समा जाते हैं। 12-13 महीने के नवजात शिशुओं में से महज 44% को ही सभी प्रकार के रोग-प्रतिरोधी टीके लग पाते हैं।

भारत का मानव विकास सूचकांक 0.619 है। यह कुल 177 देशों के बीच 128 वां स्थान दर्शाता है। भारत का मानव-निर्धनता सूचकांक 31.3 है, जो 108 देशों के बीच 67वां स्थान स्थान दर्शाता है। मानवीय विकास का यह आकलन उजागर कर देता है कि भारत के नागरिक स्वस्थ और दीर्घायु जीवन जीने में कहां तक समर्थ हैं। इससे यह भी उजागर होता है कि भारत के नागरिक कहां तक शिक्षित हैं और मानव विकास के सूचकांक पर उनका जीवन स्तर कैसा है।

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  1. So not really on the same topic as your post, but I found this today and I just can’t resist sharing. Mrs. Agathe’s dishwasher quit working so she called a repairman. Since she had to go to work the next day, she told him, “I’ll leave the key under the mat. Fix the dishwasher, leave the bill on the counter, and I’ll mail you the check. Oh, and by the way…don’t worry about my Doberman. He won’t bother you. But, whatever you do, do NOT under ANY circumstances talk to my parrot!” When the repairman arrived at Mrs. Agathe’s apartment the next day, he discovered the biggest and meanest looking Doberman he had ever seen. But just as she had said, the dog simply laid there on the carpet, watching the repairman go about his business. However, the whole time the parrot drove him nuts with his incessant cursing, yelling and name-calling. Finally the repairman couldn’t contain himself any longer and yelled, “Shut up, you stupid ugly bird!” To which the parrot replied, “Get him, Spike!”

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