कहने में भेद हैं, भ्रम हैं..’बनने’ में आडंबर है, इनका ‘होना’ अभेद है…

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अरुण प्रकाश, पूर्व शैक्षणिक सलाहकार, अवध विश्वविद्यालय, अयोध्या

आचार्य रजनीश की आज जयंती है। मुझे यही नाम अच्छा लगता है, आचार्य रजनीश। वही पन अच्छा लगता है, जब वह आचार्य रजनीश थे। भगवान होने और ओशो (समुद्र भाव) हो जाने की घोषणा में कुछ अपूर्व नहीं था, यह सब पूर्व में दोहराई गई थीं।
अपूर्व थी रजनीश की वह दृष्टि जिससे उन्होंने उपनिषदों से लेकर पलटू और रज्जब तक की टीकाएं कहीं। और, यह दृष्टि इनके उसी पन की देन है जब वह आचार्य रजनीश थे…..चार्वाक, निर्दोष और स्त्रैण।

मैं यह पोस्ट एक प्रश्न के जवाब में लिख रहा हूँ, ‘आचार्य रजनीश का मूल्याङ्कन क्या हो ?’

उनकी कही बातें या उनका ‘होना’! कही गई बातों की कसौटी उनके अनुयायी हैं, उनका कम्यून है। अलग रङ्ग और ढंग के समूह बनने के अलावा उनके सन्यासियों के पास क्या है? कुछ नहीं। रजनीश कहते थे कि मेरे शब्दों के अंतराल में मुझे खोजना, लोगों ने इसे भी एक कोट से अधिक कुछ समझा नहीं। इसी कारण रजनीश के प्राप्ति की परछाई भी उनके अनुयायियों को नसीब न हुई।

रजनीश के बोलने में जितना आत्मविश्वास दिखता है, उतना ही पश्चाताप भी। वह जानते थे कि जिसे वह कह रहे हैं, वह कहा न जा सकेगा। यह पश्चाताप उसी अंतराल में उभरता है, जहां रजनीश ‘उन्हें’ खोजने की बात करते हैं।

सत्य प्रविधियों से पार है।

आचार्य रजनीश को इसका भान न रहा हो, ऐसा हो ही नहीं सकता। तब भी उन्होंने प्रविधियों को ही दोहराया क्योंकि यही ग्राह्य था। ग्राह्यता के इसी आग्रह में रजनीश दबे रहे। उनके अनुयायी कभी उनके शर्तों पर राजी न हो सके, उनके सामने अपने शर्तों की भीड़ बनी रही और उसी पर कायम रही। सामने से नदी गुजरी तब भी, सब लोटा बचाये बैठे रह गए।

रजनीश ने जो आज बोला, अगले दिन उसका खंडन किया। यह उनकी कला नहीं, कमजोरी थी। जब कोई भी अनुसंधान में होता है, उसे हर बार कुछ नया दिखता है, वह नया ही पुराने का खंडन होता है। इस पटल पर ही लिखने वाले लोग भी जब कुछ वर्ष पुराने अपने लिखे को देखते होंगे तो राजी नहीं हो पाते होंगे। लेकिन, यह रजनीश की कमजोरी किस अर्थ में थी! आज के अनुसंधान को आज ही कहना। वह पूरी यात्रा को कहते गए। वाणी कुशलता ऐसी थी कि जो कहते थे वही अंतिम सत्य लगता था। लोग उसे पकड़ लेते थे। अगले दिन रजनीश तो उसका खंडन करके बढ़ जाते लेकिन लोग वहीं फंस जाते थे।

तैत्तिरीय उपनिषद में भृगु का पुत्र वरुण जब अनुसंधान में होता है तो वह ब्रह्म को क्रमशः अन्न, प्राण-मन-विज्ञान, और आनंद के रूप में पहचानता है। उसकी आरंभिक पहचान है अन्न ब्रह्म है, लेकिन जब प्राण के स्तर ब्रह्म का साक्षात करता है तो अन्न की असत्ता हो जाती है। जब मन के स्तर पर होता है तो प्राण की असत्ता हो जाती… इस तरह आनंद की प्राप्ति विज्ञान का खंडन हो जाता है।

वेदान्तियों का स्वस्वरूपसंधान ऐसा है, जैसे प्रत्येक फल में कोई विशेष तत्व खोजना। जो मिले उसे तोड़कर देखना फिर छोड़ देना… नहीं, यह नहीं है। यही क्रम वह तब तक दोहराते हैं, जब तक अविभाज्य न मिल जाये। शेष न मिल जाये। वह इस प्रक्रिया को प्रतिष्ठित नहीं करते प्राप्ति को करते हैं। आचार्य रजनीश ने इस प्रक्रिया की प्रतिष्ठा की, लोग यहीं फंस गए…प्राप्ति तक पहुंचे नहीं। स्वयं आचार्य रजनीश को इससे बाधा न हुई, लेकिन किसी और को इसका लाभ न हुआ।

किसी को भ्रम देना अच्छा है, बजाय कच्चे सिद्धान्त पकड़ाने के। भ्रम का नाश समय के सापेक्ष हो जाएगा लेकिन सिद्धांत पंथ बनकर भटकेंगे।

यात्रा के अंतिम समय में रजनीश ने इसके बहुत प्रयास किये कि उनके अनुयायी पुराना सब कहा भूलकर यहां तक आएं, जिसे वह ‘आत्यंतिक’ कहते थे। लेकिन, सीडी और पुस्तकों का धंधा उसी छोड़े गए, खंडित किये गए शब्द-संग्रह से ही चलना था तो वही चला। और, आज भी चल रहा है।

पारस लोहे को सोना बनाता है। किसी को पारस नहीं बना सकता। जबकि, गुरु स्वयं पारस है तो वह शिष्य को भी पारस बना देता है। आचार्य रजनीश के शिष्य पारस क्या, सोना क्या, अपना धातु-धर्म भी बचाये रखने में असफल रहे। लेकिन, मैं इसे आचार्य रजनीश की असफलता नहीं मानता। लोगों ने जो सुनना चाहा उन्होंने वह बोला, शिष्यों का मन व समूह तो उन्हें भी रखना था। लोग ‘बुद्ध-पुरुष’ के पास भी जोक सुनने की अभिलाषा से जाएं तो इसमें उस ‘बुद्ध-पुरुष’ का क्या दोष! उन्होंने सुनाया, बहलाया। बलिहारी तो उनकी है जो ‘बुद्ध-पुरुषों’ के पास भी जोक सुनने के लिए ही जाते हैं।

तब भी, रजनीश अपने ‘होने’ में सम्यक रहे, सम्पूर्ण रहे। उनके कहने में भेद हैं, भ्रम हैं..’बनने’ में आडंबर है। जबकि, उनका ‘होना’ अभेद है।

मैं उन्हें भगवान नहीं मानता, तब भी उनकी भगवत्ता को प्रणाम करता हूं।
अरुण प्रकाश, पूर्व शैक्षणिक सलाहकार, अवध विश्वविद्यालय, अयोध्या

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