पितृत्व विवाद के स्त्रीवादी प्रसंग

2
31
संजीव चन्दन
संजीव चन्दन

संजीव चन्दन

एन. डी तिवारी के डी.एन.ए टेस्ट की रिपोर्ट सार्वजनिक होते ही मीडिया से लेकर  सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर टिप्पणियों की बाढ़ सी आ गई. हालांकि जबसे यह विवाद सुर्ख़ियों में आया है तब से ही एन.डी तिवारी , कांग्रेस  तथा  नेताओं के चरित्र को लेकर टिप्पणियां आती रही हैं. इन टिप्पणियों में गौर करने वाली बात यह है कि इनमें महिलाओं का योगदान न के बराबर है. दो परिवारों के बीच विशुद्ध संपत्ति का यह विवाद धीरे-धीरे नैतिकता, सार्वजनिक जीवन की शुचिता , सांस्कृतिक चेतना और कई बार तथाकथित’ स्त्रीवादी साहस ‘ के खांचे में विमर्श का विषय बनता गया.

सवाल है कि इस घटना और घटना से जुडी टिप्पणियों का स्त्रीवादी पाठ क्या हो सकता है ? क्यों स्त्रियाँ उज्ज्वला शर्मा के सहस और उनकी लड़ाई को अपनी लड़ाई के तौर पर चिह्नित नहीं कर पा रही हैं ? क्यों नहीं अदालती जीत को स्त्रीवादी जीत के उत्सव के तौर पर मनाया गया? दरअसल यह पूरी घटना पितृसत्ता के फ्रेम के भीतर ही घटी है और उसपर टिप्पणियां, पक्ष-विपक्ष की, पितृसत्ता को पुनरुत्पादित करती टिप्पणियाँ ही हैं. वैसे पक्ष की टिप्पणियां बहुत कम ही रही हैं, एक दो वेब साईट को छोड़कर, जहाँ एन.डी तिवारी के लोकप्रिय और विनम्र नेता होने की आड़ में उनका बचाव किया गया है और उज्जवला शर्मा पर उन्हें लोभी और लगभग चरित्रहीन कहते हुए प्रहार किया गया है.

इस घटना का या ऐसी ही कई घटनाओं को जिस प्रकार स्वागत किया जाता रहा है, उनमें रुचि ली जाती रही है , उससे ऐसा लगता है कि भारत के समाज  उच्चतर ‘नैतिक अवस्था’  में जीते हैं, जहाँ एन.डी तिवारी जैसी दुर्घटनाएं अपवाद स्वरुप घटती हैं और समाज को पथभ्रष्ट करती हैं.जबकि इन घटनाओं के प्रति अतिसंवेदनशील समाजों की हकीकत कुछ और है, दूसरों के यौन गतिविधियों में तांक-झाँक से  दर्शन  रति ‘ का आनंद लेते समाज की हकीकत , यह एक प्रकार से अन्तःस्थ ( इन्तर्नलाइज) हो चुका दर्शन -रति सुख ( वोयेरिज्म ) है. समाज में नेताओं के ऐसे ज्ञात -अज्ञात प्रसंगों, अफवाहों के खूब आनंद लिए जाते रहे हैं. चर्चित हस्तियों , खासकर नेताओं के संबंधों की कथाएँ गांवों के चौपाल से लेकर शहरों के कॉफ़ी हॉउस तक खूब होती रही हैं, अब सोशल नेटवर्किंग जैसे उत्तरआधुनिक चौपालों पर भी. इन नेताओं में नेहरु, इंदिरा गांधी से लेकर एन.डी.तिवारी तक शुमार रहे हैं. अभी ज्यादा समय नहीं बिता है जब अटल बिहारी वाजपयी की घोषणा ‘ मैं क्वारा हूँ, ब्रह्मचारी नहीं,’ को पितृसत्तात्मक समाज ने जश्न सा मनाया था, हालांकि इस घोषणा के बाद कोई उज्जवला शर्मा सामने नहीं आई. लेकिन क्या ऐसा कहते हुए अटल बिहारी वाजपयी और ऐसा करते हुए एन.डी .तिवारी में कोई विशेष फर्क है ! मीडिया भी समाज के इस द्वैध   को बखूबी इस्तेमाल करता रही है. उसे भी पता है कि अभिषेक मनु सिंघवी , एन.डी.तिवारी से लेकर ऐसी सारी दृश्यरतियों के क्रेता हैं, इसीलिए ताक-झांक के खेल में वह खूब शामिल होती है. कांशीराम जी के तमाचे की गूंज अभी तक मीडिया से गायब नहीं हुई होगी, जब उनके निजी दायरे में ‘पीपिंग टॉम’ की तरह ताक-झाँक की कोशिश करते एक पत्रकार को उन्होंने गुस्से में एक तमाचा जड़ दिया था.

ऐसी घटनाओं पर नैतिक आग्रहों के साथ प्रकट होते समाज के द्वारा वस्तुकरण स्त्रियों का ही होता है , भले ही कुछ प्रतिक्रियाओं की भाषा प्रथम दृष्टया स्त्री के पक्ष में दिखती हो. बिल क्लिंटन को लानते-मलानते भेजते लोगों के लिए ‘ मोनिका लिविन्स्की’ एक जातिवाचक प्रतीक बन जाती है और शक्ति और सत्ता के प्रति प्रशंसक भाव में रहने वाले समाज में एक शक्तिशाली अवस्था की फंतासी बन जाती है. क्या इसी समाज में विवाहित स्त्री राधा और अविवाहित पुरुष कृष्ण का मिथकीय प्रेम को सम्मान और पूजा भाव नहीं प्राप्त है ? क्या ‘लेडी चैटर्ली’ के पाठकों की संख्या इसी समाज की हकीकत नहीं है, जो विवाहेत्तर सम्बन्ध की महानतम रचनाओं में से एक है, स्त्री की स्वयं की अस्मिता  को प्रतिष्ठित करता हुआ उपन्यास.  उज्ज्वला शर्मा की तरह की ही एक माँ पौराणिक आख्यानों अथवा महाभारत की कथा में भी है , जिसके पुत्र ऋषि जाबाल के पिता का कोई ज्ञात नाम नहीं है, गुरुकुल में नामांकन के लिए उसकी माँ जाबाला अपना नाम बताती है और ऋषि भी माँ के नाम से ही ख्यात होते हैं. यानी समाज नैतिकता की दोहरी अवस्थाओं में जीता  रहा है . एन.डी तिवारी के लिए आने वाली टिप्पणियाँ इसी मनोसंरचना से आ रही है, यहाँ अंततः उज्जवला शर्मा का वस्तुकरण भी हो रहा है, वे एक प्रतीक बनती जा रही हैं, एक ऐसी स्त्री का, जो विविध फंतासियों को संतुष्ट कर सकें. यह मानसिकता स्त्रियों को कभी ‘ छिनाल ‘ , दुश्चरित्र  कहकर अपना फतवा देती है तो कभी अपने विरधी व्यक्ति, समूह या संस्था को लम्पट पुरुष कहकर. सवाल किसी उज्जवला शर्मा का नहीं है , सवाल ‘यौनिकता’ पर सामजिक सोच  की है. क्या स्वयं को  अपेक्षाकृत अधिक ‘चरित्रवान’  घोषित करने मनाने वाले चिन्तक समूह में एन.डी तिवारी जैसी बेचैनी नहीं शुरू हो गई थी, जब तसलीमा नसरीन ने एक-एक कर उन पुरुषों के नाम जाहिर शुरू करने शुरू किये थे , जो उनके जीवन में विशेष दखल रखते थे.

इस प्रसंग पर मेरे फेसबुक फ्रेंड लिस्ट की अधिकांश स्त्रियों ने चुप्पी बना रखी है, यह अनायास नहीं है, बल्कि ऐसा इसलिए है कि उन्हें इसमें कोई मुक्ति प्रसंग नहीं दिख रहा है . वे अपने पुरुष मित्रों की टिप्पणियों के अर्थ-गाम्भीर्य को खूब समझती हैं, खूब समझती हैं, उसके अर्थ- अर्थान्तारों ( कनोटेशन ) को . वे समझती है कि किस प्रकार ये टिप्पणियाँ या तो एन.डी.तिवारी के ऊपर  व्यक्तिगत तौर पर या कांग्रेस के नेता के प्रतीक के तौर पर या नेता के रूप में एक सामूहिक प्रतीक के तौर  पर हमला हैं ! उन्हें पता है कि उन अधिकाँश टिप्पणियों में कोई स्त्रीवादी मानसिकता काम नहीं कर रही है. वे बखूबी समझती  हैं कि उज्जला शर्मा की लड़ाई स्त्री अस्मिता की लड़ाई भी नहीं है, अपने तमाम साहसिक  प्रस्थान विन्दुओं  के बावजूद. वे खूब समझती है कि ‘ जैविक पिता ‘ और ‘सामाजिक पिता’ के नए अर्थ -सन्दर्भ के साथ समाज अपने दरवाजे ऐसे संबंधों के लिए नहीं खोलने वाला है , बल्कि ये शब्द और ‘शब्द-अर्थ’  पितृसत्तात्मक ‘हास्यबोध ‘ के हिस्सा होने जा रहे हैं.   उन्हें खूब पता है कि विभिन्न सदनों में खुलेआम ‘ ब्लू फिल्में ‘ देखने वाली जमात हो या लुक -छिप कर पोर्न क्रेताओं का समूह हो, वहां उनका वस्तुकरण कैसे और किन अर्थ-प्रसंगों के साथ होता है.

सवाल है कि तिवारी ने अपने मर्दवादी अहम् से मुक्त होकर कंडोम का इस्तेमाल किया होता यौन संसर्ग के दौरान या वे पिता होने के काबिल नहीं होते या नसबंदी करा चुके होते तो क्या यह सम्बन्ध एक ‘नैतिक आवरण ‘ में छिपा नहीं रहता और तब क्या यह एक स्त्री के यौन उत्पीडन का मामला यहाँ नहीं बनता !  हालांकि इस प्रसंग में स्त्री के यौन -उत्पीडन का प्रसंग प्रचलित अर्थों में इसलिए नहीं है कि तिवारी और उज्ज्वला शर्मा की सामजिक हैसियत  से पावर -पोजीशन का गैप नहीं बनता , जो यौन-उत्पीडन के दायरे में आने के लिए जरूरी है. बल्कि यह पूरा प्रसंग स्वीकृत विवाहेत्तर सम्बन्ध का है. उज्ज्वला भी एक केंद्रीय मंत्री की बेटी रही हैं, उच्चवर्गीय सामजिक हैसियत में रही हैं. इस पूरी लड़ाई को दो घरों के संपत्ति विवाद के दायरे में ही देखा जाना चाहिए था. क्योंकि यह प्रसंग वैसा ही नहीं है, जैसा  मधुमिता शुक्ला अथवा शैला मसूद के प्रसंग हैं अथवा राजस्थान की भंवरी देवी का प्रसंग .यह वैसे  यौन उत्पीडन की घटना भी नहीं है कि जो कार्य-स्थलों से लेकर राजनीतिक गलियारों में पावर -पोजीशन के बल पर होते हैं . या यह  उन राजनीतिक  सेक्स स्कैंडलों से भी अलग है , जो हमेशा से राजनीतिक गलियारों में अंजाम पाते रहे हैं, जिनमें निर्दोष लड़कियों की जान जाती रही. यह विवाद स्वयं एन.डी. तिवारी के आंध्र  -राजभवन के सेक्स स्कैंडल से भी  भिन्न है

2 COMMENTS

  1. What you want to say -Leaders should lead us like that way..I mean People should ignore such incidence. DNA Tiwary is indeed a subject of mockery ..once he was caught with pros in governor house…

  2. Yes, You might have gone through my last paragraph about the sex scandal of Tiwari. But I have tried to do feminist critic of the folds of comments on the issue, which are patriarchal themselves. Mockery should not be targeted to woman sexuality, which is in maximum cases a unfortunate reality.

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here