धर्म और जाति के झगड़े नफरत या भविष्य जरूरी है ?

0
6

डा. सी पी राय
स्वतंत्र राजनीतिक चिंतक एवं वरिष्ठ पत्रकार

जहा दुनिया और मानवता के सामने आज भी बड़ी चुनौतिया है और दुनिया के सारे देश भविष्य की चुनौतियों का आकलन करने में तथा उससे निपटने का रास्ता खोजने में अपनी सम्पूर्ण मेधा को लगाए हुए है वही भारत का काफी संख्या में राजनीतिक नेतृत्व आज भी जाति और धर्म के विमर्श को ही मुख्य विमर्श बनाने में अपनी पूरी उर्जा खपाए हुआ है | नब्बे के दशक से भारत ने धर्म के नाम पर काफी बदनामी और तबाही झेला है और जाति के नाम को लेकर भी खूब उलझा रहा है | इस वक्त जहा कोविद के बाद की दुनिया बेरोजगारी ,तरह तरह की बीमारी ,मंदी इत्यादि से जूझ रही है और आने वाली चुनौतियों को लेकर बेचैन है और पर्यावरण ,ग्रीन गैसों के आतंक, प्रदूषण तथा गैस उत्सर्जन के कारण तरह तरह के होते बदलाव को लेकर चिंतित है ,जहा गर्मी पड़ती थी वहा ठण्ड रफ़्तार पकड़ रही है तथा यूरोपीय देशो में ४५/४६ के पारे ने लोगो को परेशांन कर रखा है और दूसरी तरफ जल संकट आने वाले समय की बड़ी चुनती बनता दिख रहा है तो भारत में राजनैतिक नेतृत्व मानो सभी चीजो से बेखबर कभी हिन्दू मुसलमान और मंदिर मस्जिद में उलझा दीखता है तो कभी रामचरित मानस में तो कभी हरिजन या एस सी एस एस टी बनाम शुद्र में तो कभी पिछड़ो की पहचान में और देश को सैकड़ो साल पहले की बहस में घसीट कर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर ले रहा है या फिर वैचारिक दिवालियेपन का शिकार होता दिखलाई पड रहा है |
भारत इस वक्त ४५ साल की सबसे बड़ी बेरोजगारी का शिकार है तो पहले नोटबंदी और फिर कोविड ने अर्थव्यवस्था को बड़ा धक्का पहुचाया है | बहुत बड़ी तादात में नौकरिया चली गयी तो ना जाने कितने कारोबार बंद हो गए | कोविद के प्रभाव की मौते हो या अर्थव्यवस्था के प्रभाव से आत्महत्याए इनके आंकड़े डराने वाले है | दूसरी तरफ सरकारी भरती या तो रुकी हुई है या फिर पद घट रहे है या निजीकरण की रफ़्तार का प्रभाव है कि रोजगार के अवसर कम होते जा रहे है | ऐसे में लड़ाई और विमर्श तो इस बात का है कि रोजगार के अवसर कैसे बढे या विकेन्द्रित कारोबार कैसे बड़े ,स्वरोजगार के अवसर कैसे बड़े ऐसी परिस्थिति में जब पूँजी का केंन्द्रीकरण ही बढ रहा हो | अंधाधुंध शहरीकरण के कारण कृषि योग्य भूमि कम होती जा रही हो ,गावो की अव्यवस्था और मूलभूत सुविधावो के आभाव में गाँव से पलायन बढ़ रहा है तो बढ़ती आबादी में परिवारों में बटवारा होते जाने के करण खेतीं के छोटे छोटे टुकड़े होते जा रहे हो जो किसी भी दृष्टि की लाभदायक भी नहीं हो और परिवार को बोझ उठाने में भी असमर्थ साबित हो रहे हो , चिकत्सा और शिक्षा महगी होती जा रही हो | देश में आर्थिक विषमता सिर्फ बढ़ ही नहीं रही हो बल्कि सबसे ऊपर और नीचे वालो के बीच की दूरी कम होने के बजाय सुरसा की तरह बढ़ती जा रही हो और देश के सौ घरानों के पास देश की ९०% से ज्यादा संपदा हो गयी हो | पड़ोसियों की चुनौतिया भी मुह बाए खड़ी है | ऐसे में जिन मुद्दों का इंसान के जीवन की बेहतरी से कोई सम्बन्ध नहीं है और कम से कम ९०% से ज्यादा लोगो का तो कोई सम्बन्ध नहीं है उन मुद्दों में देश को भटकाना क्या देश ,समाज और जनता के साथ गद्दारी और गुनाह नही है |
आई तो थी इतनी बड़ी आपदा उसमें धर्म और धार्मिक प्रतीकों ने इंसान की क्या मदद किया या जातिगत सगठन तथा ठेकेदार और धर्मो के ठेकेदारों ने क्या मदद किया ? सब तो अपनी अपनी जान बचाने में लगे थे |
इसी के साथ एक सवाल पूछ लिया जाए की धर्म का इस्तेमाल सिर्फ राजनीति और वोट के आलावा क्या हुआ है इन सालो में ? क्या इसके ठेकेदार इस बात का दावा करते हुए आंकडे दे सकते है की इन विवादों के छिड़ने के बाद से आबादी में कितनो में राम ,लक्षमण ,भरत के गुणों का विकास हुआ या कितनो ने सचमुच में राम की मर्यादा ,लक्षमन का समर्पण ,भरत का आदर्श अपना लिया है ? या फिर रावणों और कैकेयी तथा की संख्या ही बढ़ रही है ? कितनो ने कृष्ण से या महाभारत से क्या शिक्षा लिया है ? या सिर्फ सब पाने को चाहे अपनों की भी हत्या करनी पड़े तो कर दो वही सीखा और बस द्रौपदी की साडी खीचना ही याद रहा ? क्या ये आश्चर्यजनक नहीं है की जितना धर्म की चर्चा बढ़ी और धर्म स्थल कदम कदम पर बने उतना ही धर्म और इश्वर का डर ख़त्म हो गया तभी तो चारो तरफ पाप बढा हुआ है और धर्म के ठेकेदारों ने साभी पापियों के लिए पाप करने के बाद उसे धोने के रास्ते भी निकाल दिया है | क्या ये सच नहीं है की सीता के वन गमन का दृश्य देखकर आंसू बहाने वाले लोग फिल्म या सीरियल ख़त्म होते ही बीबी को पीटने लगते है ,भारत मिलाप के दृश्य पर सुबकने वाले अपने ही भाई से मुकदमा लड़ रहे होते है या उसके खिलाफ षड्यंत्र कर रहे होते है ,द्रौपदी के चीरहरण पर दुखी होने वाले अपने बहुत करीबी से या आसपास चीर हरण से भीं ज्यादा कर बैठते है और रोज इन समाचारों से अख़बार रंगे रहते है | सवाल है की फिर सभी धार्मिक पुस्तकों और प्रतीकों ने अपने मानने वालो पर क्या प्रभाव डाला है ? अगर कुछ नहीं तो उनका उपयोग क्या है ? सिर्फ विवाद ,घृणा और वोट की तिजारत |
यही सवाल जातियों के ठेकेदारों से भी है की क्यों नहीं कोइ दूसरा महत्मा फुले या बाबा साहेब पैदा हो पाए आजतक ? क्यों नहीं कोई डा लोहिया फिर से पैदा हो पाए आजतक और कैसे जातियों के उत्थान के नाम पर सत्ता पाए लोग तो अरबपति खरबपति बन गए परन्तु उनकी जातीया सिर्फ पीछे ही नहीं छूट जाती है बल्कि उन आकाओ के आसपास फटक तक नहीं सकती है | उंच बनाम नीच की लड़ाई लड़ते लड़ते लोग खुद ऊंचे बन जाते है और जिनके दम पर ऊंचे होते है उनसे बदबू आने लगती है और वही लोग समाज में फिर आपसी घृणा फैला रहे है | भारत का नौजवान क्या पिचली शताब्दी में ही अटका है या इस प्रतिस्पर्धा के युग में उसका मुकाबला करने और उस चुनौती को स्वीकार कर आगे बढ़ने की मानसिकता बना चुका है जिसके परिणाम स्वरुप वो जाति और धर्म से ऊपर उठकर देश और दुनिया में नौकरी हो या व्यापार या अनुसंधान सभी में अपनी प्रतिभा का लोहा मनवा रहा है |
किसी भी देश और समाज के नेत्रत्व की जिम्मेदारी होती है की वो अपने यहाँ धार्मिक और सामाजिक कटुता दूर करे ,अन्धविश्वास ख़त्म करे और इतिहास की कटुता से अपने समाज और देश को दूर करने का औजार बने तथा नयी पीढ़ी को नया प्रगतिशील समाज और देश बनाने को प्रेरित करे न की पुरानी कटुता को अगली पीढियों को दे | फिर भी जो लोग ऐसा करते है वो वो लोग है जिनके पास देश समाज और मानवता के लिए कोई सार्थक सपने नही है ,सिद्धांत नही है और उन सपनों को पूरा करने का संकल्प नही है ,सचमुच के सरोकारों को लेकर कोई सोच नही है ,कोई वैकल्पिक कार्यक्रम नही है ,सरोकारों से सरोकार नहीं है वो ही लोग समाज और देश को तुच्छ और गैर जरूरी मुद्दो पर भटकाते रहते है ।
जबकि आम भारतीय और नई पीढ़ी तो अपने दैनंदिनी संघर्ष से जूझ कर हल ढूंढ रहा है
इसे जाति और धर्म में उलझा कर अज्ञानी नेतृत्व मुंह छुपाना चाहता है सचमुच के मुद्दो से । देश और समाज को इन लोगो को आइना दिखा ही देना चाहिए तभी ऐसे लोगो से मुक्ति मिलेगी या इनमे सार्थक सुधार आएगा ।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here